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व्यंग्य - ‘मौन-मोहन’ से मिन्नतें

हे ‘मौन-मोहन’, आपको सादर नमस्कार। आप इतने निराश मन से क्यों अपना राजनीतिक चक्र घुमा रहे हैं। जिस ताजगी के साथ आपने देश में नई बुलंदी को छू लिए और लोगों के दिल में समाए, आखिर अब ऐसा क्या हो गया, जो आप एकदम से थके-थके से नजर आ रहे हैं। जिस जनता-जनार्दन के सिर पर अपना ‘हाथ’ होने की दुहाई देकर आप सत्ता तक पहुंचे, उसी हाथ की आज क्यों जनता से दूरी बढ़ गई है। ’आम आदमी के साथ’ का जो नारा था, वो तो शुरू से ही साथ छोड़ गया है। निश्चित ही आपकी छवि, दबे-कुचले जनता के बीच अच्छी है, लेकिन आपके द्वारा उन्हीं लोगों की चिंता नहीं किए जाने से, वे पूरी तरह नाखुश हैं।
आपका नेतृत्व पाकर देश की करोड़ों भूखे-नंगे गरीब बहुत आनंदित थे, चलो कोई तो बेदाग छवि का व्यक्ति उनके खेवनहार बना। जब आप पहली बार सरकार में बैठे, उसके बाद कई नीतियां बनीं, जो हम जैसे गरीबों तथा अंतिम छोर के लोगों के लिए कारगर रहीं। ऐसी क्या बात हो गई, जो दूसरी बार के नेतृत्व में पूरी तरह फेल होते जा रहे हैं। आपकी आदत तो जीतने की है, आपने देश की आर्थिक दशा बदलने में अहम योगदान दिया, किन्तु अब महंगाई पर लगाम लगाने की मंशा पर, आपकी क्यों एक नहीं चल रही है ? महंगाई से देश की करोड़ों गरीब कितना त्रस्त हैं, उसकी आपको जरा भी फिक्र नहीं है ? महज चंद रूपयों के सहारे अपना और अपने परिवार का पेट पालने वाले गरीबों के चेहरे का दर्द आपको क्यों दिखाई नहीं देता ? आप हर बार क्यों ‘मौन’ हो जाते हैं ? जनता आपकी ओर टकटकी लगाए बैठी रहती है, यही तो हमारा सरकारी विधाता हैं। ये जो कहेंगे, उसके बाद से उनका भला होगा। आप तो कुछ बोलते ही नहीं, बस हमारे सिर दर्द बढ़ा दिए हैं, हर पल महंगाई को न्यौता दिए बैठे रहते हैं। आपके सहयोगी भी आपको बरगला देते हैं, आपका पूरे देश पर शासन है, लेकिन ऐसा क्या हो जाता है, जो आपकी, अपने सहयोगी के सामने घिग्घी बंध जाती है।
आपके मौन रहने को लेकर आपके विरोधी आप पर कटाक्ष करते रहते हैं। पता है, हमें कितना बुरा लगता है। आप क्यों, बार-बार दस जनपथ की ओर ताकते रहते हैं। हमने देखा है कि कुर्सी मिलने के बाद भी बड़ा से बड़ा गधा भी होशियार ‘सियार’ की तरह कार्य करता है और सत्ता के रसूख पाकर वह जैसे-तैसे निर्णय खुद ही लेता है, ये अलग बात है कि वह उस निर्णय से कितना सफल होता है ? आप मौन साधे जरूर रहते हैं, हमें मालूम है कि आपके अर्थशास्त्री दिगाम के आगे अच्छे-अच्छे नहीं ठहर सकते, फिर भी आप अपने पर विश्वास नहीं करते और दूसरा कोई, आपको गलत सलाह देकर अविश्वसनीय बना देता है। जिस दस जनपथ के रहमो-करम से आपको पदवी मिली है, है, आपका नैतिक धर्म बनता है कि आप उन्हें विश्वास में लेकर काम करें, किन्तु देश की करोड़ों जनता को भी आप पर विश्वास है कि आप उनके लिए कुछ बेहतर करेंगे ? पर आप हैं, कुछ समझते ही नहीं।
अब देखिए न, आपको सात साल से अधिक हो गए, हमारे बीच अठखेलियां करते। फिर भी हमारे लिए अनजान बने हुए हैं। हम जैसे गरीब लोगों को आप पर कितना भरोसा है कि गरीबों के आप तारणहार साबित होंगे। आप तो उल्टे ही पड़ गए और आप तो हमें महंगाई के भवसागर में डूबोने तुले हुए हैं। महंगाई से रोज-रोज मार खा-खाकर हमारा दम घुटने लगा है। कभी भी महंगाई से हमारी जान जा सकती है। वैसे भी हम जैसे लाखों लोग कई बार भूखे पेट सोते हैं, फिर भी गरीबी के मापदण्ड को आप बढ़ाए जा रहे हैं। पहले जितना मिलता था, उससे ही गुजारा मुश्किल था। उसके बाद भी आपको रहम नहीं आया और आपने एक बार फिर साबित कर दिया कि गरीबी, बड़ी कमीनी चीज होती है। हमारे भाग्य में गरीबी में पैदा होना और गरीबी में मरना लिखा है, इस बात का हमें अफसोस नहीं है, मगर अफसोस इस बात का है कि आप क्यों ‘मौन-मोहन’ बने हुए हैं। आखिर आप कब तोड़ने वाले हैं, अपना ‘मौन रहने का उपवास’, ‘मौन-मोहन’ से हमारी सबसे बड़ी मिन्नतें यही है। जिस दिन आप मौन रहना छोड़ देंगे, उस दिन हमारे दिल को बड़ी तसल्ली मिलेगी।


राजकुमार साहू
लेखक व्यंग्य लिखते हैं।

जांजगीर, छत्तीसगढ़

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