एक ताज़ा ग़ज़ल ...
चुप तो बैठे हैं हम मुरव्वत में
जाएगी जान क्या शराफत में
किसको मालूम था कि ये होगा
खाएँगे चोट यूँ मुहब्बत में
पीटते हैं हम अपनी छाती क्यों
क्यों पड़े हैं हम उनकी आदत में
खून उगलूँ तो उनको चैन आए
आप पड़िए तो पड़िए हैरत में
बेहया हैं, सो साँसें लेते हैं
मर ही जाते तुम ऐसी सूरत में
अब नहीं आ रहा उधर से जवाब
लुत्फ़ अब आएगा शिकायत में
नाम उन तक पहुँच गया मेरा
अब तो रक्खा ही क्या है शुहरत में
ख़ाब में भी न सोच सकते थे
लिख के भेजा है उसने जो खत में
मैंने रोका था, ख़ाक माने आप
और पड़िए हमारी सुहबत में
जेह्न से वो नहीं उतरता है
हर घड़ी अब रहूँ इबादत में
ठोकरें खाऊंगा ... बहुत अच्छा !
और क्या क्या लिखा है किस्मत में ?
फाइलातुन मफ़ाइलुन फैलुन
मौलिक व अप्रकाशित
- वीनस
Comment
kya kahne hain saahab waah waah waah .....................jordaar gazal har ek sher pe dheron daad kuboolen saahb .............jai ho
वीनस जी, एक बात जो मैं पूछना चाहता था या ज़ाहिर करना चाहता था वो आपने स्वयं आदरणीय ललितजी से साझा कर लिया. वो ये कि बह्र का वज़्न दे कर भी दिया गया मिसरा बेबह्र हुआ तो यह किस वैचारिक तथ्य की पुष्टि करेगा.
संदर्भ -
21 2 1222 1222 1222 .......
चुप ही यहाँ बैठे रहें हम बस मुरव्वत में
आगे, जॉन एलिया पर हम बादमें बातें करें, पहले बह्र को ही बदलने की इस्लाह किस लिहाज़ से मान्य है ? चाहे जिस बह्र और वज़्न में मिसरे हों ग़ज़ल की कहन स्पष्ट होनी चाहिये, संप्रेषणीय़ता दुरुस्त होनी चाहिये. आदरणीय ललित जी का चर्चा और परिचर्चा में स्वागत है किन्तु संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में चर्चा हो न कि संदर्भ ही बदल जायँ !
कौनशाइर किस बड़े या छोटे
शाइर से प्रभावित होता है यह एकदम गौण बातें हैं. इस पर चर्चा हल्के स्तर की होती है. जो है वह प्रस्तुत ग़ज़ल है. बस.
शुभम्
डॉ साहब नमस्कार
खुली चर्चा का हमेशा तहे दिल से स्वागत है मगर आप कहन को सुधारने के लिए दी इस्लाह में बहर के मुतालिक एब कर जाते हैं और कहन भी नहीं सुधार पाते .. "
इससे शेर सुधरा या और खराब हुआ ?
// गद्यात्मक रूप वाली ग़ज़लें कामयाब होती हैं। //
किस कामयाबी की बात कर रहे हैं डॉ साहब अदबी हलकों में ये बात किसी से छुपी नहीं है कि गा कर कलाम पढ़ने वाले ९० प्रतिशत शुअरा मुताअ शाइर होते हैं ऐसे लोगों को मैं अपनी और से सौ सौ लानतें भेजता हूँ
आप किसी भी ज़बान के किसी भी समय के बड़े शुअरा को देख लीजिए वहाँ ५ प्रतिशत भी तरन्नुम के शाइर नहीं मिलेंगे
// वैसे भी जौन एलिया को शायरी में बहुत बड़ा मुकाम हासिल नहीं है //
मैं आपकी इस बात पर कड़ा विरोध दर्ज करता हूँ ...
