काफि़या को लेकर आगे चलते हैं।
पिछली बार अभ्यास के लिये ही गोविंद गुलशन जी की ग़ज़लों का लिंक देते हुए मैनें अनुरोध किया था कि उन ग़ज़लों को देखें कि किस तरह काफि़या का निर्वाह किया गया है। पता नहीं इसकी ज़रूरत भी किसी ने समझी या नहीं।
कुछ प्रश्न जो चर्चा में आये उन्हें उत्तर सहित लेने से पहले कुछ और आधार स्पष्टता लाने का प्रयास कर लिया जाये जिससे बात समझने में सरलता रहे।
काफि़या या तो मूल शब्द पर निर्धारित किया जाता है या उसके योजित स्वरूप पर। पिछली बार उदाहरण के लिये 'नेक', 'केक' लिये गये थे जिनमें सिद्धान्तत: मूल शब्द के अंदर नहीं घुसना चाहिये काफि़या मिलान के लिये और काफि़या 'क' पर निर्धारित मानना चाहिये लेकिन फिर भी हमने 'न' और 'क' पर 'ए' स्वर के साथ काफि़या निर्धारिण की स्थिति देखी। और यह देखा कि ऐसा करने पर किसी शेर में फेंक नहीं आ सकता क्यूँकि 'क' के पूर्व-स्वर 'ऐ' का ध्यान रखा जाना जरूरी है यह ऐं नहीं हो सकता और अगर ऐसा किया जाता है तो यह एक गंभीर चूक मानी जायेगी जिसे बड़ी ईता या ईता-ए-जली कहा जाता है। अत: एक सुरक्षित काफि़या निर्धारण तो यही रहेगा कि मूल शब्द के अंतिम व्यंजन अथवा व्यंजन+पश्चात स्वर पर काफि़या निर्धारित कर दिया जाये जिससे पालन दोष की संभावनायें कम हों। जैसे 'थका' 'रुका' जो क्रमश: मूल शब्द 'थक' और 'रुक' के रूप हैं।
इसका और विस्तृत उदाहरण देखें; 'पक' और 'महक' मत्ले में काफि़या रूप में लिये जाने से 'पलक', 'चमक', 'चहक' आदि का उपयोग तो शेर में किया जा सकेगा लेकिन मत्ले में 'दहक' और 'महक' काफि़या के रूप में ले लेने से सभी काफि़या 'हक' पर समाप्त होंगे अन्यथा काफि़या पालन में दोष की स्थिति बन जायेगी। काफि़या पालन के दोष गंभीर माने जाते हैं।
एक अन्य उदाहरण देखें कि अगर आपने 'बस्ते', 'चलते' मत्ले में काफि़या के रूप में लिये तो बाकी अश'आर में 'ते' पर काफि़या अंत होगा लेकिन 'ढलते', 'चलते' मत्ले में काफि़या के रूप में लिये तो बाकी अश'आर में ऐसे मूल शब्द लेने होंगे जो 'ल' पर समाप्त होते हों और जिनके अंत में 'ते' बढ़ा हुआ हो।
यहॉं एक बात समझना जरूरी है कि अगर आपने 'ढहते', 'चलते' मत्ले में काफि़या के रूप में लिये तो काफि़या में ईता-ए-ख़फ़ी या छोटी ईता का दोष आ जायेगा। इसे समझने की कोशिश करते हैं। हो यह रहा है कि दोनों शब्दों में 'ते' मूल शब्द पर बढ़ा हुआ अंश है और काफि़या दोष देखने के लिये इसे हटाकर देखने का नियम है जो यह कहता है कि मत्ले में काफि़या मूल शब्द के स्तर पर मिलना चाहिये और ऐसा नहीं हो रहा है तो छोटी ईता का दोष आ जायेगा।
इसका एक हल यह रहता है कि एक पंक्ति का काफि़या ऐसा लें जो बढ़े हुए अंश पर समाप्त हो रहा हो और दूसरी पंक्ति में काफि़या का शब्द मूल शब्द हो। जैसे कि 'चम्पई' और 'ढूँढती' जिसमें 'चम्पई' मूल शब्द है और 'ढूँढती' है 'ढूँढ' पर 'ती' बढ़ा हुआ अंश। इस उदाहरण में काफि़या होगा 'ई' अथवा इसका स्वर स्वरूप जैसा कि 'ती' में आया है। अब इसमें आदमी, जि़न्दगी आदि सभी शब्द काफि़या हो सकते हैं।
एक अन्य हल होता है कि काफि़या दोनों पंक्तियों में मूल शब्द पर ही कायम किया जाये।
जितना मैनें समझा है उसके अनुसार मत्ले में काफि़या निर्धारण में ईता दोष छोटा माना जाता है और अगर मत्ले में काफि़या निर्धारण ठीक किया गया है लेकिन उसका सही पालन नहीं किया गया है तो वह दोष गंभीर माना जाता है।
अगर मत्ले के शेर में ही बढ़े हुए अंश पर काफि़या निर्धारित किया जाये तो ईता दोष आंशिक रहकर छोटी ईता या ईता-ए-ख़फ़ी हो जाता है। जबकि मत्ले में काफि़या निर्धारण मूल शब्द पर किया गया हो लेकिन उसके पालन में किसी शेर में ग़लती हुई हो तो ईता दोष गंभीर होकर बड़ी ईता या ईता-ए-जली हो जाता है।
हिन्दी ग़ज़लों में छोटी ईता का दोष बहुत सामान्य है और इसे कम लोग पहचान पाते हैं इसलिये इस पर चर्चा कम होती है।
अब लेते हैं प्रश्न और उनके उत्तर:
१. ईता दोष की परिभाषा क्या हुई? उदाहरण सहित समझाएं.
