For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

पाखण्डी समाज (कहानी)

सांझ का समय था. किसनलाल अपने बेलों को चारा खिलाने में मग्न था. मंद-मंद पूरबा चल रही थी. कुछ पल के लिए वह ठिठक गया और कमर सीधी करते हुए नथुना फूलाकर इधर-उधर सर घुमाते हुए कुछ पयान करने लगा. जोर-जोर से वह सांसें भर रहा था, सीआईडी कुत्ते की तरह जैसे किसी चीज का सुराग खोज रहे हो. हाँ, वह सुराग ही खोज रहा था. बासमती चावल की खीर की सुगंध का सुराग. खीर की सुगंध आ कहां से रही थी इसका अंदाजा लगाने का वह भरसक प्रयास कर रहा था. बसमतिया खीर का वह बड़ा रसिक था. कान के साथ-साथ उसकी नाक भी खूब तेज़ थी. सही पयान आखिरकार उसने कर ही लिया. यह खुशबू उसके घर की रसोई से ही आ रही थी. वह बड़ा गदगद हुआ. उससे रहा नहीं गया. ज़ोर से हाँक लगाई – “बबुआ की माई ! का बन रहा है ? आज तो पूरा गमगमा रहा है.”

बबुआ की मां रसोई घर से ही बोली – “सोची, बहुत दिनों से कुछ भल-मंद नहीं हुआ है इसीलिए आज बसमतिया खीर बना दे रही हूं. खीर खाए भी बहुत दिन गुज़र गए हैं.”

“आज लगता है सूरज पच्छिम से उगा था का जो तुम्हें बसमतिया खीर की याद अचानक आई ?” - किसनलाल ने कुछ छेड़ने के अंदाज में व्यंग्य तीर चलाया.

“हूंह ! पेटमधवा कहीं के. कितनों खिलाओ सबूर नहीं.” - बबुआ की मां तुनक कर मुंह टेढ़ा करते हुए बोली. 

“काहे बबुआ की मां, एतना जल्दी रुठ काहे जाती हैं ? हम तो यूं ही मजाक कर रहे थे. पर, आप तो सीधे दिल पे लगा लेती हैं.”

“अब हमारी मजाक करने की उमर रही का ? आप तो जितना बेसार हो रहे हैं उतना ही ज्यादा रंगीले होते जा रहे हैं. जरा उमर का भी लिहाज रखिए.”  

दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला जारी था. अंधेरा अपने आगोश में सबकुछ समेटता जा रहा था. झींगुरों का स्वर तीव्र हो गया. मौसम अपना रूख बदल रहा था. आसमान में इग्गी-दुग्गी बादलों के टुकड़े भटकते हुए चले आए थे. दो-चार तारे भी टिमटिमाने के लिए उतावले हो रहे थे. गांव के बच्चे भी खेलकूद कर वापस अपने- अपने घरों में जा रहे थे. शोरगूल कम हो गया. शांति का डेरा पड़ने लगा था. किसनलाल अपने बैलों को खिला पिलाकर गोहाल में बांध आए.

रसोई से बबुआ की मां बोली – “सुने ! बिहान बबुआ का फोन आया था. बोल रहा था अपने साथियों के संग बंबई जाएगा. मैंने साफ मना कर दिया. कह दिया घर आकर हमलोगों से एक बार मिल लेवे. अब कितना पढ़ेगा लिखेगा ? ईए बीए पास हो गया. अब सयान भी तो हो गया है. बियाह शादी कर अब अपना घर गिरस्ती संभाले. साल भर की खोराक तो अपनी खेती से आ ही जाती है. कहां देश-दुनिया पेट खातिर भटकता फिरेगा ? ठीक कहती हूं ना ? आप क्या कहते हो ?”

“हां....हां.....काहे नहीं. अब हमलोगों का भी तो हाड़-मांस कमज़ोर होने लगा है. वही तो हमारे लिए एक सहारा है. घर आते ही हम उसे समझा देंगे. अब बंबई-उंबई कहीं ना जाएगा. एक बढ़िया खानदानी लड़की देख उसका बियाह करा देंगे. अपना दायित्व निपट जाएगा.” – पत्नी की बातों में रजामंदी जताते हुए किसनलाल ने अपना निर्णय सुना दिया.

