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चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक -१२ सभी रचनाएँ एक साथ |

चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक -१२

(सभी रचनाएँ एक साथ)

श्री अविनाश बागडे

१सीमा  पर चौकस रहे,आँखे जो दिन-रात.

घर की आफत में सदा, वही बढ़ाते हाँथ.

वही बढ़ाते हाँथ,काम हम सबके आते.

कुदरत छोड़े साथ,उन्हें हम अपना पाते.

कहता है अविनाश,करे जो सदा करिश्मा.

सेना उसका नाम,संभाले घर ओ सीमा)

                    ***

२)

बेदम जो करने लगे,कुदरत की ये मार.

जन-जन जब दिखने लगे,पंगु और लाचार.

पंगु और लाचार ,अँधेरा जब घिर जाये.

सेना बन कर ढाल,हमारी जान बचाए.

कहता है अविनाश,यही हैं सच्चे हमदम.

यही थामते साँस,जहां हम होते बेदम.

 

कुण्डलिया...

लीला करे विनाश की,कुदरत के जब दूत.

ढाल हमारी हैं बने, सैनिक वीर सपूत.

सैनिक वीर सपूत,जान पर खूब खेलते.

बड़े-बड़े आघात, सहज ही आप झेलते.

कहता है अविनाश,नाम इनका चमकीला.

आँगन या सरहद,सेना दिखलाये लीला.

 

गर्मी के दिन या रात रहे.

झर-झर झरती बरसात रहे.

कर्तव्य-वेदी पर तपने को,

सैनिक हर पल तैनात रहे.

*****

देश के पहरेदार हैं  ये.

मर-मिटने को तैयार हैं ये.

पूजो इनके ज़ज्बातों को,

मै कहता हूँ अवतार  हैं ये.

*****

सीमा पर यही तपस्वी हैं.

रणभूमी पर ओजस्वी है.

जब देश पे संकट हैं आते,

ये कोमल-ह्रदय मनस्वी हैं.

*****

घर-बार छोड़ रह जातें हैं.

फिर भी हंसते-मुस्कातें हैं.

फूलों का जीवन हम जीते,

ये  काँटों पर सो जातें  हैं.

*****

जो आतंकी बम-बारी हो.

सहमी ये दुनिया सारी हो.

कुर्बान करें जीवन खुद का,

रंगरूट या वो अधिकारी हो.

*****

अविनाश बागडे...

_______________________________

 

श्री अरुण कुमार निगम

तूफानों से खींच कर , कश्ती लायें तीर
धीर वीर हरदम हरें , भारत माँ की पीर
भारत माँ की पीर , शहादत को अपनाते
जान दाँव  पर लगा सभी की जान बचाते
देश सुरक्षित सारा , वीर के बलिदानों से
कश्ती लायें तीर , खींच कर तूफानों से.

 

चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता , अंक – 12 में मेरी दूसरी रचना
                      छत्तीसगढ़ी छंद ( वर्ण 12 +, 12 = 24 )
सब सूतत हें उन जागत हें  ,   जाड़ - घाम मा मुचमुचावत हें
तज दाई ददा भईया भउजी  ,   जाके जंग मा जान गँवावत हें
कोनों किसिम के बिपदा के घड़ी, कोनों गाँव गली कभू आवत हे
नदिया – नरवा  ,   डबरी - डोंगरी  ,  कर पार उहाँ अगुवावत हें.

बम,  बारुद ,  बंदूक  संग  खेलैं  ,  बइरी दुस्मन ला खेदारत हें
बीर जंग मा खेलैं होरी असली ,   देखौ लाल लहू मा नहावत हें
गोली छाती मा झेलत हें हँसके ,  दूध के करजा ला चुकावत हें
मोर  बीर  बहादुर  भारत  के  ,  जय - हिंद के गीत सुनावत हें

देखो फोटू मा बीर जवान अजी, एक लइका के प्रान बचावत हे
बैठे कोरा मा बाल गोपाल मानो, बसुदेव बबा संग आवत हें
दुनो बाँह पसारे जसोदा खड़े , नैना मैया के डबडबावत हें
देवलोक ले देख सबो देऊँता , फूल आसीस के बरसावत हें .

