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बंद कोठरी की ज़िन्दगी (कविता)

वो बंद घरों की खुली आशाएं
अपनी उम्र से कहीं आगे जाती हुई
अपने देह पर सभ्य समाज की कतरन ओढ़े
देखती हैं खिड़की से बदनाम दुनियां
इशारों में पास बुलाने की मज़बूरी
देह पर निशाँ छुडवाने की मज़बूरी
मज़बूरी छुपाने की अभी भी हम इंसान है
इस समाज से मांगी गई ज़िन्दगी संभालते हुए
उधारी में दी हुई मुस्कान के साथ ग्राहक को बुलाते हुए
कितना कुछ है उसके कमरे में
दरवाजे पर लिखा है ‘प्रेम संबंध मना है’
कुछ बेबस मन से आई थी कुछ ने इसे ही दुनिया माना
दुनिया जिसके सभी दरवाजे अन्दर की ओर खुलते
बातें नहीं होती यहाँ ख़ामोशी ही अल्फाज़ है
बिस्तर पर रात और दिन एक ही चहरे के साथ बेहोश है
रोशनी भीतर तक आते दम तोड़ देती है
इन बंद घरों की औरतें इसी समाज की हैं ऐसा कहा गया है
दिख जाएगा मर्यादाओं वाला समाज स्खलित होते हुए
धीरे से खुद को समेटते निकल जाएगा अँधेरे से
और फिर से किसी भीड़ से इन अँधेरी गलियों को गरियाएगा
यहाँ इनकी कहानी सुनने कई लोग आये
और उकेर दिया इनके चहरों को शब्दों के पीछे
फिर भी खामोश है यह
इनकी देह पर स्पर्श नहीं होता भावनाओं का
बस छोड़े जाते हैं निशाँ, जिनमें दिख जाएंगे हम
कुछ नहीं बदलता और न बदलेगा
वक्त की रफ़्तार इस गली में थम जाती है
अँधेरे के लिए रात का इंतज़ार नहीं होता
इनके भीतर से कमरे तक बस अँधेरा ही तो है
अपने जिस्म पर समाज को ढोती यह बंद कोठरी की महिलाएं
शीशा है जिसमें हम समाज को देख सकते हैं
 
- कुमार गौरव 'कुमार 
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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