जान एलिया को समझने के लिए शाइरी खून में होनी चाहिए ...
जान एलिया को शाइरों का शाइर कहने वाले लोग ऐरे गैरे नहीं थे जिनको हम अपनी बतकूचन से ख़ारिज कर दें
खेद के साथ कहना पड़ता है कि इस चर्चा में आपने अपनी बातों से मुझे बड़ा निराश किया
अमन साहब तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ ...
विनस भाई आपकी ग़ज़ल उम्दा है मुझे पसंद आई
ठोकरें खाऊंगा ... बहुत अच्छा !
और क्या क्या लिखा है किस्मत में ?
कही कही तो मानो आम आदमी का दिल खोल कर रख दिया है
आभार
वीनस भाई
डॉ ललित जी
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि यह ग़ज़ल जाँन एलिया साहब को याद करते हुए उनकी एक जमीन पर उनके लहजे को निभाये हुए कहने की कोशिश की है इसलिए बहर को बदलने का सवाल ही पैदा नहीं होता ...
मेरे ख्याल से जान एलिया की शाइरी भी बहुत फसीह नहीं थी मगर मजरूह सुल्तानपुरी उसे शाइरों का शाइर कहते थे
उनका दो हंगामाखेज शेर पेश करता हूँ आप फसाहत खोजिये
बोलते क्यों नहीं मेरे हक् में
आबले पड़ गये जुबान में क्या
ये मुझे चैन क्यों नहीं पड़ता
एक ही शख्स था जहां में क्या
वैसे भी बहर बदलने से ग़ज़ल फसीह नहीं हो सकती है इसका इल्म आपको भी होगा ...
मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि आपने जो प्रयास किया है उसमें तमाम दिक्कतें पेश आ रही हैं
21 2 1222 1222 1222 .......
चुप ही यहाँ बैठे रहें हम बस मुरव्वत में
मेरी जान भी जायेगी ऐसी ही शराफत में
बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि आपने जो मात्रा पेश की है उसमें और आपके पेश किये शेर में मैं रब्त काइम नहीं कर पा रहा हूँ न ही यह समझ पा रहा हूँ कि आपकी इस इस्लाह से मतला फसीह कैसे हो गया ?
बहर ए खफीफ मे कहे बहरो वज्न में दुरुस्त अशआर में आप रवानी नहीं खोजा जाए इस पर भी मैं हैरतज़दा हूँ
आदरणीय योगराज साहब
सबसे पहले आपका शुक्रिया अदा करता हूँ कि ग़ज़ल पर अपने नज़रे करम फ़रमाया
बहुत बहुत शुक्रिया
आपने जिन बिंदुओं पर बार रखी है उनमें से मुख्य तो तनाफुर है मगर मैं तनाफुर को नज़रअंदाज़ करके चल रहा हूँ .. आगे शायद तानाफुर को कुछ निभा सकूं अभी मेरी समझ में इसे निभा पाना मेरे लिए कठिन हो रहा है,मेरी पिछली लगभग सभी ग़ज़लों कि किसी न किसी शेर में आपको तनाफुर मिल जाएगा
क्यों पड़े हैं हम उनकी आदत में... इसमें ज़बान के हवाले से नए लहजे में ख्याल रखा था शायद आपको पसंद नहीं आया, इस शेर पर और काम करूँगा
बेहया हैं, सो साँसें लेते हैं
मर ही जाते तुम ऐसी सूरत में..........// हम साँस लेते हैं तुम मार् जाते // मेरे ख्याल से शुतुरगुरबा नहीं बन रहा है आपसे नज़ारे सानी की गुज़ारिश है और किसी हवाले से इंगित हैं तो आदेश करें ...
एक बार फिर से आपका शुक्रगुज़ार हूँ ... नज़रे करम बनाए रखें
सानी साहब आपकी नवाजिशों के लिए मशकूर हूँ
बृजेश नीरज जी आपका ह्रदय से आभार ....
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