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आओ लोकतंत्र- लोकतंत्र खेलें (लघुकथा)

अचानक मेरे पांव ठिठक गये। कुछ बच्चे कह रहे थे, आओ लोकतंत्र लोकतंत्र खेलें। मैंने सोंचा- कई खेल सुना है, खेला भी है, मसलन- गिल्ली-डंडा, छुपा- छुपी, कबड्डी, खो- खो आदि। ये नया खेल कौन सा है- लोकतंत्र- लोकतंत्र? मैंने देखा- एक बच्चा जमीन पे लेटा हुआ है, दूसरा बच्चा उसके पास बैठा है। वह रोते हुए कह रहा है- माई- बाप सहाय लागो, मेरा बच्चा भूख से मर रहा है। मैं भी भूख से व्याकुल हूँ। आज मुझे कोई काम नहीं मिला। सहाय लागो माई- बाप सहाय लागो।
एक बच्चा आता है और उसके आगे 24 रूपये फेंक कर कहता है- ले जा भूख मिटा ले अपनी।
जो लड़का रो रहा है- वह कहता है, माई- बाप इस 24 रुपल्ली में क्या मिलेगा?
तब तक एक दूसरा लड़का आता है। उसने वह 24 रूपया उठा लिया और उसमें से 10 रूपये देते हुए कहा- जा दिल्ली चला जा वहाँ 10 रूपये में दोनों जन का पेट आराम से भर जायेगा।
रोने वाला बच्चा कहता है- माई- बाप गरीबी का मजाक मत बनाओ? हम पर तरस खाओ।
तब तक एक तीसरा बच्चा आता है। वह 10 रूपये उठा कर दूसरे लड़के की जेब में रखते हुए कहता है- मूर्ख आदमी! पेट तो 1 रूपये में भर जाता है, फिर 10 रूपये देने की क्या जरूरत है?
वह रोने वाले बच्चे की तरफ मुड़कर 2 रूपये का सिक्का फेंकता है और कहता है- चलते हैं हमें अभी और भी गरीबों का भला करना है।
तब तक चौथा बच्चा आता है, वह 2 रूपये का सिक्का उठाकर देने वाले बच्चे को वापस करते हुए कहता है- तुम मैंगों इंडियन फूल का फूल रहेगा। गरीबी- वरीबी कुछ नहीं होती यह केवल मानसिक बीमारी है। इसका इलाज नहीं हो सकता।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Abhinav Arun on August 14, 2013 at 7:04pm

गरीब और गरीबी का मज़ाक बनाने वाली वर्तमान राजनीति के चेहरे पर करारा आक्षेप करती रचना ... आँखे खोलती ... उद्वेलित करती ..समय की  मांग हैं ऐसी रचनाएँ ..जो बताती है कलमकारों के सिपाहियों में साहस है माद्दा है आइना दिखाने का ...साधुवाद ..स्वाधीनता दिवस के परिप्रेक्ष्य में इस रचना को प्रस्तुत करने के लिए !!

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:56pm
आदरणीया प्राची दीदी! आपका आशीर्वाद पाकर अनुज कृतकृत्य है। आपका हृदय से आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:54pm
आदरणीया प्राची दीदी! आपका आशीर्वाद पाकर अनुज कृतकृत्य है। आपका हृदय से आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:54pm
आदरणीया प्राची दीदी! आपका आशीर्वाद पाकर अनुज कृतकृत्य है। आपका हृदय से आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:50pm
आदरणीय सौरभ सर! आपने रचना पर अपना बहुमूल्य समय दिया जिसके लिये मैं हृदय से आभारी हूँ। आपका आशीर्वाद मुझ नवांकुर के लिये अमृत- वृष्टि तुल्य है, लेकिन इस बार कुछ?
वाह किये और निकल लिये।
सादर।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:47pm
आदरणीय शुभ्रांशु जी! रचना पर आपने अपना मूल्यवान समय दिया जिसके लिये मैं आपका हृदय से आभारी हूँ।
आपकी बात वास्तव में बहु अर्थवान होती है। तो मैं ठहरा नासमझ। आपने कहा कि //यह लोकतंत्र से मजाक है//
आदरणीय क्या रचना लोकतंत्र से मजाक करती है, या इसमें जो चित्रित किया गया वह लोकतंत्र का मजाक है।
आपने सच कहा कि यह लोकतंत्र की कहानी से ज्यादा गरीब की भूख है, लेकिन आदरणीय इसी लोकतंत्र में गरीब की भूख का राजनीतिकरण किया जा रहा है, सो मैंने इस भूख को लोकतंत्र में ही निहित माना है। अगर ये सही न हो तो संशोधन....... ?
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:39pm
आदरणीया अन्नपूर्णा बाजपेयी जी! आपने रचना को सराहा, जिसके लिये मैं आपका आभारी हूँ।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:38pm
आदरणीय विजय मिश्र जी! रचना की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:37pm
प्रिय भाई केवल प्रसाद जी! रचना की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 14, 2013 at 6:33pm
आदरणीय राज जी! सर्वप्रथम- रचना पर आपने अपना अमूल्य समय दिया जिसके लिये मैं आपका हृदय- तल से आभारी हूँ।
जब मैंने यह रचना लिखा तो मुझे भी लगा कि कहीं यह लघु नाटक तो नहीं बन रहा है। अब आपने इसे लघु नाटक कहा है तो क्या यह वास्तव में लघुनाटक है?
सादर।

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