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रौशनी-अँधेरे का तो रहा बखेडा है

सूरजों की बस्ती थी, जुगनुओं का डेरा है ,
कल जहा उजाला था अब वहां अँधेरा है.

राह में कहाँ बहके, भटके थे कहाँ से हम ,
किस तरफ हैं जाते हम, किस तरफ बसेरा है.

आदमी न रहते हों बसते हों जहां पर बुत ,
वो किसी का हो तो हो, वो नगर न मेरा है.

रहबरों के कहने पर रहजनों ने लूटा है ,
रौशनी-मीनारों पे ही बसा अँधेरा है .

मछलियों की सेवा को जाल तक बिछाया है ,
आजकल समन्दर में गर्दिशों का डेरा है.

दीप को तो जलना है, दीप तो जलेगा ही ,
रौशनी-अँधेरे का तो रहा बखेडा है .

deepzirvi@yahoo.co.in.

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 12, 2010 at 10:27am
आदमी न रहते हों बसते हों जहां पर बुत ,
वो किसी का हो तो हो, वो नगर न मेरा है.

बहुत बढ़िया, पुनः एक शानदार अभिव्यक्ति, धन्यवाद,
Comment by DEEP ZIRVI on October 11, 2010 at 7:47pm
sb ka dhnyvad mujh me vishvaas vykt krnay ke liye

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