सुनते आए थे कि घूरे के भी दिन बदलते हैं
देख लिया कि वक़्त के पहिये भी दिशा बदलते हैं
और घर होते हैं घर ,घरों के भी दिन बदलते हैं
देख लिया न
ख़ालीपन निशब्द घरों में शब्दों ने फिर फेरे डाले हैं
फिर से चमके चौके चूल्हे सावनों ने घेरे डाले हैं
देश परदेशो से लौटे, सँभले से व्यवहार हैं
मैले मुख कस कमर मुखरित पहले से ये उद्गार है
देख लिया न
भरे घर वीरान कर,कुल देवों का अपमान कर
स्वर्ण- मृग छल और बल से ले गया था जब शहर
कांधे लग बरगद के पीपल हूकों भर रोया था जितना
पगलाए पनघट को निज अश्रु से धोया कितना कितना
ओढ़ चादर वीराने की पगडंडी ने चेहरा ढांपा था
दादा की बूढ़ी थी आंखे सारा कुछ पर भाँपा था
देख लिया था दूर तक
व्यर्थ सी अब ब्याह - बारातें , कराहती किलकारियाँ
फीकी दीपावली की रातें, तितलियों बिन क्यारियाँ
गुमगुम रहने लगा था गाँव ,शहरी होने लगे थे पाँव
बंद घरों में घुट रही थी , सूरज की रूठी रूठी छांव
अर्थ-शब्द विस्थापन के किस्से, अनकही अनसुनी कथाएँ
खेत खलिहानों के हिस्से, घर -घरौंदों की व्यथाएं
जब अर्थहीन होने को आई ,पीर न जब हृदय समाई
ख़ालीपन निशब्द घरों में, दुआ से दुआ ने गुहार लगाई
जीवन है जीवन आखिर
महज़ रोटी कपड़े से ही तो नहीं बसर होता है
सुनते तो यही थे कि दुआओं मे असर होता है
देख लिया न
सो गई शहर की सदियाँ,गाँव का पहर जाग गया
ख़ालीपन निशब्द घरों में शब्द सा जादू फैल गया
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आद0 अमिता तिवारी जी सादर अभिवादन। बढ़िया सृजन हुआ है। भावपूर्ण और अर्थपूर्ण। बधाई स्वीकार कीजिये
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