(शब्दार्थ : सूतत = सो रहे , उन = वे , जागत = जाग रहे , जाड़ घाम = ठंड धूप , मुचमुचावत हें = मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं , दाई ददा = माता पिता, कोनों किसिम के = किसी प्रकार की ,नरवा = नाला , डोंगरी = पहाड़ी , उहाँ = वहाँ , अगुवावत = आगे आना ,बइरी = बैरी ,खेदारत = भगाना )
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)

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श्री राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'

जीवन रक्षा पूर्व ही, क्या वो पूछे जात!

किस नदिया का जल पिया, कौन जुबां में बात?

 

धर्म-जाति-भाषा-परे, इक भारत की नीव,

माँ मै ऐसे ही करूँ, कष्ट मुक्त हर जीव. 

 

कहीं कोसने मात्र से, मिटा जगत में क्लेश,

ह्रदय द्रवित आये दया, हाथ बढ़ा 'राकेश'.

 

केवल वो सैनिक नहीं, वह भी बेटा-बाप,

सेवा की उम्दा रखी, दैहिक-नैतिक छाप.

 

बदन गला कश्मीर में, जलता राजस्थान,

कुर्बानी की गंध से, महका हिन्दुस्तान.  

 

खाकी वर्दी तन गयी, मिला आत्म विश्वास.

पूरी होगी कौम की, रक्षा वाली आस. 

 

सैनिक जैसी वीरता, माँगे भारत देश,

तन-मन-धन अर्पित करो, विनती में 'राकेश'.

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श्री आनंद प्रवीण

 

तेरी आँखे इतनी डरी-डरी सी, क्यों मुझको यूँ ताक रही है,
सहमे – सहमे ये होंठ तेरे, मेरे होते अब क्यों काँप रही है,.

भयभीत ना हो इन “असुरों” को, प्रत्युत्तर ऐसा मैं दूंगा,
प्रभावहीन कर शक्ति इनकी, सारे तेज़ को हर लूंगा,.

सुन तुझपे झपटे है “कुत्ते’, इक सरल शिकार बनाने को,
इस दिव्य धड़ा के नाश हेतु, घृणित संचार दिखाने को,.

तू बालक है वो सोच रहें, तू अल्प, विरल, बिखरा – बिखरा है,
है ज्ञात नहीं पर सच उनको, तेरे संग में एक फौलाद खड़ा है,.

मैं श्रेष्ट गुणों का स्वामी हूँ, मैं वेदों जितना जटिल भी हूँ,
चल हँस दे अब तू लाल मेरे, मैं “कृष्ण’ के जैसा कुटिल भी हूँ,.

अब तो तू समझ गया होगा, तू किसकी गोद में सोया है,
नन्ही – नन्ही इस उम्र में तू, मिथ्या चिंता में खोया है,.

अरे चिंता करने दे उनको, अधर्म पथों पे जो चलते है,
उलटे मार्ग पे चल – चल के, दुराग्रहों में जो पलते है,.

सौंपेंगे तुझे उन हाथों में, जो प्यार तुझी से करते है,
सच जान ले मेरे बारे में,  मौत से नाही हम डरते है,
हाँ तेरी सुरक्षा “हम करतें है”

दोहे

रक्षक रक्षण कर रहे, नहीं थकत है प्राण I

ओही करम में आपना, खोजत है सम्मान II १ II


बालक बोलिहे प्रेम से, तुम हो पिता समान I
हम थे विपदा में घिरे, कहाँ से आये महान II २ II.

 

माता सुन ये रो पड़ी, बोली हे दिव्यवदान I

करुना तुमसे क्या कहूँ, तुम तो हो भगवान् II ३ II

.कितना निष्ठुर हो समय, घटत नहीं पहचान I
समय बढ़ा बलवान है, तुम भी समय समान II ४ II

इन नन्हे प्राणों को तुम, अब दो ऐसा वरदान I
घिर आवे संकट कभी, कुछ आये देश के काम II ५ II

तुम चिंतक चिंता करो कर रहे, तुम को ना आराम I

शत-शत तुमको है नमन, ह्रदय से तुम्हे प्रणाम II ६ ई

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अम्बरीष श्रीवास्तव

(प्रतियोगिता से अलग)

आयी कैसी आपदा, छूट गयी थी आस.

मेरा बेटा था फँसा, टूट रही थी सांस..

