हर बरस यह बात सामने आती है कि प्रतिमाओं के विसर्जन तथा श्रद्धा में लोग कहीं न कहीं, अंध भक्ति में दिखाई देते हैं और अन्य लोगों को होने वाली दिक्कतों तथा प्रकृति को होने वाले नुकसान से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता। अभी कुछ दिनों पहले जब गणेश प्रतिमाएं विराजित हुईं, उसके बाद कान फोड़ू लाउडस्पीकरों ने लोगों को परेशान किया। प्रशासन की सख्त हिदायत के बावजूद फूहड़ गाने भी बजते रहे। श्रद्धा-भक्ति के नाम पर जिस तरह तेज आवाज में गानें दिन भर बजते रहे या कहें कि दिमाग के लिए सरदर्द बने ये भोंपू रात में भी बजते रहे। श्रद्धा-भक्ति की बात आती है तो आदेश-निर्देश जारी करने वाली पुलिस भी पीछे हट जाती है। कई बार यह भी कहा जाता है कि पुलिस को शिकायत नहीं मिली है। क्या किसी की शिकायत के बाद ही पुलिस कार्रवाई करेगी? यही पुलिस की जवाबदेही बनती है ? शांति व्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी पुलिस की होती है। इसमें स्वस्फूर्त उनकी भूमिका दिखाई देनी चाहिए, जो हर बार की तरह इस बार भी दिखाई नहीं दी। सवाल यही है कि क्या किसी को श्रद्धा-भक्ति के नाम पर परेशान करना उचित है ? स्कूल-कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों की पढ़ाई तो प्रभावित होती ही है, साथ ही उन लोगों की परेशानी भी बढ़ती है, जिन्हें तेज आवाज के कारण शारीरिक दिक्कतें होती हैं। श्रद्धा-भक्ति महज दिखावा नहीं होना चाहिए, मानवीय रूप से भी लोगों को दूसरों को होने वाली मुश्किलों को समझना चाहिए। कानफोड़ू आवाज के बाद, लोग रास्तों के जाम होने के कारण परेशान होते हैं। यहां भी केवल अंध भक्ति ही दिखाई देती है। क्या, कोई रास्ता जाम करके या ऐसा कोई कार्यक्रम करके, जिससे पूरा मार्ग ही बंद हो जाए, ऐसा करके अपनी भक्ति भावना को बढ़ाया जा सकता है ? भक्ति भाव में यह होना चाहिए कि दूसरों को बिना दुख दिए तथा परेशानी में डाले पूजा होना चाहिए। न कि ऐसी किसी कृत्य की ओर उन्मुख होना चाहिए, जिससे लोगों को आवाजाही में परेशान होना पड़े। तीसरी बात जिस तरह से नदी-नालों तथा तालाबों में प्रतिमाओं को श्रद्धा भाव से विसर्जन किया जाता है, वह क्या सही है ? पहले प्रतिमाओं का स्थापन भी कम होता था और तालाबों की संख्या अधिक हुआ करती थी। आज स्थिति यह है कि तालाबों की संख्या दिनों-दिन सिमट रही है और नदी-नालों में पानी का जल स्तर भी कम होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में प्रतिमाओं को बिना किसी प्रकृति का ख्याल किए, विसर्जन की परिपाटी को बेहतर नहीं कहा जा सकता। एक अन्य पहलू के तहत देखें तो प्रतिमाओं में तरह-तरह के रंग तथा कई ऐसी सामग्रियों का इस्तेमाल होता है, जो सड़ता नहीं है। इससे निश्चित है, पानी का शोधन में रूकावट पैदा होगी, यह भी हमारे आने वाले दिनों के लिए ठीक नहीं है। बारिश के दिनों में पॉलीथीन के कारण भूमि में पानी का जमाव नहीं होता, उसी तरह से ऐसी सामग्रियों से प्रकृति को हम कहीं न