इसके उदाहरण और विवरण उपर दे दिये गये हैं।
२. अगर 'चिरागों' और 'आँखों' में ईता दोष नहीं है क्योंकि काफिया स्वर का है(ओं का), तो फिर 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' में ईता दोष क्यों हुआ? यहाँ भी तो काफिया 'ई' के स्वर पर निर्धारित हुआ. जो समझ आ रहा है वो यह कि 'चिरागों' और 'आँखों' में केवल शब्दों का बहुवचन किया है और शब्द का मूल अर्थ नहीं बदला है जबकि 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' में 'ई' बढ़ाने से शब्द का अर्थ ही बदल गया है. क्या मेरा यह तर्क ठीक है?
अब जब हम काफि़या को समझने का प्रयास कर चुके हैं, दोष पर भी बात कर लेना अनुचित नहीं होगा। 'चिरागों' और 'आँखों' को मत्ले में लेना निश्चित् तौर छोटी ईता का दोष है। दोनों के मूल शब्द 'चिराग' और 'आँख' मत्ले में काफि़या नहीं हो सकते। यही स्थिति 'दोस्ती' और 'दुश्मनी' की है। इनमें भी मूल 'दोस्त' और 'दुश्मन' मत्ले में काफि़या नहीं हो सकते।
३. 'गुलाब' और 'आब' में अगर दोष है तो 'बदनाम' और 'नाम' के काफियों में दोष क्यों नहीं है?
'नाम' और 'बदनाम' में 'नाम' शब्द पूरा का पूरा बदनाम में तहलीली रदीफ़ के रूप में है इसलिये 'नाम' इस प्रकरण में काफि़या नहीं हो सकता।
अब इसे अगर हिन्दी के नजरिये से देखें और कहें कि हिन्दी में बदनाम एक ही शब्द के रूप में लिया गया है तो बाकी काफि़या केवल वही शब्द हो सकेंगे जो 'नाम' में अंत होते हैं। जैसे हमनाम, गुमनाम आदि।
4. सिनाद के ऐब पर पर भी थोड़ा विस्तार से बताएं|
सिनाद दोष मत्ले में होने की संभावना रहती है जब काफि़या के मूल शब्द में जिस व्यंजन पर काफि़या निर्धारित किया जाये वह दोनों पंक्तियों में स्वरॉंतर रखता हो।
जैसे 'रुक' और 'थक' में स्वरॉंतर है। 'छॉंव' और 'पॉंव' तो ठीक होंगे लेकिन 'पॉंव' और 'घाव' स्वरॉंतर रखते हैं।
5. 'झंकार' एवं 'टंकार' का प्रयोग भी सही रहेगा ,,, वस्तुत: इनमें 'कार' तो दोनों पंक्तियों में तहलीली रदीफ़ की हैसियत रखता है।
'घुमाओ' और 'जमाओ' का 'ओ' तो वस्तुत: तहलीली रदीफ़ है।
इन् दो बात में विरोधाभास दिख रहा है 'झंकार' एवं 'टंकार' में "कार" तहलीली रदीफ़ है तो 'घुमाओ' और 'जमाओ' में केवल "ओ" क्यों "माओ" तहलीली रदीफ़ होना चाहिए ?
