For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

       

 

    (निराश को आशाप्रद करती रचना)

     

 

         आगंतुक

                                        
मन के द्वंद्वात्मक द्वार पर
दिन-प्रतिदिन   दस्तक   देती
ठक-ठक  की वही  एक  आवाज़,
पर दरवाज़े पर खड़ा हर बार
आगंतुक   कोई   और है।
 
" ठक-ठक-ठक "
" कौन ?"
" मैं, तुम्हारा अहम् "
 
 जब-जब   उसको  करता  हूँ  प्रभंग
 टुकड़ों को फेंक आता हूँ दूर कहीं,
 वह पुन: संपूर्ण लौट आता है,
 माँगता  है  अधिकार  अपना
 और  चंगुल  में  भींच  कर मुझको
                       दबोच   लेता   है।
 मैं  उसके  आधीन
 क्षमा-प्रार्थी-सा
 सदैव  सिर  झुकाए  रहता  हूँ।
 
" ठक-ठक-ठक "
" कौन है आज ? "
 
" मैं, तुम्हारी अंतरात्मा।
  तुमने मुझको पुकारा था न? "
 
" हाँ, हाँ, आओ, आओ,
  मैंने ही तो पुकारा था  तुमको,
  जब मैं असहाय और पीड़ित
  अहम् के चंगुल में
  बन्दी बना था, और
  उससे दम घुट रहा था मेरा।"
 
" मेरी  अंतरात्मा,  प्रार्थना  है यही,
  इस  अहम्  से  दूर  रखो मुझको,
  लोगों  की  बातों  में,  प्रस्तावों में,
  जानता हूँ छिपे हैं  बेशुमार
  भेड़िये,  सिंह,  और  सियार,
  उनके सम्मुख मैं अबोध शिशु-सा
  बिलकुल  बेबात  रह  जाता  हूँ।
  मेरी अंतरात्मा, कृप्या तुम मुझको
  बस अब इन सभी से  छिपाए  रखो।"
 
" ठक-ठक-ठक "
" अब  कौन है? "
 
" मैं, तुम्हारी अवहेलना।
  तुम्हारे पड़ोसी, तुम्हारे  ‘मित्रों’ ने
  यहाँ  भेजा है मुझको।
  जब  भी  आती  हूँ,  तुम  मुझको
  अपनी  अंतरात्मा  की  शक्ति  से
  फिर  न  आने  का  आदेश देकर
  कहीं  दूर  छोड़   आते हो,
  पर  तुम्हारे पड़ोसी, तुम्हारे ‘मित्र’
  सस्नेह बुला लाते हैं मुझको
  तुम्हारी   उपेक्षा   के  लिए।"
 
" ठक-ठक-ठक "
" कौन ? निराशा तुम ?
  तुम फिर लौट आई ?"
 
" हाँ,  मैं  जानती  हूँ  कब-कब
  संघर्ष और संदेह से आक्रांत
  उलझे  और  उदास  हो  तुम,
  मुझसे रहा नहीं जाता, और
  तुम्हारी अविच्छिन उदासी का
                              साथ देने
  अपरीक्षित  चली  आती  हूँ  मैं,
  और तुम्हारी बगल में बैठी
  तुम्हारी वेदना को
  देर तक  सहलाती हूँ।"
 
" ठक-ठक-ठक "
" कौन है इस बार? "
                          
" मैं, तुम्हारा विश्वास।
  निराशा को तुम्हारे संग
  मैं कदाचित सह नहीं सकता।
  प्रत्यय और प्रत्याशा के तिनके बटोर
  तुम्हारे द्वार चला आता हूँ,
  रोको मत, मत रोको, आने दो मुझे।"
 
" ठक-ठक-ठक "
                          
" लौट जाओ, जाओ, कोई नहीं है यहाँ।"
                          
" मैं,  मैं  तुम्हारी  मन:स्थित
  जन्म  से  तुम्हारी,  केवल  तुमसे  बँधी...
  बहुत  नादान  हो  तुम,
  क्षणिक खुशिओं से आकृष्ट
  उन्माद के संक्षोभ में
  धकेल देते हो दूर मुझको,
  और फिर
  उन्हीं खुशियों से क्षत-विक्षत,
  गंभीर और चिंतित,
  अस्त-व्यस्त हो जाते हो तुम..."
 