किसनलाल एक साधारण किसान था. आठ दस बीघे का मालिक, एक छोटा-सा सदानीर पोखरा. घर-वार भी कमज़ोर नहीं था. लकडी का बना मजबूत दो चरचल्ला मकान था. दो हर धुर था और दो दुधारु गायें जिनकी सेवा में वह रात दिन लगा रहता था. अगर आज के संदर्भ में देखा जाए तो उन पशुओं से किसनलाल को जितना लाभ होता था उससे कहीं ज्यादा उसे हानि उठानी पड़ती थी. बैलों से तो बस खेती के समय ही काम लिया जाता था और सालभर बैठे बिठाए खिलाना पिलाना पड़ता था. साथ ही, बच्चों की तरह देखरेख भी करना पड़ता था. गाय से सालभर में जितना दूध मिलता उससे कहीं ज्यादा उसके चारे में खर्च हो जाता था. फिर एक साल तो मुफ़्त में बैठे बिठाए खिलाना पड़ता था. ऐसा इकोनॉमिकल कैल्कुलेशन उसने कभी किया ही नहीं था या फिर वह करना ही नहीं चाहता था. निःस्वार्थ भाव से पूरे आनंद के साथ वह गोसेवा में लगा रहता था. लेकिन, अब दौर कितना बदल गया है. लोग पढ़-लिख ज्यादा गए हैं, पर उनका दिल छोटा होता गया. और आज का आलम तो ये है कि लोग अपने माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा में भी इकोनॉमिकल कैलकुलेशन करने लगे हैं. वाह ! डेवलॉपमेंट की कैसी पश्चिमी बयार चली, जिसने नैतिकता की मूल को ही झकझोर डाली. पशुओं की सेवा तो दूर की बात लोग अपने माता-पिता की सेवा से भी कतराने लगे हैं.     

बबुआ किसनलाल की एकमात्र संतान था, जो शहर में रहकर पढ़ाई कर रहा था. किसनलाल की पत्नी रत्नावली ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी पर, थी सांसारिक सुझबूझ की मालकिन. जिन मामलों में किसनलाल भी पछाड खा जाता वह उसे बड़ी चतुराई से सलटा देती थी. उसी की इच्छा से बबुआ को पढ़ने-लिखने शहर भेजा गया था. उस गांव में लोग पढ़े-लिखे कम ही थे, पर थे बड़े धूर्त किस्म के. कोई सुख-चैन से जीए तो बाकि उसे पचा नहीं पाते थे. उसके खिलाफ तिकड़मबाजी होने लगती. सुख चैन छिनने की चालबाजी शुरु हो जाती थी. किसनलाल की पत्नी बड़ी अग्रसोची थी. भावी आगत-विगत सब वह भांप गई थी इसीलिए बबुआ को होशियार बनने शहर भेज दिया था.     

बबुआ पूरे दस साल बाद गांव लौट रहा था. गांव की धरती पर पांव रखते ही उसका रोम-रोम गदगद होने लगा. चारों ओर हरियाली थी. शहर की भागमभाग भरी जिन्दगी से दूर गांव के शांतिमय वातावतण उसे बहुत लुभावना लग रहा था. किंतु, गांव की बिनबदली दशा देखकर उसे बड़ा आश्चर्य भी हुआ. वही पूरानी सड़क, तालाब, खेत-खलिहान, लोगों की चाल-ढ़ाल व रहन-सहन सबकुछ वैसे ही था जैसे दस साल पहले था. वहां इग्गी-दुग्गी नई झोपड़िया सिर्फ़ बनी थी.  