उत्तर:
इसे इस रूप में देखें कि घु और ज तो काफि़या के रूप मे स्वीकार नहीं हो सकते; ऐसी स्थिति में काफि़या 'मा' पर स्थापित होगा और शायर को हर काफि़या 'माओ' के साथ ही रखना पड़ेगा जबकि 'झंकार' एवं 'टंकार' में 'अं' स्वर पर काफि़या मिल रहा है। काफि़या निर्धारण में आपको मत्ले की दोनों पंक्तियों में आने वाले शब्दों में पीछे की ओर लौटना है और जहॉं काफि़या मिलना बंद हो जाये वहॉं रुक जाना है, इसके आगे का काफि़या-व्यंजन और स्वर मिलकर काफि़या निर्धारित करेंगे और अगर केवल स्वर मिल रहे हैं तो केवल स्वर पर ही काफि़या निर्धारित होगा।
शुद्ध काफि़या की नज़र से देखेंगे तो 'झंकार' एवं 'टंकार' के साथ ग़ज़ल में सभी काफि़या 'अंकार' में अंत होंगे। अगर केवल 'र' पर या 'आर' पर समाप्त किये जाते हैं वह पालन दोष हो जायेगा।
6. काफिया और रदीफ़ की चर्चा में बहुत कुछ नयी जानकरी मिली, मेरा प्रश्न है मतले के पहले मिसरे में काफिया में नुक़ता हो बाकी शेरों में भी क्या नुक़ते वाले शब्द आयेंगे या नुक़ते रहित जैसे सज़ा, बजा
उत्तर:
यहॉं महत्वपूर्ण यह है कि नुक्ते से स्वर बदल रहा है कि नहीं। बदलता है। ऐसी स्थिति में इस स्वर का प्रभाव तो काफि़या पर जा रहा है और काफि़या नुक्ते के स्वर से व्यंजन का घनत्व कम होता है उच्चारित करके देखें। आपने जो उदाहरण दिये इनमें काफि़या नुक्ते के व्यंजन के साथ 'आ' स्वर पर निर्धारित हो रहा है। 'सज़ा' और शायद आपने 'बज़ा' कहना चाहा है जो त्रुटिवश 'बजा' टंकित हो गया है। अगर 'सज़ा' और 'बज़ा' लेंगे तो नुक्ते का पालन करना पड़ेगा। अगर 'सज़ा' और 'बजा'' लेंगे तो नुक्ते का पालन नहीं करना पड़ेगा क्योंकि फिर 'ज' और 'ज़' में साम्य न होने से काफि़या केवल 'ओ' के स्वर पर रह जायेगा।
7. झंकार और टंकार में स्वर साम्य है और "अंकार" दोनों में सामान रूप से विद्यमान है इसलिए "अंकार" काफिया होगा पर टंकार और संस्कार में स्वर साम्य तो है पर इस बार केवल "कार" ही उभयनिष्ट है अतः इस दशा में "कार" को ही काफिया के तौर पर लिया जाएगा. इसी तरह आकार और आभार में स्वर साम्य है पर केवल "आर" उभय्निष्ट है अतः "आर" ही काफिया होगा.
नुक्ते से सावधान रहना बहुत जरूरी है क्योंकि नुक्ते का प्रयोग उर्दू लब्ज़ के मायने भी बदल देता है जैसे अज़ीज़ और अजीज़. यहाँ पहले का अर्थ प्रिय, प्यारा है जब की दूसरे का अर्थ है नामर्द, नपुंसक. हिन्दी में ग़ज़ल लिखते वक्त उर्दू शब्दों का प्रयोग बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए.