 

गीली आँखें ताकती, तेरी राह सुधीर.

फैलाए  बांहें खड़ा, तन मन हुआ अधीर..

 

शूरवीर रणबांकुरे, भारत माँ के लाल.

लौटाया इस लाल को, अद्भुत किया कमाल..

 

धन्य-धन्य यह मुल्क है, धन्य फ़ौज का काम.

भारत माँ के लाल को, हम सब करें सलाम..

 

मन तो न्यौछावर हुआ, तन की क्या परवाह.

ऐसा जज्बा है कहाँ,  मुँह से निकले वाह..

 

तुमने सौंपा है मुझे, मेरा प्यारा लाल.

सौंपूंगा मैं देश को, अपने दोनों बाल..

 

कुर्बानी हो देश पे, दिल में ये अरमान.

जांबाजों से है भरा, अपना हिन्दुस्तान..

(प्रतियोगिता से अलग) 

तोटक छंद (१२ वर्ण )

सगण सगण सगण सगण

सलगा सलगा सलगा सलगा

११२ ११२ ११२ ११२

 

ख़तरा अब दूर, हुआ सपना|

यह सैनिक वीर, लड़ा कितना|

मुख राम सुनाम, अभी जपना|

लखि गोद मे बालक. है अपना|

कुंडलिया 

सेना अपने देश की, धीर-वीर-गंभीर.

अद्भुत इसका हौसला, बाँटे सबकी पीर.

बाँटे सबकी पीर, नहीं है निज की चिंता.

अपनाया है त्याग, तभी हर्षित है जनता.

अतुलनीय यह देश, इसे तन-मन दे देना.

रहें सुरक्षित प्राण, जहाँ हो अपनी सेना..

--अम्बरीष श्रीवास्तव

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श्री रघुविन्द्र यादव

दोहे
सेना हम पर कर रही. आये दिन उपकार/
बचा लिया मासूम को, दुष्ट दिए हैं मार//

हमला हो आतंक का, या हों बाढ़ अकाल/
सेना अपने देश की, राहत दे तत्काल//

संकट आये देश पर, देते हम बलिदान/
आफत अगर अवाम पर, सदा बचाते प्राण//

देख हमारा हौसला, संकट जाते हार/
लोगों की रक्षा करें, दुष्टों का संहार//

केवल सरहद के नहीं, रक्षक हम श्रीमान/
हर विपदा से जूझते, मिलते ही फरमान//

देकर निज बलिदान हम, बचा रहे हैं प्राण/
रहे सुरक्षित देश ये, बस इतना अरमान//

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श्री अरुण श्रीवास्तव

कुंडलिया –

सेना का बल देखकर , होता है अभिमान
संकट में जब देश हो , सदा बचाते प्राण
सदा बचाते प्राण , वीर तुम बढते जाओ
ले हाथों पर जान , सभी की जान बचाओ
देता हूँ आशीष , पराजय चरण गहे ना
तेरी जय जय कार , जियो भारत की सेना

हरने विपदा आ डटे , अडिग हौसले साथ

दीप सुरक्षित देश का , है  सूरज  के हाथ

है सूरज  के  हाथ , पोछते  भीगे  लोचन

कहती माँ की गोद ,नमन हे संकट मोचन

हो जब अरि से रार ,साजते हैं निज गहने

प्राण  बचाते  हाथ , प्राण लगते  हैं  हरने

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श्रीमती सीमा अग्रवाल

(प्रतियोगिता से बाहर) 

देश के शृंगार  हो तुम ,राष्ट्र ध्वज आधार हो 

जीत हो तुम प्रीत हो तुम,वीर रस भण्डार हो 

भारती के लाज  रक्षक ,मनुजता की शान हो 

गगन मंडल पर समर, के चमकते दिनमान हो 

 

(प्रतियोगिता से बाहर)

देश धर्म जिनका सदा  ,पूजा जिनकी प्रेम  l

ऐसे रन के बांकुरो, शत -शत नमन सप्रेम ll

 

जीवन फौजी का सदा .ज्यूँ अनुशासन बद्ध l

वैसे ही कविता रहे छंदों से आबद्ध  ll

 

देश धर्म जिनका सदा  ,पूजा जिनकी प्रेम  l

ऐसे रन के बांकुरो, शत -शत नमन सप्रेम ll 

 

