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दुल्हन की दास्ताँ

 जो कल उन्मुक्त बेखौफ़ चलती थी

आज अकेले खामोश बैठी है

कल तक जिसका अलग अस्तित्व था

अब दुसरो से पहचान ही उसका अस्तित्व होगा

कल तक जो हर जिम्मेदारी से बचती थी

मदमस्त उल्लासित हो चहकती थी

अब दूसरो की जिम्मेदारी संभालेगी

अपनी हँसी लुप्त कर दूसरो को सँवारेगी

दुल्हन के सुर्ख लाल जोड़े में

एक बंदनी की भाँति लग रही

फ़ेरो की पवित्र अग्नि में

उसकी ख्वाहिशे सुलग रहीं          

सर पर जड़ित स्वर्ण टीका

उसके विषाद मे लग रहा फ़ीका

मस्तक पर सुशोभित चमकती बिंदी

उभरती लकीरों में गिरती संभलती

नाक में चमचमाती नथनी

बेधती उसके मासूम जज्बात

गुलाबो से लाल होंठ

सुख रहे अनजान भय से

गले मे इठलाते आभूषण

जकड़ते जीवन उसका हर क्षण

हाथों में रंगबिरंगी चूड़िया

सुहागिन की मनचाही हथकड़िया

कमर मे चमचमाती करधनी

अश्रुमिश्रित हँसी लिये बैठी बंधनी

पैरो मे छनकती पायल

दुल्हन पर सब कायल

पर उसके मन की न कोई टोह पाया

सामजिक बंधनो मे सबने मोह पाया

छोड़ रही वो बाबुल का आँगन

बिता जहाँ हर फ़ागुन हर सावन

अब घुघट के आड़े ढकी रहेगी

हर चाल हर आह हर खुशी हर हँसी

एक गांठ ने बांध दी

अनेको बंधनो की डोर

हलकी सिसकिया कौन सुनेगा

हर तरफ़ हर्षो उल्लास का शोर

बाबुल कर चले कन्यादान

बेटी को पराया धन मान

मंगल सूत्र भी बंध गया

चारो तरफ़ हो रहा मंगल गान

कल जो बस एक लड़की थी

आज बहु है, पत्नी है भाभी है

अधिकार उसे अब कुछ नही

बस जिम्मेदारियो कि चाभी है

इतने कष्ट सब रग दे चले

एक दिन ये भी साथ छोड़ जायेंगे

सफ़ेद भावशून्य असहाय उसे

तिरस्क्र्त बेइज्जत और कर जायेंगे।

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 4, 2011 at 8:11pm
मयंक जी, अच्छी रचना है किन्तु नकरात्मक शैली मे लिखी गई है यह रचना, बंधन में भी एक अजीब खुशी है जिससे बंधने की इच्छा होती है |

कृपया ध्यान दे...

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