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परिवर्तन है सत्य सदा
अपनाना इसको सीखें।
इसमें ही है नव-जीवन
नूतन-पथ बुनना सीखें।।

नूतनता,खुशियां जनती
उत्सव नित्य मनाएं हम।
खुश रहकर कुसमय काटें
समय से न कट जाएं हम।
जीवन रंग सजाने को,
नयन-अश्रु पीना सीखें।।

शोक,हर्ष,उत्थान-पतन
हमें तपा कुन्दन करते ।
अगम सिन्धु की झंझा में
कर्म सदा नौका बनते।
निष्कामी आराधक बन
जग-वन्दन करना सीखें।।

प्राण मात्र से प्रीति करें,
प्रेम-पात्र जो बनना है।
अब तो जग जा,ओ रे मन!
मग यदि सुगम बनाना है।
प्रीति सुमन की चाह अगर
जड़ सिंचित करना सीखें।।
-विन्दु
(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Vindu Babu on August 17, 2013 at 9:21am
आदरणीय सौरभ सर और आदरणीया प्राची जी आपकी बहुमूल्य टिप्पणी से रचना में 'सार्थकता' की मुहर लग गई।
आपके वाक्यांशों-
'ऊंची बात'
'कथ्य ने मन मोह लिया'
'बात ऊंची भी है तो सार्थक भी'
ने मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ाया है।
आपके कथन /सतत प्रयास करती रहे/ का मैं निरन्तर अनुसरण करने का प्रयास करती रहूंगी।
आपका बहुत आभार!
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 14, 2013 at 4:07pm

प्रिय वन्दना जी 

बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति है ...

शोक,हर्ष,उत्थान-पतन
हमें तपा कुन्दन करते ।
अगम सिन्धु की झंझा में
कर्म सदा नौका बनते।.................बड़ी बात 
निष्कामी आराधक बन.............वाह ..सुन्दर 
जग-वन्दन करना सीखें।।

इस बंद के कथ्य नें मन मोह लिया ...बहुत बहुत बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 14, 2013 at 2:30pm

शोक,हर्ष,उत्थान-पतन
हमें तपा कुन्दन करते ।
अगम सिन्धु की झंझा में
कर्म सदा नौका बनते।
निष्कामी आराधक बन
जग-वन्दन करना सीखें।

बात ऊँची भी है तो सार्थक भी..  सतत प्रयास करती चलें. 

शुभेच्छाएँ

Comment by Vindu Babu on August 13, 2013 at 5:21pm
आदरणीय जितेन्द्र जी आपके अन्त: को रचना ने स्पर्श किया ये जान बड़ा अच्छा लगा।
आपका बहुत आभार।
आदरणीय अरुण जी,आदरेया अन्नपूर्णा जी आपकी उदात्त टिप्पणी नें मेरा बहुत उत्साहवर्धन किया है।
आप सभी का हृदय से आभार।
सादर
Comment by Vindu Babu on August 13, 2013 at 5:16pm
आदरणीय निकोर सर सादर नमस्ते!
आपका आशीर्वाद मिला लेखन-कर्म सार्थक हुआ। आपकी टिप्पणी ने रचना का महत्व बढ़ा दिया है। हृदयातल से आपका बहुऽत आभार!स्नेह बनाए रखें आदरणीय!
सादर
Comment by vijay nikore on August 12, 2013 at 6:55am

आदरणीया वंदना जी:

//प्राण मात्र से प्रीति करें,
प्रेम-पात्र जो बनना है।
अब तो जग जा,ओ रे मन!
मग यदि सुगम बनाना है।
प्रीति सुमन की चाह अगर
जड़ सिंचित करना सीखें।।//

जीवन के गूढ़ रहस्यों को
कितने सुन्दर तरीके से वर्णित किया है
आपने ।

बस, ऐसे ही और लिखती रहें।

 

आपको हार्दिक बधाई, आदरणीया।

सादर और सस्नेह,

विजय निकोर

Comment by annapurna bajpai on August 11, 2013 at 1:47pm

आदरणीया वंदना जी बहुत बढ़िया , इस संदेश परक रचना हेतु हार्दिक बधाई ।

Comment by अरुन 'अनन्त' on August 11, 2013 at 1:13pm

आदरणीया वंदना जी वाह इस शिक्षाप्रद रचना एवं सुन्दर सन्देश देती हुई रचना हेतु ह्रदय से ढेरों बधाई स्वीकारें.

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 11, 2013 at 12:45pm

प्राण मात्र से प्रीति करें,
प्रेम-पात्र जो बनना है।
अब तो जग जा,ओ रे मन!
मग यदि सुगम बनाना है।
प्रीति सुमन की चाह अगर
जड़ सिंचित करना सीखें..............अंतर को झंझोडति पंक्ति

सुसंदेश देती हुयी रचना पर, हार्दिक बधाई आदरणीया वंदना जी

Comment by Vindu Babu on August 11, 2013 at 10:46am
यह मनोबल बढ़ाने वाली रचना तो आप जैसे आत्मीय सुधीजनों से प्राप्त मनोबल का परिणाम है आदरणीय विजयमिश्र जी।
आपकी सारगर्भित प्रतिक्रिया मेरे लिए बहुत उत्साहवर्धक है,निवेदन है स्नेह बनाए रखें।
सादर

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