उत्तर:
इसमें यह देखना जरूरी है कि झंकार और टंकार स्वयंपूर्ण मूल शब्द हैं अथवा नहीं। झंकार और टंकार और हुंकार क्रमश: झं, टं और हुं की ध्वनि उत्पन्न करने की क्रिया हैं। संस्कार मूल शब्द है टंकार के साथ मत्ले में काफि़या के रूप में आ सकता है। ब्लॉग पर मेरा उत्तर अपूर्ण अध्ययन पर था। बाद में शब्दकोष देखने से स्पष्ट हुआ।
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मैं सहमत हूँ। फिर भी मेरा मानना है कि ग़लतियॉं अज्ञानतावश भी हो सकती हैं और बेध्यानी के कारण भी। इसलिये अपनी ग़ज़ल को सार्वजनिक करने से पहले कुछ लोगों से साझा अवश्यक करना चाहिये जिससे समुचित निराकरण हो सके। यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि कोरी वाह-वाही करने वालों से साझा करने से सुधार नहीं हो सकता।
मेरी एक ग़ज़ल छापते हुए कुछ शेर हटा दिये गये, पूदने पर उत्तर प्राप्त हुआ कि हर शेर पर चर्चा नहीं कराई जा सकती है इसलिये भरती के शेर हटा दिये गये हैं। अब मेरे लिये तो भरती का शेर ही नया शब्द था सो चुप रहा फिर समझने का प्रयास करने पर अर्थ समझ में आया कि भरती का शेर क्या होता है। मैं किसी से सलाह नहीं करता इसलिये मेरे ही कई शेर ग़लत हो जाते हैं लेकिन जब कोई आपत्ति लाता है तो ध्यान जाता है कि वास्तव में ग़लती हो गयी थी। नामी शायर तो मुझे लगता है कि अपनी ग़ज़ल पर सलाह करना भी तौहीन समझते होंगे, ऐेसे में त्रुटियों की संीाावना को नकारा नहीं जा सकता है।
समस्या यह है कि देवनागरी में ऐसा कोई संदर्भ उपलब्ध नहीं है जो ग़ज़ल विधा का प्रामाणिक संदर्भ माना जा सके, उपलब्ध संदर्भों में पूर्णता का भी अभाव है।
उपलब्ध संदर्भों में पूर्णता का भी अभाव है।
yah baat to sahi hai
main soch raha hoon urdu sikhi jaye :)
चर्चा और रुस्वा में शब्द हैं चर्+चा रुस्+वा। स्पष्ट है कि काफि़या 'आ' के स्वर पर कायम किया गया है और स्थिति ऐसी है कि दोनों 'आ' स्वर पर समाप्त होने वाले मूल शब्द हैं, इनमें 'आ' स्वर बढ़ाया हुआ अंश नहीं है। अब इनमें से अगर आप 'आ' स्वर हटा कर देखेंगे तो बचेगा चर्+च रुस्+व या चर्च या रुस्व जो निरर्थक शब्द हैं। ऐसी स्थिति में 'आ' स्वर हटाकर आप ईता दोष नहीं तलाश सकते। इसके साथ दूसरा शेर देखें तो और स्पष्ट होगा।
आलेख को एक बार फिर देखें।
वसीम 'बरेलवी' साहब के स्तर के शायर से चूक की संभावना मैं तो शून्य ही मानता हूँ; अन्य शुअरा की ग़ज़लों में भी दोष तलाशने से पहले आनंद लेने का प्रयास करना ठीक रहता है। दोष होगा तो वो पढ़ने में स्वयं ही खटकेगा।
मेरा मानना है कि किसी शायर की ग़ज़ल में दोष की संभावना तब ज्यादह होती है जब उसे इन दोषों का ज्ञान ही न हो। जिन्हें दोष ज्ञात होता है उनसे चूक की संभावना कम रहती है। इसलिये दोष क्या होते हैं और उनसे कैसे बचा जा सकता है इसपर ध्यान देना जरूरी है।
संस्कार मूल शब्द है टंकार के साथ मत्ले में काफि़या के रूप में आ सकता है।
यदि ऐसा करेंगे तो मेरी जानकारी के अनुसार मतला दोषपूर्ण होगा
इसे थोड़ा स्पष्ट करें।
'संस्कार' शब्द में यदि हम ऐसे काफिये बांधते हैं जिसमें 'कार' शब्द आता हो तो फिर नियमतः हमें "स्" और "अं" की मात्रा को भी निभाना होगा, ऐसा हमकाफिया शब्द मिलाना मुश्किल है इसलिए संस्कार के साथ हमें हमें केवल 'आर' को निभाते हुए ग़ज़ल कहने कि कोशिश करनी चाहिए, जैसे - संस्कार, बहार, खुमार आदि
टंकार में यदि हम ऐसे काफिये बांधते हैं जिसमें 'कार' शब्द आता हो तो फिर नियमतः हमें "अं" की मात्रा को भी निभाना होगा,
और हम काफिया शब्द ये होंगे - झंकार, निरंकार आदि
संस्कार मूल शब्द है टंकार के साथ मत्ले में काफि़या के रूप में नहीं आ सकता है।
यदि ऐसा करेंगे तो मेरी जानकारी के अनुसार मतला दोषपूर्ण होगा
काफि़या बॉंधने में यह सावधानी तो रखनी ही होगी कि ग़ज़ल कहने लायक काफि़या के शब्द मिल सकें।
Mujhe Ye Janana hai ke vicharo ko badhaya kaise jaye
Maine ghazal likhne ki suruvaat toh karta hu magar woh bebhri ho jati hai jaise
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GHAAV MERE DIL PAR GEHRA HUA,
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JAB MERE YAAR PAR PEHRA HUA.
YAHA TAK TOH AA JATI HAI FIR USKE BAAD MATRICK KRAM TUT JATA HAI.
Isko sudharne ke liye kya kiya jay.
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