कहीं नुकसान पहुंचा रहे हैं। श्रद्धा भक्ति ऐसी होनी चाहिए, जिससे भगवान की आराधना भी हो जाए और प्रकृति को प्रभावित होने से भी बचाया जाए। इसी तरह की पहल की आवश्यकता है। इसमें हम सभी को आगे आना होगा। श्रद्धा को हम आत्मसात ऐसे करें, जिससे हमें अपनी प्रकृति का कोपभाजन न बनना पड़े। आज ऐसी ही तमाम गलतियों के कारण ही हमारी प्रकृति बिगड़ रही है और पर्यावरण प्रभावित हो रहा है। पर्यावरण के दूषित होने से कई तरह की बीमारियों होती हैं, यह भी हमारे शारीरिक जीवन से जुड़ा हुआ है। अब बात करें, उस अंध भक्ति की, जिसके बाद श्रद्धा का भाव कहीं गुम होता नजर आता है। प्रतिमाओं के विसर्जन के लिए टोली निकलती है तो उस दौरान अधिकतर देखा जाता है कि अनेक लोग शराब के नशे में रहते हैं। ऐसे में हम किस तरह श्रद्धा-भक्ति को भगवान को अर्पित कर रहे हैं ? इस बात पर हमें विचार करने की जरूरत है। शराब पीने के बाद राहगीरों से हुज्जतबाजी तथा मार्ग को जाम कर नाचते-गाते विसर्जन के लिए जाने की सोच को, कहां तक सही कहा जा सकता है ? क्या शराब पीकर भगवान की सच्ची आराधना हो सकती है ? गणेश विजर्सन के बाद भगवान विश्वकर्मा के विसर्जन के दौरान भी यही हालात नजर आए। अब कुछ दिनों बाद मां दुर्गा की पूजा-अर्चना होगी। इस दौरान भी प्रतिमाओं का स्थापन होगा, कानफोड़ू आवाज में लाउडस्पीकर फिर गूंजेंगे। उसके बाद प्रतिमाओं का विसर्जन होगा, इस समय भी प्रकृति के बिना परवाह किए एक बार फिर हम तालाबों-नदी नालों के पानी को दूषित करने की कोशिश करेंगे। श्रद्धा-भक्ति की कोई थाह नहीं है और न ही किसी मापक से मापी जा सकती है। यह तो भगवान की सच्चे मन से की गई आराधना होती है। जिससे मन को शांति मिले और मन को तभी शांति मिलेगी, जब किसी राहगीर या आम लोगों का मन अशांत न हो। इसके लिए हर वर्ग के लोगों को सामने आकर जहां रास्ता जाम होने की स्थिति को लेकर जागरूकता लाने का प्रयास करना चाहिए और समितियों के पदाधिकारियों को पहल करनी चाहिए, वहीं कानफोड़ू आवाज से भी तौबा किया जाना चाहिए, जिससे किसी अन्य को होने वाली जबरन की परेशानी से निजात मिल सके। शराब की बढ़ती प्रवृत्ति भी अंध भक्ति का परिचायक साबित हो रही है, क्योंकि जब लोग शराब के नशे में मदहोश रहेंगे तो फिर कहां और कैसी भक्ति की बात हो सकती है ? शराब के नशे में धुत्त व्यक्ति की अंधश्रद्धा के कारण राहगीर को भी दिक्कतें होती हैं, इस दिशा में भी जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है। तब कहीं जाकर हम कह सकेंगे कि हमने अपने आराध्य के प्रति सच्ची भक्ति व श्रद्धा प्रकट किया, अन्यथा ऐसी ‘अंध-भक्ति’ केवल लोगों के लिए मुसीबत बनी रहेगी। राजकुमार साहू लेखक जांजगीर, छत्तीसगढ़ में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार हैं। पिछले दस बरसों से पत्रकारिता क्षेत्र से जुड़े हुए हैं और स्वतंत्र लेखक, व्यंग्यकार तथा ब्लॉगर हैं। जांजगीर, छत्तीसगढ़
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