एक प्रयास
(बहर- 2122 2122 2122)
लक्ष्य क्या जो खोजते हम दौड़ते हैं।
है कहाँ ये आज तक ना जानते हैं।।
ढूंढ साधन,साधने को लक्ष्य सोंचा,
ना सधा ये,सब 'स्व' को ही रौंदते हैं।
जग छलावे में भटकते इस तरह हम,
शांति के हित शांति खोते भासते हैं ।
*समर्पण हो पूर्ण,या लब सीं लिए हों,
क्या शिला भी प्रेम को पा सीलते हैं?
ना पहुंचू पर मुझे हो भान तो वह,
तब बढेंगे, आज तो बस खोजते हैं ।।
*संशोधित
-विन्दु
(मौलिक,अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया वंदना जी:
मैं गज़लों का रसास्वादन करता हूँ, पर स्वयं गज़ल नहीं लिखता,
अत: इस रचना की शिल्प विधि का टीकाकार नहीं बनता।
हाँ, आपकी रचनाओं में भाव, सच्चाई/यथार्थ, और संदेश पाने की
मुझको आदत हो गई है, और वह इस रचना में भी अच्छे मिले हैं,
और इसके लिए आपको बधाई देता हूँ। लिखते रहिए,
प्रयास का फल उतकृष्ट होता ही जाएगा, आदरणीया।
सादर,
विजय निकोर
सुन्दर प्रयास है
रचना को और पका लीजिए तो ग़ज़ल कहने पर किसी को एतराज़ नहीं होगा ....
आदरणीया वंदना जी मार्गदर्शन और सीखना सिखाना तो मेरे और आपके बीच के वार्तालाप का सदैव केन्द्र बिन्दु रहा है और रहेगा। मां शारदे आप पर यूं ही अपनी कृपा बनाए रखें।
सादर!
आदरणीया वंदनाजी , अच्छी सायास कही ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें !! हां एक बात , अपनी , शेष आप पर है , हमें लेखन में वही भाषा प्रयोग करनी चाहिए जो आम बोलचाल में प्रयोग करते हैं … नहीं तो …. वही अटकाव भटकाव का अंदेशा रहता है !! बहुत शुभकामनायें !!
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