छोटी बहर पर ग़ज़ल का एक प्रयास .....
वक्त जो हम पर भारी है
अपनी भी तय्यारी है
पूरा कारोबारी है
ये अमला सरकारी है
.
प्रजातंत्र के ढांचे में
हर कोई दरबारी है
तय्यारी है हमलों की
अम्न का नाटक ज़ारी है
सच को कैसे सच कह दें
जान हमें भी प्यारी है
खुद को खतरा है खुद से
ये कैसी खुद्दारी है
साम्यवाद के नारों पर
भारी जिम्मेदारी है
वीनस केसरी
मौलिक व अप्रकाशित
फैलुन फैलुन फैलुन फ़ा
Comment
सौरभ जी ग़ज़ल को आपका स्नेह प्राप्त हुआ ...आपका विशेष आभारी हूँ
//किस सुंदरता से बधिया उधेड़ी है///
हा हा हा इसे तारीफ़ ही समझा जाए न ? ;)))))))))))))))))
खैर आपको बहुत बहुत शुक्रिया पसंदगी के लिए
डॉ सूर्या बाली भाई जी आपसे दाद पा कर निःसंदेह ग़ज़ल अपने भाग्य पर इतरा रही है
सादर
अमन कुमार जी आपकी नवाज़िश है
बहुत शुक्रिया
केवल प्रसाद भाई जी ग़ज़ल के अशआर आपको संतुष्ट करते हुए दिखे यह मेरे लेखन की सार्थकता है ...
सादर
डी पी माथुर जी विसंगतियों पर आपकी पैनी नज़र है ...
आपसे ग़ज़ल को अनुमोदित हुआ देख कर मुझे बेहद खुशी हुई ...
सुमित जी शुक्रिया
गीतिका जी आपकी पसंदगी और खुले दिल से दाद प्रोत्साहित कर गई ..
सादर
कुंदन कुमार जी धन्यवाद
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