For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

वह अलौकिक हेडलाईट – आँखों देखी 6

वह अलौकिक हेडलाईट – आँखों देखी 6

 

      शीतकालीन अंटार्कटिका का अनंत रहस्य हर रोज़ अपने विचित्र रंग-रूप में हमारे सामने उन्मोचित हो रहा था. बर्फ़ के तूफ़ान चल रहे थे जो एक बार शुरु होने पर लगातार घन्टों चला करते. कभी-कभी तो छह सात दिन तक हम पूरी तरह स्टेशन के अंदर बंदी हो जाते थे. 80 से 100 किलोमीटर प्रति घंटा की गति से हवा चलती जो झटके से, जिसे तकनीकी भाषा में Gusting कहते हैं, प्राय: 140 कि.मी.प्र.घ. हो जाती थी. तूफ़ान के आने का पूर्वाभास हमें सैटेलाईट चित्रों से प्राप्त होता था, अत: हम हमेशा उसके लिये तैयार रहते थे. दक्षिण गंगोत्री स्टेशन के बर्फ़ में धँसे होने के कारण बहुत सी असुविधाएँ जैसी थीं, वहीं दूसरी ओर एक लाभ भी हुआ था. ऐसे ब्लिज़ार्ड या बर्फीले तूफ़ान के दौरान प्लाईवुड से बना यह स्टेशन बहुत हद तक सुरक्षित था. उड़ते बर्फ़ के कणों को अपने रास्ते में बड़ी बाधा नहीं मिल रही थी क्योंकि स्टेशन की केवल छत, वह भी उल्टे V-आकार में बर्फ़ की सतह के ऊपर थी. बर्फ़ की कणों को टकराने के लिये बड़े क्षेत्रफल की कोई दीवार नहीं मिलने के कारण वे स्टेशन के पास अधिक मात्रा में जमा नहीं होते थे. हवा की गति के कुछ कम (40-50 कि.मी.प्र.घ.) हो जाने पर थोड़ी बहुत बर्फ़ जमा होती थी क्योंकि उन बारीक कणों को किसी बाधा से टकराने के बाद दूर उड़ा ले जाने वाली ऊर्जा का अभाव होता था. ऐसे यदा-कदा होने वाले बर्फ़ के ढेरों को हमलोग बेलचे से उठाकर फ़ैला देते थे जिससे वे ढेर स्वयं ही बाधा न बन जाएँ लगातार उड़ते बर्फ़ के लिये. यह काम बहुत आसान नहीं था. अंटार्कटिका के विशेष वस्त्रों से अपने को ढँककर, मुँह पर मुखौटा (mask) पहनकर बेलचा आदि सामान हाथ में लिये स्टेशन से बाहर निकलते थे तो पहला कदम बाहर रखते ही तूफ़ान के थपेड़े से अक्सर हम लड़खड़ा जाते. अन्यमनस्क होने पर गिर जाना मामूली बात थी. रूई जैसे बर्फ़ में भारी जूते के साथ आठ-आठ दस-दस इंच तक पैरों का धँस जाना और फिर एक-एक कदम रखते हुए आगे बढ़ना कभी न भूल सकने वाला अनुभव है. मुखौटे तथा चश्मे (snow goggle) के बावजूद आँख की पलकों में और नाक के छेद में बर्फ़ जम जाने से दम घुटने जैसा होता था. ऐसे में परिश्रम और घबराहट से बदन पसीने से तर हो जाता. नुकीली ठण्डी हवा के आक्रमण से आँख से पानी आता और आँख से ढुलकते ही चेहरे पर जम जाता था. देखते ही देखते चश्मे के ऊपर बर्फ़ की तह जम जाती जिसे हम लगातार, मोटे दस्ताने पहने हाथ से हटाने की कोशिश करते. कुछ अनुभव हो जाने के बाद हम जेब में टॉयलेट रोल ले जाने लगे थे...उसी से चश्मे को साफ़ कर लिया करते. यही नहीं हमारे दो-तीन पर्त वाले जूते के अंदर बर्फ़ घुस जाता था और हम लगातार अपनी उंगलियों को चलाते रहते थे जिससे रक्त संचालन बना रहे और उंगलियों में खून न जम जाये. लेकिन हम सभी के लिये सबसे कष्टदायी बात होती नाक का बहना. नाक से पानी बाहर आते ही मूँछ के ऊपर जम जाता. साथ ही मुखौटे के भीतरी भाग को अपने साथ चिपका लेता. जब अपना काम करके हम स्टेशन के अंदर वापस जाने के साथ ही हड़बड़ी में मुखौटा उतारने जाते तो मूँछ उखड़ने लगता. इस तरह हमलोगों को कई बार चोट पहुँची थी.

