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کهن جانگه

कहाँ जाएँगे

कश्ती मंझधार में है बचकर कहाँ जाएंगे
अब तो लगता है ऐ-दिल डूब जाएँगे
कोई आएगा बचाने ऐसा अब दौर कहाँ
अब तो चाहकर भी साहिल पे ना आ पाएँगे
हमनें सोचा था संवर जाएगी हस्ती अपनी
उनके दिल में ही बसा लेंगे बस्ती अपनी
इस भंवर में पहुँचाया हमें अपनों ने ही
अब इस तूफां से क्या खाक बच पाएँगे
अपनी बेबसी पे ऐ-कुल्लुवी क्या बहाएँ आंसू
वक़्त जो बच गया अब उसको कैसे काटूं
चंद लम्हों में यह 'दीपक' भी बुझ जाएगा
हम भी घुट घुट कर ऐ-दिल मर जाएंगे

दीपक शर्मा कुल्लुवी'
داپاک شارما کوللووی
०९१३६२११४८६,३०८८२८८१

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 22, 2010 at 9:41am
जीवन में उपजे नैराश्य का सुन्दर चित्रण|
Comment by Deepak Sharma Kuluvi on August 20, 2010 at 11:40am
DHANYABAAD SIR,YOUR COMMENTS ARE MY INSPIRATION

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 20, 2010 at 10:20am
इस भंवर में पहुँचाया हमें अपनों ने ही
अब इस तूफां से क्या खाक बच पाएँगे,

अच्छी रचना , सुंदर अभिव्यक्ति, आपने विल्कुल सही फ़रमाया है, किसी शायर ने सही ही कहा है की ----मुझे अपनों ने लुटा गैरों मे कहा दम था, मेरी किश्ती वहा डूबी जहा पानी कम था,

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