" अव्यवस्थित और प्रकंपित
  आशंका  के  अँधेरों  में
  ग्लानि की धुँधली
  खाईयों में खो जाते हो।
  पड़े रहते हो प्रायश्चित की
  दलदल में तुम
  हर बात, हर स्वांग का
                      विश्लेषण करते
  कुछ और उलझ-उलझ जाते हो,
  गीले कपड़े के समान
  स्वयं   को   निचोड़-निचोड़,
  अपने ही बनाए कारागार में
                         रहते हो बंदी।"
 
" तुम, तुम ऐसा क्यूँ करते हो?
  तुम जीने का अभिप्राय समझो,
  खोल दो, खोल दो द्वार,
  कर लो स्वीकार फूलों की सुगंध,
  सूर्य   की   औपचारिक   किरणें
  चंद्रमा की शांत शीतल अनुभूति,
  भर लो झोली इन
               छोटी-छोटी खुशियों से
  बच्चों  के  खिलोनों  की  तरह,
  हँस दो कि जैसे हो तुम
                         कठपुतली कोई,
  और हँसते ही रहो फूलों की तरह।"
 
" आज, खोल दो द्वार, और अब
  इसे खुला ही रहने दो,
  फिर खुले द्वार पर तुम्हारे
  कभी  कोई  दस्तक  न  होगी।"
                        -------
                                                                                  --  विजय निकोर
 
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 915

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 4:20am

आदरणीय मोहन जी:

 

रचना की सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 4:18am

आदरणीय राम जी:

 

रचना की सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।

 

शुभकामनाएँ और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 4:16am

आदरणीया वंदना जी:

 

सराहना से अनुमोदित करने के लिए आपका अतिशय आभार।

आशा है संबल देती रहेंगी।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 4:08am

आदरणीया सावित्री जी:

 

रचना की उदात्त सराहना के लिए मेरा हार्दिक आभार।

आपके प्रेषित भाव मुझको सोचने के लिए और संबल

दे गए।

 

सादर और सस्नेह,

विजय

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 4:02am

आदरणीया मंजरी जी:

 

आपको चित्रण अच्छा लगा ..

सराहना के लिए हार्दिक आभार।

 

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 3:58am

आदरणीय सौरभ जी:

 

आपकी प्रतिक्रिया में निहित दार्शनिक विचार मुझको सदैव और सोचने को प्रेरित करते हैं।

 

सराहना के लिए शत-शत आभार।

 

सादर और सस्नेह,

विजय

Comment by vijay nikore on March 12, 2013 at 3:51am

Sharadindu ji:

 

Thank you for your kind heartfelt appreciation.

 

Regards,

Vijay


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on March 11, 2013 at 8:00pm

वाह! द्वार खुला रखने के लिये इतना मधुमय संदेश........काश सारा विश्व इस पुकार को सुन सके. आदरणीय विजय जी, बहुत सशक्त लेखन है आपकी यह प्रस्तुति.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 11, 2013 at 7:33pm

वृत्तियाँ कुहावरण का निर्माण करती हैं जो अपने ’स्व’ के लिए विवेक का मुखापेक्षी हुआ करता है. विवेक  -- इकाइयों की वृत्तियों पर निर्भरता तथा दासता का नीर-क्षीर करता हुआ.. !

वहीं मुखौटों की ओट में जीने का लती एक क्लिष्ट मस्तिष्क इस विवेक को दास बना कर अपने लिए ऐसा सुलभ वातावरण बनाता है जहाँ उसे भावुक हृदय को कक्षबद्ध न देखना पड़े. उसे मालूम है ऐसा करने पर उसे स्वयं के अन्तःकरण की शुद्धता को प्रामाणिकता की कसौटी पर उतारना होगा, जोकि उसके लिए आत्म-निरीक्षण, तदनुरूप आत्म-मंथन के दुर्धष प्रवाह को झेलने के समान होगा. वस्तुतः कठिन है यह.

अतः, वह अपनी ओट हेतु वायव्य कारण बना स्वयं की निरीहता के सांकेतिक तथ्य बाँटता है.

प्रस्तुत कविता अनकहे को पोसती और कहे को विस्तार देती बहुत कुछ कहना चाहती है.

सर्वे भद्राणि पश्यंतु  ..

बधाई.. . व शुभकामनाएँ.

Comment by mrs manjari pandey on March 11, 2013 at 6:51pm

  आदरणीय विजय  जी  ऐसे ही  आता है। जाने क्या क्या कह  है। बहुत अच्छा  चित्रण।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई। भाई रामबली जी का कथन उचित है।…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई चेतन प्रकाश जी"
Monday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"रोला छंद . . . . हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।सदा सत्य के साथ , राह  पर …"
Sunday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service