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इंसानों की दुकान

दुनिया को दुनिया क्यों कहते हैं ?
इंसानों की दुकान क्यों नहीं कहते ?
जहाँ इंसान बिकते हैं..

बिकते हैं कुछ हो बेआबरू यहाँ, कुछ हैं जो होकर महान बिकते हैं..

देते हजारों को गुलामी ये जन ,खुदको शहंशाह मान बिकते हैं..

लो हो गयीं शख्सियतें कीमती, खरीदो ये महंगे सामान बिकते हैं..

हो गए हैं जिंदगी से खाली शायद, जिस्म बिकते हैं जैसे मकान बिकते हैं..

पूछा तो बोले इसमें शर्म कैसी, हमें फक्र है हम सीना तान बिकते हैं..

देखी जो जमीं की हालत खस्ता, कुछ शख्स लेकर उड़ान बिकते हैं..

मुफ्त की वज्म-ए-जिंदगानी को ये, नासमझ बिकाऊ जान बिकते हैं..

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Comment by Bhasker Agrawal on December 3, 2011 at 6:33pm

शुक्रिया 

Comment by Lata R.Ojha on December 2, 2011 at 6:38pm

हो गए हैं जिंदगी से खाली शायद, जिस्म बिकते हैं जैसे मकान बिकते हैं..

पूछा तो बोले इसमें शर्म कैसी, हमें फक्र है हम सीना तान बिकते हैं..

Shaandaar ! karaari chot girti insaaniyat aur soch pe ..badhai.

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