सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ आभार ?
क्या लिखूं ?
जिसमें समा जाए -
-नहाई देह की खुशबू
सुबह मेरी जो महकाती रही है !
-और होंठो की मधुर मुस्कान
जो बिखरी मेरे होंठो पे ऐसे खिलखिलाकर ,
भर गई मेरे ह्रदय में
उष्णता अनमोल !
मरुथल में खिले जैसे
कुछ हँसी के फूल !
योग्य संभवतः नही पर
धन्य हूँ पाकर
दिए तुमने हैं जो उपहार !
सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ आभार ?
ढूंढ कर लाऊं कहाँ से ?
शब्द ऐसे -
-जो तुम्हारे रात भर जागे नयन को
नींद का आराम दे दे !
-जो उनींदी उलझनों को
प्रात सी मुस्कान दे दे
क्या लिखूं मैं ?
जो तुम्हारे थकन को परिणाम दे दे !
और शक्ति दे कि तुम फिर
अन-थके दिन भर संभालो
आसमां का भार !
सखी !
बस शब्द से कैसे
प्रकट तेरा करूँ आभार ?
.......................................... अरुन श्री !
Comment
भाई अरुणजी, इस भावप्रवण कविता के लिये बधाई. वैसे कुछ और कसावट इस रचना में और खूबसूरती का वाइस बनती.
’होठ (या होठों?) की मुस्कान’ का प्रयोग कुछ-कुछ गर्म आग या ठंढी बर्फ़ की तरह लगा.
बहरहाल, आपके शब्द कुनमुनाते हुए हैं. सो, अच्छे लगते हैं.
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