किंतु, समय के साथ वहां की कल्चर में एक अनौखा बदलाव जरूर आ गया था. दस साल पहले उस गांव में एक विशाल इमली का पेड़ था. उस पेड़ की छांव में गांव के रसिक लोग दिन की धूप भरी दोपहरी में झूमर लगाया करते थे और मांदर के ताल पर थिरक-थिरक कर अपना मनोरंजन किया करते थे. वह पेड़ वहां आज भी था किंतु, अब ना झूमर के रसिक लोग उस गांव में रहे और ना ही उनकी झूमर मंडली. मांदर की धुन तो मानो उनके साथ ही स्वर्ग सिधार गयी. अब उन झूमर के रसिक लोगों की जगह गांव के अनपढुवे छोकरों ने ले ली थी. ऑल्ड जेनेरेशन झूमर के रसिक हुआ करते थे और ये न्यू जेनेरेशन जुआ के रसिक हो गए थे. वे लोग सबका मनोरंजन किया करते थे और ये लोग सबका जीना हराम कर रहे थे. पहले उनके मांदर की कर्णप्रिय धुन सुनकर सबका मन आनन्द से झूम उठता था और अब इन जुआरियों के मुंह से निकली गाली-गलौजी भरे शब्द कर्णभेदी बनकर सबके दिल को क्षत-विक्षत कर जाते थे.  

घर पहुंचते ही उसने मां बाबूजी के चरण छूए. मां ने उसकी आरती उतारी और फिर उसे अंदर ले जाकर चौकी पर बिठाया. बेटा को करीब देख मां के शिथिल देह में भी गजब की स्फूर्ति आ गई थी. मशीन-सी वह दौड़ती फिरती बबुआ के लिए भोजन की तैयारी में लग गई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या बनाएं. बबुआ की मनपसंद चीज तो कभी मकई की रोटी और घर का बना अचार हुआ करता किंतु, अब इतने दिनों से शहर में रह रहा है तो सबकुछ बदल गया होगा. पूराने जमाने का खाना भला अब उसे क्या सुहाएगा ? वह मन-ही-मन सोच रही थी किंतु, एक बार बबुआ से ही पूछ लेना सही लगा.

उसने पूछ ही लिया – “बबुआ ! तू क्या खाना पसन्द करेगा रे ?”

“मां मकई की रोटी बना दो ना. खाने के लिए मन तरस गया है. शहरों में ये सब कहां मिलती है.” – बबुआ ने अपनी इच्छा बता दी.

“वाह बबुआ ! तू तो थोड़ा भी ना बदला रे. मुझे लगा तू बाजारू सामान खाते-खाते अब उसे ही पसन्द करने लगा होगा, पर तू तो अब भी वैसा ही है.”

बबुआ की मां झटपट बेटा का मनपसन्द व्यंजन बना कर उसे अपने हाथों से खिलाने लगी. अपने जातीय स्वभाव से भला वह बाज कैसे आती. बोली – “बबुआ तू कितना सूख गया है रे ! समय पर खाता-पीता नहीं था क्या ?”

मां जबतक बेटे को अपने हाथों से खिला-पिला ना ले उसे बेटे के स्वास्थ की शिकायत बनी रहती है चाहे बेटा भीमसेन ही क्यों ना बन गया हो. कुछ देर तक बबुआ मां की ममतामयी गंगा में गोता लगाता रहा. फिर पिताजी से मेल-जोल कर वह गांव के दोस्तों के साथ भेंट-मुलाकात करने निकल गया.

घर से बाहर निकलते ही उसे आभास होने लगा था कि वह काफी सयान हो गया है. गांव की नई-नवेली स्त्रियां उसे देखते ही घुंघट मुँह तक सरका लेती थी. गांव के जोड़ी-पाड़ी सभी साथी अपनी-अपनी बहुरिये ले आए थे. भाभियां मज़ाक ही मजाक में उसपर व्यंग्य तीर चलाने लगी थीं और ताने मारने लगी थीं. उनलोगों से निपटकर वह मैदान की ओर चला गया जहां गांव के साथी सब फुटबॉल खेल रहे थे. वह भी खेल में शामिल हो गया. 

शाम को जब वह घर लौटा तो दोस्तों के साथ हुए उछल-कूद में वह थककर चूर हो गया था. सीधे बिस्तर पर जाकर वह निढाल हो गया. विचारों के सागर में गोता लगाते-लगाते कब उनकी आंखें लग गई पता ही न चला.