 

      इन बातों को लिखते हुए एक घटना याद आ गयी. उस समय मौसम अच्छा था और तापमान शून्य से 40 डिग्री सेल्सियस नीचे. स्टेशन के बाहर किसी गाड़ी या अन्य किसी मशीन की मरम्मत हो रही थी. भारतीय सेना के दो-तीन हवलदार जो मेकेनिक थे, बाहर काम कर रहे थे. हम अन्य सदस्य स्टेशन के भीतर ही थे. अचानक उन हवलदारों में से एक दौड़ते हुए अंदर आकर सीधे डॉक्टर के सामने मुँह खोलकर “आ....आ.....आ” शब्द करने लगे. डॉक्टर साहब ने उसे देखा और फिर हँसकर बोले “घबड़ाओ नहीं और मुँह बंद करके चुपचाप बैठो, निगलना नहीं”. हुआ ऐसा था कि आदतवश जनाब ने कोई पेंच मशीन से खोलकर अपने मुँह में रख लिया था. जब उसे पुन: मशीन में लगाने की बारी आयी और उन्होंने पेंच को खींचा तो जीभ ही बाहर आ गयी थी क्योंकि जीभ का लार (saliva) बर्फ़ बन चुका था. पेंच उसी में फँसे रहने के कारण असावधानी में जीभ को भी बाहर खींच लायी थी. पाँच-सात मिनट बाद स्टेशन के अंदर के गर्म वातावरण में लार गल जाते ही पेंच ढीला होकर निकल आया यद्यपि उनके जीभ और गले का दर्द कई दिनों तक बना रहा.

      मैंने आँखों देखी 5 में कहा था कि स्टेशन ड्यूटी के दौरान मुझे बहुत अनोखे अनुभव हुए. एक बार ऐसी ही ड्यूटी के समय मैं और एक साथी स्टेशन के ए-ब्लॉक (जिसमें हम रहते थे) से बी-ब्लॉक (जिसमें जनरेटर आदि थे) जा रहे थे. इन दोनों ब्लॉक को लकड़ी का बना हुआ एक गलियारा (passage) जोड़ता था जहाँ हीटर नहीं था. हीटर नहीं होने की वजह से उस पैसेज की दीवार पर सख्त बर्फ़ की मोटी पर्त हमेशा जमा रहती थी. हम जैसे ही उस पैसेज में पहुँचे तो देखकर दंग रह गये कि हमारे ही एक सहअभियात्री, जो भारतीय सेना के logistic team में थे, वहाँ खड़े हुए दीवार की बर्फ़ पर अपना सिर ठोंक रहे थे. हमने दौड़कर उन्हें पकड़ा. वे हमारे अच्छे मित्र भी थे अत: उन्हें समझा-बुझाकर स्टेशन के अंदर लाने में देर नहीं लगी. धीरे-धीरे पता चला कि किसी वजह से वे वरिष्ठ अधिकारी अथवा दलनेता से नाराज़ हो गये थे लेकिन अभियान की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए एक अनुशासित सैनिक की भाँति उन्होंने किसी से कोई बहस नहीं की. फिर भी उनके मन की अशांति बढ़ती जा रही थी सो गुस्सा उतारने के लिये उन्होंने वह अभिनव उपाय निकाला था जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है. अगर हम समय से नहीं पहुँचते तो उन्हें गम्भीर चोट लगती. कुछ देर गप-शप करके, चाय पीकर और कैरम का एक गेम खेलकर हमने उन्हें शांत किया तथा सोने के लिये भेज दिया.

