(निराश को आशाप्रद करती रचना)
आगंतुक
Comment
आदरणीय मोहन जी:
रचना की सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आदरणीय राम जी:
रचना की सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।
शुभकामनाएँ और सस्नेह,
विजय निकोर
आदरणीया वंदना जी:
सराहना से अनुमोदित करने के लिए आपका अतिशय आभार।
आशा है संबल देती रहेंगी।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आदरणीया सावित्री जी:
रचना की उदात्त सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।
आपके प्रेषित भाव मुझको सोचने के लिए और संबल
दे गए।
सादर और सस्नेह,
विजय
आदरणीया मंजरी जी:
आपको चित्रण अच्छा लगा ..
सराहना के लिए हार्दिक आभार।
सादर और सस्नेह,
विजय निकोर
आदरणीय सौरभ जी:
आपकी प्रतिक्रिया में निहित दार्शनिक विचार मुझको सदैव और सोचने को प्रेरित करते हैं।
सराहना के लिए शत-शत आभार।
सादर और सस्नेह,
विजय
Sharadindu ji:
Thank you for your kind heartfelt appreciation.
Regards,
Vijay
वाह! द्वार खुला रखने के लिये इतना मधुमय संदेश........काश सारा विश्व इस पुकार को सुन सके. आदरणीय विजय जी, बहुत सशक्त लेखन है आपकी यह प्रस्तुति.
वृत्तियाँ कुहावरण का निर्माण करती हैं जो अपने ’स्व’ के लिए विवेक का मुखापेक्षी हुआ करता है. विवेक -- इकाइयों की वृत्तियों पर निर्भरता तथा दासता का नीर-क्षीर करता हुआ.. !
वहीं मुखौटों की ओट में जीने का लती एक क्लिष्ट मस्तिष्क इस विवेक को दास बना कर अपने लिए ऐसा सुलभ वातावरण बनाता है जहाँ उसे भावुक हृदय को कक्षबद्ध न देखना पड़े. उसे मालूम है ऐसा करने पर उसे स्वयं के अन्तःकरण की शुद्धता को प्रामाणिकता की कसौटी पर उतारना होगा, जोकि उसके लिए आत्म-निरीक्षण, तदनुरूप आत्म-मंथन के दुर्धष प्रवाह को झेलने के समान होगा. वस्तुतः कठिन है यह.
अतः, वह अपनी ओट हेतु वायव्य कारण बना स्वयं की निरीहता के सांकेतिक तथ्य बाँटता है.
प्रस्तुत कविता अनकहे को पोसती और कहे को विस्तार देती बहुत कुछ कहना चाहती है.
सर्वे भद्राणि पश्यंतु ..
बधाई.. . व शुभकामनाएँ.
आदरणीय विजय जी ऐसे ही आता है। जाने क्या क्या कह है। बहुत अच्छा चित्रण।
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