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पीढ़ियां !

सीढ़ियों पर चढ़ कर

पीढ़ियां !

थूंकती आसमान पर

धरा आर्द्रवश सहेज लेती

नदियों के कछार

दलदल - सदाबहार वन

आमंत्रित मेघ

बरसते नहीं.

पीढ़ियां !

असमय कड़क कर चमकतीं

गिरती बिजलियां

जलते घास-पूस के छप्पर

ढह जाते दुर्ग

सम्मान के...

संस्कृति के.

बिखरे अवशेष कराहते

खण्डहर में उग आते बांस

सीढ़ियां बनने को उत्सुक

पीढ़ियां उत्साह में फिसल जातीं,

हवन में आहुति डालते

भड़कती चिंगारी

सब भस्म कर देतीं

जप-तप और देह ..

आत्मा कुण्ठित

सीढ़ियों से इतर निर्मित करती

साम्यवाद !

प्रेम और सौहार्द्र.

पीढ़ियां नींव में दफ्न

नित्य करवटें बदलतीं

थूके हुये को चाटतीं....क्योंकि

ज़िंदा रहना जरूरी है....

मौलिक व अप्रकाशित 

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