      एक और घटना का ज़िक्र करके आज के इस पर्व को विराम दूंगा –
      फिर वही स्टेशन ड्यूटी और कूड़े का बैग लेकर मैं बाहर आसमान के नीचे. स्लेज पर कूड़े का बैग रखा ही था कि देखा हमारे (स्टेशन के) दक्षिण-पश्चिम से कोई गाड़ी आ रही है. गाड़ी का हेडलाईट साफ़ नज़र आ रहा था. मैं देखता रह गया. वह प्रकाश स्थिर नहीं था – कभी ऊपर उठता, कभी थोड़ा नीचे जाता ठीक उसी तरह जैसे ऊबड़-खाबड़ सतह पर चलती हुई गाड़ी के साथ होता है. मुझे लगा थोड़ी ही देर में गाड़ी हम तक पहुँच जाएगी....लेकिन बहुत देर हो गयी उसे देखते हुए. कभी ऐसा भान हुआ कि गाड़ी रुक गयी है. आश्चर्य मुझे केवल इस बात का हो रहा था कि वह प्रकाश हमसे दक्षिण-पश्चिम में था. हमारी कोई गाड़ी कहीं नहीं गयी थी. आने को एकमात्र रूसी ही अपने स्टेशन ‘नोवोलज़ारेव्सकाया (Novolazarevskaya)’ से आ सकते थे. लेकिन वे तो हमसे दक्षिण-पूर्व में थे. फिर ये कौन थे!!! आख़िर मैंने अपने दलनेता को बुलाना उचित समझा. पिछली बार ‘आकाश में आग की लपटों’ का रहस्य उन्होंने ही सुलझाया था. लेकिन इस बार वे इस अद्भुत हेडलाईट के रहस्य को नहीं सुलझा सके. अटकलें लगायी जाने लगीं कि उस दिशा में तो दक्षिण अफ्रीका का सनाय (Sanae) ही सबसे नज़दीकी स्टेशन है. पर वह तो लगभग 400 किलोमीटर दूर था. बिना बताये कोई ऐसे अंटार्कटिका में कहीं नहीं जा धमकता है – वह भी शीतकालीन अंटार्कटिका में! रूसियों से रेडियो पर सम्पर्क करके पूछा गया तो वहाँ से भी कोई समाधान नहीं मिला.
जब दूसरे दिन भी वह हेडलाईट ज्यों का त्यों दिखने लगा तो हममें से कुछ लोगों ने प्रस्ताव रखा कि गाड़ी लेकर उस दिशा में चलकर देखा जाए मामला क्या है, क्योंकि हो सकता है कोई उधर से आ ही रहा हो और उसकी गाड़ी बर्फ़ में फँस गयी हो या फिर दुर्घटनाग्रस्त हो गयी हो. लेकिन अनुभवी दलनेता ने ऐसा करने से मना किया. वे बोले ‘इंतज़ार करो, जल्दबाज़ी में कोई कदम उठाना ठीक नहीं’. उनके मन में क्या था पता नहीं लेकिन मैंने एकबार सोचा अवश्य था कि कहीं कोई यू.एफ़.ओ. तो नहीं!! शायद फ़िल्म देखने और विज्ञान सम्बंधी ललित कहानियों को पढ़ते रहने के कारण मेरे मन में ऐसा विचार आया था. हम लोगों का कौतूहल जब चरम पर पहुँचकर शिथिल होना शुरु हुआ तभी रूसी स्टेशन के रेडियो ऑफ़िसर ने हमारे रेडियो ऑफ़िसर से बेतार के माध्यम पूछा “क्या भाई, तुम्हारे अतिथि पहुँचे?” अर्थात वह गाड़ी जिसकी हेडलाईट हम चार-पाँच दिन से देख रहे थे आयी या नहीं. जब हमारे साथी ने स्वीकार किया कि कोई नहीं आया और अब पिछले कुछ घंटे से वह गाड़ी दूर जाती लग रही थी तो रूसी अफ़सर जोर से ठहाका लगाकर हँसा. उसीसे पता चला कि हम जिसे गाड़ी का हेडलाईट समझ रहे थे वह वास्तव में शुक्र ग्रह (Venus) था. अपने खगोलीय चक्र में क्षितिज के ठीक ऊपर और अपने परिक्रमा पथ (orbit) में पृथ्वी के बहुत नज़दीक आ जाने के कारण उसका प्रकाश वायुमण्डल में बर्फ़ के कणों से कुछ इस प्रकार परावर्तित हो रहा था कि वह हमें गाड़ी के हेडलाईट जैसा प्रतीत हो रहा था. हम स्तंभित हो गये और रोमांचित भी हुए इस अनुभूति के साथ कि प्रकृति के विराटत्व के आगे हम कितने बौने हैं.