उसकी मां भोजन की थाल लेकर आई और सिरहन के पास बैठकर बेटे के सर पर हाथ फेरने लगी. मां के हाथों का स्पर्श पाते ही बबुआ की आंखें फिट गई. मां ने उसके लिए आसन लगाया और वह भोजन करने बैठ गया. मां सामने बैठकर पंखा डुलाने लगी. मां को विचारमग्न देख उससे रहा नहीं गया. उसने पूछ ही लिया – “मां ! क्या सोच रही हो ? कोई परेशानी है क्या ?”

बबुआ की बात सुनकर उसकी मां अचकचा गई थी. मुखमंडल पर हल्की-सी मुस्कान लाकर वह बोली – “नहीं.... नहीं, कुछ नहीं बबुआ. कोई परेशानी की बात नहीं है. तेरे जैसा लाल जिसके पास हो उसे परेशानी किस बात की रे ? ईश्वर की किरपा से सबकुछ अच्छा है बबुआ. तुझे खाने में और कुछ चाहिए क्या ?

“नहीं..नहीं मां और कुछ नहीं चाहिए. पेट एकदम भर गया.”

किंतु, बबुआ को लगा कि मां उससे कुछ छिपा रही है. कुछ तो बात जरूर है क्य़ोंकि, मां कुछ चिंतित भी लग रही थी. उसने कुरेदते हुए पूछा – “नहीं मां ! तुम मुझसे कुछ छिपा रही हो. बताओ ना आखिर बात क्या है ?”

“नहीं बाबू ऐसी कोई बात नहीं है रे. बस तुम्हारे ही बारे में सोच रही थी.” – बेटे को तसल्ली देते हुए मां बोली.

“मेरे बारे में .... मतलब ?” – जिज्ञासापूर्वक बबुआ ने पूछा.

मां जरा गंभीर होकर बोली – “हां बेटा ! हम सोच रहे थे कि तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई पूरी हो गई है और तू अब सयान भी हो गया है इसीलिए किसी अच्छे खानदान की लड़की देख तेरा बियाह करा दूं. बस हमारी जिम्मेदारी निपट जाएगी और हमलोग भी तो बूढ़े हो चले हैं. गांव में तुम्हारे जोड़ीदार जितने भी थे सबका बियाह हो गया है इसीलिए अब गांववाले भी हमें ताने मारने लगे हैं.”

अच्छा, तो ऐसी बात है. तुम चिंता ना करो माँ. मैं गांववालों को समझा दूंगा. अब कोई आपलोगों को ताने नहीं मारेगा.

नहीं बबुआ ताने मारे या ना मारे लेकिन, तू अभी शादी ना करेगा तो कब करेगा रे ? उमर धरी हुई रहती है क्या ? बाद में फिर तुम्हारे लायक हम लड़कियां कहाँ से ढूँढ़कर लाएंगे ? – बबुआ की मां ने अपनी परेशानी बयां कर दी.  

मां, अब जमाना बदल गया है. जबतक कमाने लायक नहीं हो जाऊँ, कौन पूछेगा मुझे ? कौन अपनी लड़की मेरे बियाहेगा ?

तू एक बार हाँ तो कर, लड़की वाले आधा पांव उठा के रखे हैं. रिश्तेवालों की लोर लग जाएगी. आखिर तुम्हारे जैसा होनहार लड़का आसनी से मिलता कहाँ हैं ? 

मां किस लड़की की किस्मत फूटी है जो मुझ जैसे बेरोजगार से शादी करेगी ?

तू बेरोजगार कहां है रे ? तू इतना पढ़ा-लिखा है, चाहो तो अफ़सर बन सकता है. और हमारे इतने बड़े घर-गिरस्ती भी तो है. कौन संभलेगा इसे ? सब तुम्हारा ही तो है. हमलोग अब कितने दिन जीएंगे ? फिर सारी बागडोर तो तुम्हारे हाथों में ही तो चली आएगी. ना कोई हिस्सेदारी है और ना ही करजदार. सब तुम्हारे लिए ही तो हमलोग समेट के रखे है. लोग तो सबकुछ लूटने को तैयार हैं किंतु, जबतक हमलोग जीएंगे एक तिनका भी इधर-उधर ना होने देंगे.

