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जो अभिमानवश अपना आकार बढ़ाना चाहता हैं , 
वो शायद भूल जाता है....
अहं का बढ़ता आकार ही तो अहंकार है ,
इसी वजह से द्रष्टा स्वयं को ,
दृश्य समझने की भूल करता हैं ,
जो यथार्थ में देखने वाला है , 
वह अपने को झरोखा समझ बैठता है ,
और वो अपना विस्तार प्रकृति के ,
निरंतर परिवर्तित होते हुए दृश्यों में करता है ,
इनके बनने पर स्वयं को बनता हुआ अनुभव करता हैं ,
और इनके मिटने पर स्वयं को मिटने का भय ,
ये पहेली कुछ उलझी हुई जरुर लगती है ,
परन्तु थोडा सा ध्यान दे तो समझ जायेंगे ,
ये सब अपने स्वयं के जीवन में ,
दैनिक घटना है और आती जाती हैं 

Views: 678

Comment

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Comment by Rash Bihari Ravi on April 14, 2011 at 7:01pm
bahut bahut dhanyabad puniya ji
Comment by nemichandpuniyachandan on April 14, 2011 at 6:56pm
Shree Ravi kumar Guru Ji, Yatharth hein.aabhaar.
Comment by Rash Bihari Ravi on April 14, 2011 at 5:56pm
dhanuabad ganesh ji

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 14, 2011 at 5:47pm
अहं का बढ़ता आकार ही तो अहंकार है ,
इसी वजह से द्रष्टा स्वयं को ,

दृश्य समझने की भूल करता हैं.....


वाह वाह गुरु जी , यह दार्शनिक अंदाज पहली बार दिखा है आपका , इस सुंदर और भाव प्रधान काव्य कृति पर बधाई स्वीकार कीजिये |

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