      अंटार्कटिका मेरे रग-रग में बसने लगा था.......
      (मौलिक व अप्रकाशित सत्य घटना)

Views: 1012

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 19, 2013 at 4:21am

आदरणीय सौरभ जी, मैं आपकी व्यस्तता से परिचित हूँ. इसीलिये विश्वास था कि देर से सही आप अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देंगे. आप जैसे ""सामान्य"" पाठक मेरे अकल्पनीय प्रेरणास्रोत हैं. काश! कुछ परियाँ ही दिख जातीं वहाँ....यह आप सभी की महानुभावता है कि मेरे इस श्रृंखला के लेखों को इतने उत्साह से पढ़ा. आगे भी लिखने की इच्छा है ऐसे कुछ अनुभव की बातें जो किसी सरकारी दस्तावेज अथवा किसी साहित्यिक कृति में  उपलब्ध होने की कोई सम्भावना नहीं है. आप सबका स्नेह बना रहे यही कामना है. सादर. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 19, 2013 at 12:26am

आदरणीय शरदिन्दुजी, आपके आलेख शृंखला की यह कड़ी कई मायनों में तनिक विशेष रही.
सर्वप्रथम तो हार्दिक क्षमा याचना के साथ यही, कि मैं इस आलेख की प्रस्तुति के इतने दिनों बाद यहाँ अपनी उपस्थिति बना पा रहा हूँ.

दूसरे, इस बार आपकी लेखकीय प्रतिभा उभर कर सामने आयी है.

इस बार का आलेख मात्र सूचनात्मक प्रस्तुति न हो कर वर्णनात्मक अभिव्यक्ति भी है. आपके लेखन-कला का सुन्दर आयाम उभर कर सामने आया है. कुछ भी हो सारा कुछ इस मंच केलिए उपलब्धि ही है.

वर्णन में जिन रोचक घटनाओं का समावेश हुआ है वह तो हम जैसे सामान्य पाठकों के लिए कल्पनातीत तथ्य ही हैं.

अब मुँह में लिये गये पेंच के जीभ से चिपक जाने के कारण उसे निकालते समय जीभ के भी बाहर खिंच आने की तो हम सामान्य अवस्था में कल्पना ही नहीं कर सकते हैं !

या, शुक्र ग्रह की निहायत भली-भली सी बदमाशी !  ओह !.. :-)))))

सारा कुछ परियों की दुनिया में हुआ लगता है. वैसे उस प्रदेश को ’परियों की दुनिया’ कहे जाने पर खासी बहस हो सकती है...

हा हा हा हा... . :-)))
हमसभी के बीच आपका होना और ऐसे अनुभव साझा करना वाकई हमें सौभाग्यशाली बना रहा है.
इन शृंखलाबद्ध प्रस्तुतियों के लिए सादर धन्यवाद.
आगामी कड़ियों की प्रतीक्षा में.. .
आपका सौरभ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 12, 2013 at 2:15am
आदरणीय वीनस जी, मुझे मालूम था आप हेडलाईट हैं, लाईट हेडेड नहीं. केवल इलाहाबाद से अंटार्कटिका तक ही नहीं बल्कि आपकी चमक 'सृष्टि' नाम के 'अंजुमन' के हर कोने में फैले यही मेरी प्रार्थना है. शुभेच्छु.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 12, 2013 at 2:09am
आदरणीया वंदना जी, आपको मेरा संस्मरण अच्छा लगा जानकर बहुत संतोष मिला....धन्यवाद.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 12, 2013 at 2:06am
श्रद्धेय श्री विजय निकोर जी, मुझे स्वयं आश्चर्य होता है कैसे इतनी बातें मुझे याद रह गयी हैं. वास्तव में इन्हें लिखते वक्त मैं समय की विपरीत धारा में बह जाता हूँ और स्मृतियाँ अनायास मुझे घेर लेती हैं. ओ.बी.ओ. के प्रबुद्ध पाठक/पाठिकाओं के सतत आग्रह तथा जिज्ञासा ने मुझे इन अनुभवों को साझा करने की शक्ति दी है. आप इनके पुरोधा हैं. मेरा विनम्र आभार स्वीकार करें.
Comment by Vindu Babu on December 11, 2013 at 1:46pm
आदरणीय आपने इतनी बारीकियों के साथ अपने अनुभव को साझा किया है,यूं लगा जैसे अपने ही अनुभव को स्मरण कर रही हूं।
अनुभव और प्रकृति का इतना रोमांचक वर्णन करने के लिए आपका हार्दिक आभार।
venus जी आप वहां भी...हा हा
सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 11, 2013 at 12:44pm

