धर्म-मजहब के नाम पर,
तुम लड़ सकते हो, मैं नहीं
अपने शब्दों की नुमाइश बेहतर,
तुम कर सकते हो, मैं नहीं
.
मैं.............. मैं क्या कर सकता हूँ ???
मैं तो बस....
.
मैं तो आज भी ले सकता हूँ
बारिश का मज़ा
गलतियाँ कर पा सकता हूँ सजा
कल्पनाओ से निखार सकता हूँ धरा
बात दिल की कहता हूँ सदा.......
.
रो कर मना सकता हूँ उन्हें
रूठ के सता सकता हूँ उन्हें
नादानियो से हँसा सकता हूँ उन्हें
क्या तुम कर सकते हो ?
.
कदाचित नहीं
क्योंकि परिपक्वता तुम्हारा बन्धन है
और नादानीयाँ मेरी आज़ाद उड़ान .....
मौलिक एवं अप्रकाशित
- सुमित नैथानी
Comment
बहुत ही सुन्दर! सुमित जी बधाई!
आपकी ओबीओ पर पहली रचना पढ़ी। अच्छी है! आपको बधाई आपके इस सुन्दर प्रयास पर!
आप सतत लेखन कार्य करें और टिप्पणियों के माध्यम से प्राप्त निर्देशों का पालन करें। निखार आता ही जाएगा।
सादर!
शुक्रिया वर्मा जी
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ……………… |
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