मेरा मन
ढूंढे क्या ....
सुख आनंद
ये तो है छलावा
मन का भ्रम
प्रसन्नता
ये तो आनी जानी
है क्षणिक
संतुष्टि
ये है मोहताज़
अभिलाषाओं की
धैर्य स्थिरता
है ये स्वयं की सोच
मस्तिष्क उपज
शांति
पर किन मूल्यों पर
अंतःकरण या बाह्य:करण
पूर्णता का अहसास
ये तो है एक खामोशी
महसूस करने की
फिर भी
ढूंढता क्या
मन मेरा
विजयाश्री
१४.०९.२०१३
(मौलिक और अप्रकाशित )
Comment
sundar bhavon se paripurn rachna ke liye hardik badhai swikaren . Adarniya Vjayshri ji .
आदरणीया विजया श्री जी उचित प्रश्न किया है आपने मन से कि आखिर मन चाहता क्या है, मन उम्र भर भटकता रहता है और मन को जितना कुछ भी मिल जाए बिडम्बना तो यह है कि मन की ईच्छापूर्ति कभी होती ही नहीं. खैर इस सुन्दर रचना पर बधाई स्वीकारें.
आदरणीय विजया श्री जी , जीवन दर्शन लिये आपकी रचना और रच्ना के माध्यम से खडे किये गये प्रश्न बहुत अच्छे है, सटीक है !! रचना के लिये बधाई !!!!!!
पर मेरे विचार से मन जो भी खोजेगा को अंत मे कचरा ही साबित होगा !! अ- मन होने का प्रयास ही सार्थक है !!
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