वह वास्तव में शुक्र ग्रह (Venus) था........................हाहाहा हाहाहा हाहाहा वीनस जी :)))

हेडलाईट की तरह अन्टार्कटिका तक चमक बिखर रही है...वाह वाह .... //आमीन//

Comment by vijay nikore on December 11, 2013 at 7:24am

 

आपका संस्मरण इतना रोचक है कि जैसे आप हमें भी इस अभियान पर

साथ ले गए हों। प्रकृति के यह अद्भुत चित्र इतनी बारीकी से आपके

समृति पटल पर अंकित हैं कि जैसे आप अभी-अभी इस अभियान

से लौटे हों। साझा करने के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय।

 

सादर,

विजय निकोर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 11, 2013 at 2:34am

आदरणीया प्राची जी, एक पर्यावरणविद और साहित्यकार की सम्मिलित दृष्टि से आपके प्रतिक्रिया की हमेशा प्रतीक्षा रहती है मेरी अंटार्कटिका सम्बंधित रचनाओं को पोस्ट करने के बाद. और हर बार आपसे अकुंठ प्रोत्साहन मिला है. आप जिस प्रकार से मेरे साझा किये हुए अनुभवों के साथ एकात्म हो जाती हैं  रचनाकार के रूप में वह मेरे लिये सबसे सुखद अनुभूति है, सबसे उत्तम पुरस्कार है. सादर आभार.

Comment by वीनस केसरी on December 11, 2013 at 2:23am

अच्छा तो वो मैं था ... !!!!! :)))))))))

हा हा हा

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Chetan Prakash replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169 in the group चित्र से काव्य तक
"रिमझिम-रिमझिम बारिशें, मधुर हुई सौगात।  टप - टप  बूंदें  आ  गिरी,  बादलों…"
46 minutes ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169 in the group चित्र से काव्य तक
"हम सपरिवार बिलासपुर जा रहे है रविवार रात्रि में लौटने की संभावना है।   "
8 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169 in the group चित्र से काव्य तक
"कुंडलिया छंद +++++++++ आओ देखो मेघ को, जिसका ओर न छोर। स्वागत में बरसात के, जलचर करते शोर॥ जलचर…"
8 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169 in the group चित्र से काव्य तक
"कुंडलिया छंद *********** हरियाली का ताज धर, कर सोलह सिंगार। यौवन की दहलीज को, करती वर्षा पार। करती…"
8 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169 in the group चित्र से काव्य तक
"स्वागतम्"
17 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आदरणीय लक्ष्मण भाई अच्छी ग़ज़ल हुई है , बधाई स्वीकार करें "
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post पूनम की रात (दोहा गज़ल )
"आदरणीय सुरेश भाई , बढ़िया दोहा ग़ज़ल कही , बहुत बधाई आपको "
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीया प्राची जी , ग़ज़ल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार "
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"सभी अशआर बहुत अच्छे हुए हैं बहुत सुंदर ग़ज़ल "
Wednesday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

पूनम की रात (दोहा गज़ल )

धरा चाँद गल मिल रहे, करते मन की बात।जगमग है कण-कण यहाँ, शुभ पूनम की रात।जर्रा - जर्रा नींद में ,…See More
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी posted a blog post

तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी

वहाँ  मैं भी  पहुंचा  मगर  धीरे धीरे १२२    १२२     १२२     १२२    बढी भी तो थी ये उमर धीरे…See More
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार "
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service