केसरिया चोला पहन ,माटी गह निज माथl

मुस्काते रन में चले राष्ट्र ध्वजा  ले हाथ ll

 

जीवन फौजी का सदा .ज्यूँ अनुशासन बद्ध l

वैसे ही कविता रहे छंदों से आबद्ध  ll

 

जिन माओं के लाल तुम ,जिनका तुम पर हाथ l     

रज पद नत उनकी उठा,रखती हूँ सर माथ ll

 

(प्रतियोगिता से अलग)

स्त्री  हूँ इसलिए उसके मन की बात करना भी जरूरी है ...सरहद पर बैठे एक सिपाही की पत्नी की मनोदशा को बताने की कोशिश  की है इस कुण्डलिया छंद में .........

कैसे बोलूँ मै पिया ,तुमसे अपना हाल 

मन हो जाता बांवरा,हो हो कर बे हाल 

हो हो कर बेहाल, जलूँ हूँ जैसे बाती 

फिर भी है ये गर्व, सिपाहिन हूँ कहलाती 

दिखला दो वो चाल धार केसरिया ऐसे

फैला दो वो जाल ,बचेगा दुश्मन कैसे  

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डॉ० शाशिभूषण

माँ का आशीर्वाद साथ में, पितृ-स्नेह का तिलक लगाकर !
चट्टानों सी अटल प्रतिज्ञा, रग-रग में विश्वास जगाकर !
राष्ट्रप्रेम की बलिवेदी पर, अर्पित यह अनमोल जवानी !
हम हैं भारत माँ के रक्षक, हम हैं सच्चे हिन्दुस्तानी !!
.
मानवता के, आदर्शों के, सुसभ्यता और संस्कृतियों के !
भाई-बहनों के प्रहरी है, पक्के दुश्मन दुष्कृतियों के !!
हम ही शंकर प्रलयंकर हैं, हम ही हैं गीता की बानी !
हम हैं भारत माँ के रक्षक, हम हैं सच्चे हिन्दुस्तानी !!
.
भीषण संकट को छाती पर, सहने को तैयार खड़े हैं !
दुश्मन की राहों में दुर्गम, बन अभेद्य दीवार खड़े हैं !
प्राण रहे तो सुख भोगेंगे, या कहलायेंगे बलिदानी !
हम हैं भारत माँ के रक्षक, हम हैं सच्चे हिन्दुस्तानी !!

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श्री दिलबाग विर्क 

दोहे 

आफत आई जब कभी , आगे खड़े जवान |

इनके बलबूते सदा , भारत देश महान ||

 

खेले खुद की जान पर , बचा लिया मासूम |

था वर्दी का जोश ये , देश उठा है झूम ||

 

घनाक्षरी 

 

आफत में आगे आए , न कभी सर झुकाए

गोली छाती पर खाए , होता जो जवान है |

पहनी जो सीने पर , है देशभक्ति जगाए

बड़ी ही निराली यारो , वर्दी की शान है |

अमन बहाल रहे , ठीक सब हाल रहे

सैनिकों के बल पर , भारत महान है |

करना सलाम सभी , इनकी शहादत को

ये गौरव हैं देश का , इन पर मान है |

 

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श्री विन्धेश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

(चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता-12)

तोमर छंद(12-12 मात्रा)

इस देश का जवान।सारे जग में महान॥
देश रक्षा में तैनात।सारा दिन और रात॥
छोड़ अपना घर-द्वार।खड़ा सीमा के पार॥
भारत रक्षा प्रधान।इसको समर्पित प्रान॥
संग मनुजता पालन।लो मां अपना लालन॥
सर्वस्व देश को अर्पण।आजीवन यही प्रण॥

मदिरा सवैया(22 वर्ण)

यह वीर बरे रनधीर बरे,हैं पार खरे सरहद पे।
जे बैर करैं वे खैर करैं,तेहि मारि खदेरैं सरहद पे॥
है मीतन के ये मीत बरे,पर बैरि न छोरैं सरहद पे।
जेहि देश में ऐसे जवान रहें,क्यों लाल फंसै सरहद पे॥

घनाक्षरी छंद(31 वर्ण)