इसी तरह मां बोलती गई. गांव की रीति-नीति समझाती गई. वह अपनी जगह सही थी किंतु, बबुआ की सोच  कुछ अलग थी. वह गांव की घिसी-पीटी जिन्दगी से जरा ऊपर उठना चाहता था. उसकी आंखों में नित नए सपने पंख फैलाकर उड़ने लगे थे. मां के साथ ज्यादा तर्क-वितर्क करना उसे उचित नहीं लगा. सो जाने में ही अभी भलाई थी. इसीलिए नींद का बहाना कर मां को वहां से भेज दिया और खुद जाकर बिस्तर पर लेट गया.

बबुआ पढ़ा-लिखा था. उसकी सोच, उसके नज़रिए काफी परिपक्व हो गया था. आधुनिकता के दौर में कैरियर के मायने को भला वह कैसे झूठला सकता था. मन किंकर्तव्यविमूढ़ के दलदल में फंसता जा रहा था. मां को तो नींद का बहाना बनाकर भेज दिया किंतु, नींद उससे कोसों दूर थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. रातभर वह सो नहीं पाया. किसी अकल्पित भंवर में वह फंसता जा रहा था.

सुबह होते ही वह माता-पिता को समझाने में लग गया. जीवन में आनेवाली चुनौतियों से उन्हें अवगत कराया. दोनों ओर से काफी तर्क-वितर्क हुए. अंततः उनके माता-पिता को मानना पड़ा कि उनका बेटा सही है और उचित कदम उठा रहा है. अब समस्या थी गांववालों को समझाने की.

सुना था दीवारों के भी कान होते हैं किंतु, आज देख लिया. बबुआ बियाह नहीं करना चाहता है यह बात गांवभर में आग की तरह फैल गई. इसपर लोगों के मन में तरह-तरह के विचार उमड़ने लगे थे. कोई कहता किसी के प्यार में फंसा है, कोई कहता शहरिया छोकरी को बियाहेगा तो कोई कुछ और. समाज के अधज्ञानी ठेकेदारों को अपना दम्भ दिखाने का एक अच्छा मौका मिल गया था. कहते हैं कि अगर कोई नींद में है तो उसे जगाया जा सकता है किंतु, नींद में होने का अगर कोई नाटक करे तो भला उसे कौन जगा सकता है ? समाज के ठेकेदारों की भी दशा कुछ वैसी ही थी. गांव में समाज की एक बैठक बुलाई गई. उसमें किसनलाल को भी बुलाया गया. बैठक के कारण का जब उसे पता चला तो वह थरथर कांपने लगा था. बैठक के मध्य से गांव का प्रधान उठा और अपना व्यंग्य बाण बबुआ के ऊपर साधते हुए बोला – गाँववालों ! आज हमें किसनलाल के बेटे बबुआ पर फख्र है. उसने उच्च तालिम पाकर गाँव का मान बढाया है, गाँववालों का माथा ऊँचा किया है. किंतु हमें खेद है कि वह गांव की परम्परा, मान - मर्यादा एवं निष्ठा के साथ खिलवाड़ करने जा रहा है. हमारे गांव में उसके हमउम्र के तमाम लड़के अपना-अपना घर बसा चुके हैं. उन्हें कोई एतराज नहीं हुआ. किंतु, बबुआ को अपनी पढ़ाई पर कुछ ज्यादा ही गुमान चढ़ आया है. हमारी परम्परा उसे औछी लगने लगी है. हम उनकी नज़र में रूढीवादी हैं, पूराने ख्यालात के हैं, देश-दुनिया की हमें समझ नहीं है. हमारी मर्जी से बियाह करने में उसने एतराज जाहिर किया है. यदि उसके इस अनुचित कदम को रोका नहीं गया तो कल के छोकरे अपनी मनमानी करते फिरेंगे. हम बड़ों की पूछ नहीं रहेगी. क्यों गांववालों आपलोगों की क्या राय है ? उसके इस अनुचित कदम को रोका जाए कि नहीं ?

