जलता है जिस्म सुर्ख है किंदील के जैसे
इक झील दिन में लगती है किंदील के जैसे
हर शाम उतर आता है ये दरियाओं झीलों पर
मर फ़ासलाई होगी इक खगोलिये इकाई
दिखता भी सुर्ख सुर्ख है घामें लपेटे है
सूरज भी तो जलता है इक किंदील के जैसे
है तीरगी घनी घनी ज़हनों के अंदर तक
सब भूल जायें जात-पात हद-कद और सरहद
सब ख़ाक करके बंदिशें रौशन करें ख़ुद को
मैं भी जलू तू भी जले किंदील के जैसे
चलो मिलके सारे जलते हैं किंदील के जैसे
है धरती के अंदर लावा किंदील के जैसे
ऊपर भी काशी कावा है किंदील के जैसे
किंदील ही तो हैं जो बातें दिल जलाती हैं
किंदील ही वो हैं जो बातें दिल करें रौशन
किंदील के जैसे ही तो सारे शरारे हैं
किंदील पानियों पर ये बहते शिकारे हैं
हर चाँद रात लगती है किंदील के जैसे
फ़िर जल रही हैं शम्मायें किंदील के जैसे
जग लग रहा है इक बड़ी किंदील के जैसे
ये हसरतें ये बेचैनी ये सुर्ख लब दिल की तलब
किंदील हैं किंदील हैं किंदील हैं जैसे
किंदील हैं किंदील हैं किंदील हैं जैसे
मौलिक व अप्रकाशितआ
आज़ी तमाम
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