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एक ग़ज़ल 
 
रिरिया रहे है लोग 
घिघिया रहे है लोग
 
उद्घोष होना चाहिए 
मिमिया रहे है लोग
 
बेदर्द क़त्ल है ये 
बतिया रहे है लोग
 
है वक़्त पूनियों सा 
कतिया रहे है लोग
 
संवेदना मरी है
खिसिया रहे है लोग
 
धोखे की टट्टियों को 
पतिया रहे है लोग
 
कुर्सी पे बैठे बैठे
गठिया रहे है लोग
 
आदम नहीं गधे सा
लतिया रहे है लोग
 
मौके भुना रहे है
हथिया रहे है लोग  

Views: 341

Comment

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Comment by ASHVANI KUMAR SHARMA on April 5, 2011 at 9:33am
thanx for liking ganesh ji
Comment by ASHVANI KUMAR SHARMA on March 11, 2011 at 11:38pm
seema ji shukriya
Comment by ASHVANI KUMAR SHARMA on March 11, 2011 at 11:37pm
rajesh ji abhaari hun
Comment by seema singhal on March 7, 2011 at 4:49pm
बहुत ही सुन्‍दर ।
Comment by राजेश शर्मा on March 5, 2011 at 10:43pm
बहुर सुंदर अश्वनी जी ,आप बहुर अच्छा लिखते हें.

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