हां....हां.....रोका जाए. अपनी नजर के सामने जीते जी ऐसा अनर्थ हम नहीं होने देंगे. – सभा में बैठे प्रधान के चमचों ने अपने हाथ ऊपर उठाते हुए एक स्वर में कहा.

प्रधान के स्वभाव व नियत से बाकि लोग परिचित थे. उन्होनें कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

देखिए आपलोगों को कोई गलतफहमी हुई है. ना मुझे अपनी पढ़ाई पर कोई गुमान है और ना ही मैं आपलोगों को रूढ़ीवादी और पूराने ख्यालात का मानता हूं. आप सभी मुझसे बड़े हैं और मैं आप सभी का सम्मान करता हूं. आपको दुनियादारी के मामलों में भी मुझसे कहीं ज्यादा अनुभव है. किंतु, आप सभी से मेरा एक अनुरोध है कि अभी के दौर में कैरियर काफी मायने रखता है. इसीलिए मुझे कुछ वक्त चाहिए और फिर मैं आप सबकी रजामंदी से ही शादी करूंगा. – अत्यंत विनम्रतापूर्वक बबुआ ने अपना पक्ष रखा.

समाज के ठेकेदारों को यह मंजूर कहां था ? दोनों तरफ से बहस होने लगी. एक तरफ आज के ग्रेजुएट तो दूसरी ओर समाज के पाखण्डी लोग. दोनों पक्षों में दमदार बहस छिड़ी. घंटे भर बीत गये पर बहस थम नहीं रही थी. बहस करने वालों से कहीं ज्यादा सुनने वाले मशगूल थे. समाज के ठेकेदार समाज को अपनी आडम्बरी चादर में ढके रखना चाहता था किंतु, बबुआ उस आडम्बरी चादर को चिरकर समाज का परिष्कृत रूप सबके सामने लाने का प्रयास कर रहा था. आखिर होना वही था. ग्रेजुएट बबुआ के सामने समाज के ठेकेदार कमजोर पड़ने लगे. बबुआ के तीक्ष्ण तर्क के आगे वे हथियार डालने पर विवश होने लगे. किंतु, अपने दम्भपूर्ण चेहरा को वे नैतिकता की आग में झुलसाना नहीं चाहते थे.

अब कोई और चारा नहीं देखकर गांव के प्रधान उठे और अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ते हुए बोले – गाँववालों ! हमें खेद है कि आज हमारे सामने देवरूपी समाज की घोर निंदा हुई है और हम मूकदर्शक बने रहे. किंतु, इस निंदक के दुःसाहस को यूँ ही सह लेना हमारी मूर्खता होगी. अगर इसे कड़ी सबक नहीं सिखाया गया तो आये दिन लोग समाज को साग-बेंगन समझने लगेंगे. इसकी एहमियत धूल में मिल जाएगी. और ऐसा अनर्थ हम जीते जी नहीं होने देंगे. इसीलिए अपने बेटे की मूर्खता के कारण किसनलाल को सपरिवार समाज से बहिष्कृत किया जाता है. गांववालों के साथ उनका हुक्का पानी बंद.

प्रधान का निर्णय सुनते ही बबुआ की मां को मानो सांप सूंघ गई. प्रधान के पांव पकड़कर खूब गिड़गिड़ाई. पर सब व्यर्थ. अपने कड़े तेवर के साथ वह उठे और वहां से चल दिए. बाकि लोगों ने भी उनका अनुशरण किया और अपने-अपने घर चल दिए. बबुआ आसमान से छँटते बादल की ओर निहारते हुए सोच रहा था कि काश ! इस पाखण्डी समाज से आडम्बरी चादर हट जाता तो समाज कितना प्यारा लगता. बिल्कुल नीले आसमान की तरह सुन्दर एवं मनमोहक.

 

समाप्त

मौलिक व अप्रकाशित

@Govind Pandit

Views: 635

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service