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इन अकेली वादियों में चले आये

इन अकेली वादियों में चले आये

(मधु गीति सं. १७१७, दि. १० मार्च, २०११)

 

इन अकेली वादियों में चले आये, भरा सुर आवादियों का छोड़ आये;

गान तुम निस्तब्धता का सुन हो पाये, तान नीरवता की तुम खोये सिहाये.

 

श्वेत हिम से ढकी वादी मुस्कराये, घाटियों में छिपी लीलाएं सुहायें;

सौम्य सरिता गुप्त हृद धारा बहाये, पक्षियों के कलरवों से रव को भाये.

दृवित द्रुम की सादगी से हो प्रफुल्लित, घास की जिंदादिली से हो तरंगित;

शून्य के नीले हृदय से हो प्रदीप्तित, बादलों के बदलते तेवर से हर्षित.

 

वादियों की अछूयी सांसों को छूकर, साधना रत शुष्क पुष्पों को परश कर;

राग उनके गहन हृदयों का हृदय भर, तान वायु की तरंगों की सुधाकर.

सृष्टि को दे सुर विहंगम चले आये, किये हृदयंगम प्रकृति का राग गाये;

ले तरन्नुम में ‘मधु’ को उर लगाये, वादियों के गान आवादी सुनाये.

 

रचयिता : गोपाल बघेल ‘मधु’

टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा.

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Comment by Sanjay Rajendraprasad Yadav on March 30, 2011 at 10:27am

 

गोपाल जी नमस्कार
         बहुत खूब ,  
" इन अकेली वादियों में चले आये, भरा सुर आवादियों का छोड़ आये;
Comment by Deepak Sharma Kuluvi on March 30, 2011 at 9:58am
पढ़कर हम अपनीं कुल्लू की वादियों में खो गए.....सुन्दर भाव
दीपक 

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