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(सब से पहले यहीं पर प्रस्तुती कर रहा हूँ इस रचना की , आशीर्वाद दीजियेगा)


जलने दो मुझे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो .
ये आग जलाई है में ने , मुझे अपनी आग में जलने दो .

तू मेरी चिंता मत करना ,ठंडी आहें भी मत भरना ;
मैं जलता था मैं जलता हूँ ,सम्पूर्णता को मचलता हूँ ,
मन मचल रहा है मचलने दो ;मुझे अपनी आग में जलने दो .


दाहक,दैहिक पावक न ये ,मानस तल का दावानल है,
ज्वाला मैं जन्म पिघलने दो ,मन को शोलों में ढलने दो
मुझे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो

जल बिना मुझे जल जाने दो ,विषबेल सुनो!पल जाने दो ;
धज्जी धज्जी ,टुकड़ा टुकड़ा , अब इस जीवन को गलने दो ,
मुझे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो

तन तपता है ,तन प्यासा है, मन मेरा मोर रूआंसा है;
जंगल में भटका भटका सा, है मारीचिका में अटका सा;
जल बिन थल में इसे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो

उड़ मेघ जो काले आयें भी , जल थल जल थल कर जाएँ भी ,
सौदामिनी चमके दमके भी , गहन गगन घोर नभ चमके भी ,
सौदामिनी से गले मिलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो

ओ मीत हमारे तू प्यारा , तू प्यारा और पराया भी ;
तू सिन्धुरी सी छह मेरी और है तुझे युग से चाहा भी ;
तू अपने को मत छलने दे ,अपनी ही आग में जलने दो

दीप जीरवी

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Comment

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 10, 2010 at 12:52pm
दीप साहब बधाई हो, बहुत ही सुंदर और ससक्त रचना, गुनगुनाने का जी चाहता है , शानदार है यह ,
दाहक,दैहिक पावक न ये ,मानस तल का दावानल है,
ज्वाला मैं जन्म पिघलने दो ,मन को शोलों में ढलने दो
मुझे जलने दो ,अपनी ही आग में जलने दो,
बहुत खूब ,

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on October 10, 2010 at 8:51am
बहुत सुन्दर
तप कर ही तो निखार आता है, वीर रस से ओत प्रोत रचना के लिए बधाई|

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