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जैसा की पहले ही अवगत कराया जा चुका है की "बह्र पहचानिए" कोई पहेली नहीं है, यह तो एक चर्चा है, इल्मे अरूज और आम आदमी की दुनिया में बरसों से चली आ रही खाई को पाटने की, इसी के तहत हमने पिछली बार आप सबको एक गीत सुनवाया था और बह्र पहचानने को कहा था| और बड़ी ख़ुशी की बात है की जितने भी जवाब आये, सारे ही सही हैं| तो चलिए यत्र तत्र से एकत्र की गई कुछ जानकारियों को आपसे साझा करते हैं।
बहरे हज़ज़
हज़ज़ एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ सुरीली आवाज होता है और शायद इसीलिए इस बह्र को हज़ज़ कहते है कि इसे बड़ी ही सुरीली आवाज में गाया जा सकता है| यह एक मुफरद बह्र है अर्थात ऐसी बह्र है जिसमे एक ही रुक्न का प्रयोग होता है, अगर एक से अधिक रुक्नों का प्रयोग हो तो ऐसी बहरों को मुरक्कब बहरें कहते हैं| बहरे हज़ज़ में प्रयोग होने वाला रुक्न है मुफाईलुन जिसकी मात्राएँ हैं 1222 और एक शेर में आठ बार और मिसरे में चार बार आने के कारण हम हज़ज़ के आगे मुसम्मन लगाते हैं, चूँकि मुफाईलुन बिना बदलाव के ज्यों का त्यों आ रहा है इसलिए हम आगे सालिम लगाते हैं| इस प्रकार से बह्र का नाम हो गया बहरे हज़ज़ मुसम्मन सालिम| यह बह्र शायरों की सबसे पसंदीदा बहरों में से एक है और मंच पर तालियों को इकठ्ठा करने में माहिर है यह हमारे अंतिम उदहारण से पता चल जायेगा|
अब मात्राओं की गणना
मुफाईलुन, मुफाईलुन, मुफाईलुन, मुफाईलुन
१२२२, १२२२, १२२२, १२२२
इसे यूं भी गुनगुनाया जा सकता है
ल लालाला, ल लालाला, ल लालाला, ल लालाला
आइये अब तख्तीय करके देखते हैं कि किस शब्द का क्या वज्न लिया गया है
जहाँ पर हर्फ़ गिराकर लिए गए है वो लाल रंग से दिखाए गए है| यहाँ आप देखेंगे की "किसी पत्थर की मूरत" में "की" को १ गिनने में समस्या आ रही होगी तो इसके लिए उस्तादों का कहना है की कभी भी बह्र को पहचानने के लिए केवल एक मिसरा ही नही लेना चाहिए बल्कि ग़ज़ल के अन्य मिसरों को भी तकतीई करके जरूर देखना चाहिए|
और अब हमरा अंतिम उदाहरण, जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है
उस्तादों से और भी मार्गदर्शन की आवश्यकता है
-राणा प्रताप सिह
-वीनस केशरी
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