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वह बोझिल मन लिए
उदास उदास
निहार रहा अपनी कुदरत
खड़ा क्षितिज के पास
मिल कर भी
नहीं मिलते जहाँ
दो जहां

अपनी अपनी आस्था की धरा पे
कायम हैं उसके बनाये इंसान
हो गए हैं जिनके मन प्रेम विहीन
बिसरा दिए हैं जिन्होंने दुनिया और दीं

इस रक्त रंजित धरा पर बिखरे
खून के निशाँ
वही नही बता सकता
उन्हें में कौन है
राम और कौन रहमान

बिसूरती मानवता के यह अवशेष
लुटती अस्मत,मलिन चेहरे,बिखरे केश

सुर्ख उनीदीं आँखें
जिन्हें सोने नहीं देता यह खौफ
जाने कौन घड़ी जला दिया जाये
उनका आशियाना
जब सारा समाज ही
हो रहा वहिशयाना

जहां सजता था
खुशियों का आशियाना
वहां बसर कर रहे
ख़ामोशी और वीराना

कुदरत बनाने वाला
शर्मिंदा है खुद
देख कर अपने
बन्दों के कर्म
और चाहता है सिर्फ
इंसानियत का धर्म
प्रेम,संवेदना और सहिष्न्नुता का मर्म
वरना न तो कुदरत रहेगी
न इंसान,न धर्म.

aur

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Comment

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Comment by Pooja Singh on October 6, 2010 at 4:25pm
रजनी जी ,
प्रणाम बढिया अभिव्यक्ति है , की {इस रक्त रंजित धरा पर बिखरे
खून के निशाँ
वही नही बता सकता
उन्हें में कौन है
राम और कौन रहमान

बिसूरती मानवता के यह अवशेष
लुटती अस्मत,मलिन चेहरे,बिखरे केश} बधाई स्वीकार करे|
Comment by rajni chhabra on October 2, 2010 at 11:32pm
Shukriya,Navin Ji
Comment by rajni chhabra on October 1, 2010 at 3:38pm
bahut bahut abhaar,Ganeshi ji,aap ke bahumulay comment ke liye

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 1, 2010 at 9:43am
कुदरत बनाने वाला
शर्मिंदा है खुद
देख कर अपने
बन्दों के कर्म
और चाहता है सिर्फ
इंसानियत का धर्म
प्रेम,संवेदना और सहिष्न्नुता का मर्म
वरना न तो कुदरत रहेगी
न इंसान,न धर्म.
रजनी दीदी, आप की कविता झकझोर के रख दिया अंतरात्मा को, हम क्यों नहीं समझते इन सियासी बातों को, प्रेम से मिलकर रहने का मजा ही कुछ और है, कुदरत ने तो मजहबी अंतर नहीं किया है तो हम इंसान कौन होते हैं अंतर करने वाले,
बहुत ही सुंदर और ससक्त रचना, बधाई स्वीकार करे इस कृति पर ,

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