तन्हाइयों के ढेर में ख्वाहिश दबी रही ,
जैसे कि रेगिस्तान में बाकी नमी रही
रोते रहे कुछ लोग और जलते रहे कुछ घर ,
पर निंदकों की बस्तियों में रोशनी रही
हमको बिठा के चल दिया ऑटो जब उसको छोड़ ,
मैं देखता रहा, वो मुझे देखती रही
सूखे के बावजूद भी उस दूब को देखो ,
जाने वो इस अकाल में कैसे बची रही
शायद वो समझती थी मुझे आईना, तभी ,
खुद रूप की गहराईयों को आंकती रही
हल है ये लोकतंत्र सियासत के हाथ का ,
जनता ही इस जुएं से मगर जूझती रही
बचपन गया , दादी गई ,कोल्हू - कुएं गए ,
अब तो न रहट और न वो ढेकुली रही........
मौलिक व् अप्रकाशित @ जयप्रकाश मिश्रा
Comment
अच्छी कोशिश है प्रिय .कैरी आ न प्लीज
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