धरती की धीरता और वीरता है वायु की,
शूरता गम्भीरता सागर सम पाई है।
गिरि सम अटल भाव देश की सुरक्षा में,
जीवन के रात-दिन जिसने लगाई है॥
सोई भारती के लाल ने मनुजता को पालने,
किसी मां के प्यारे से लाल को बचाई है।
वीरता को देखि-देखि दुनिया तो दंग है,
मनुजता की रक्षा से वसुधा हरषाई है॥

 

दोहा-
भारत मां पर जब कभी,हुआ सत्रु संत्रास।
हरि आये नर रूप धरि,भारत का इतिहास॥

चौपाई-
(प्रत्येक चरण में 16-16 मात्रायें, चरण के अंत में गुरू वर्ण आवश्यक)

देस क वीर करैं रखवारी।ज्यों सुत को राखै महतारी॥
सहैं सीत औ सीतल पौना।अम्बर छत धरती है बिछौना॥1॥
दुर्गम मार्ग कठिन है जीना।किन्तु खड़े ये ताने सीना॥
भारत रक्षा लक्ष्य प्रधाना।चाहे रहै जाय या प्राना॥2॥
जब लग रहै सरीर म सांसा।वीर करैं बैरी कै नासा॥
हर विपदा में आवें कामा।सीस कफन केसरिया जामा॥3॥
देव करै या मनुज बनावे।चाहे जइसन आफति आवे॥
बैरी बाल क बंधक कीने।वीर बांकुरा जाय के छीने॥4॥
मन मा मोद मनहि मुस्काई।चले सौंपने गोंद उठाई॥
लो बालक पकरौ महतारी।सिरजौ सुत सनेह सम्भारी॥5॥
पोछौ आपन आंसू माता।हमरे रहत न चिंतक बाता॥
बालक मुदित वीरता भारी।बनि सैनिक हम कर्ज उतारी॥6॥

दोहा-
धन्य धन्य माइ तेरी,धन्य धन्य वह देश।
धन्य धन्य वसुधा सकल,गावै सेस गनेस॥

देख मनुजता की रक्षा,पुलकित हुआ जहान।
धन्य भारती सुत सभी,भारत देस महान॥

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श्री नीरज

प्रतियोगिता से अलग -------------        

 अपने घर की न कोई चिंता ,निज देश पे जान गवाय रहे.

निज देश की पूत कियो चिंता यहु दूधमुहें को बताय रहे.

कुछु प्यार दुलार मल्हार करैं ,लागे सरहद पर जाय रहे.

सुत नेह ते बढ़  कै फर्ज हियाँ कवि नीरज बात बताय रहे..

 

---मुक्तक---  

अगर कोई आपदा होती,तो राहत कार्य करते है. 

मिले गर राष्ट्र का द्रोही तो उस पर वार करते है.  

हमें है गर्व अपने देश के सैनिक जवानों पर,

जिन्हें हम प्यार से ज्यादा हमेशा प्यार करते है,[१]

वो रहते दूर अपनों से हजारो दुःख सहते है.

वो पी जाते हैं अश्कों  को किसी से कुछ न कहते है.

हमेशा मौत के साये रहते राष्ट्र के रक्छक,

बदौलत सैनिको की शांति से हम घर में रहते हैं..[२]   

 

 

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श्री मनोज कुमार सिंह 'मयंक'

तोप चलै,तलवार चलै,बन्दूक चलै, हम मरिबै नाय|

जब जब माई हमै पुकारी,हम दुसमन से लरिबै धाय|

खतरा होई मासूमन के,रौद्र रूप आपण देखाय|

पीस के रखि देबै कुत्तन के, दया तनिक भी करिबै नाय|

देख के पौरुष पर्वत काँपी, पवन देव के देब लजाय|

हमके इहै अशीष माई,राखि पुरखन नाक बचाय|

लैका के सुख होय भवानी,आपन कुल पुरखा तरि जाय|

अइसन ताकद दै उदनि के, पीढ़ीन क खतरा टरि जाय|

एक सलाई के काड़ीन से,जंगल कुल खांडव जरि जाय|

अक्षौहिणी कौरवन से एक कृष्ण,पांच पांडव लड़ी जाय|

एक चिरैया के चोचन से जे बाजन क झुण्ड तोड़ाय|

अइसन गुरु गोविंदा राखै,कार्तिक,भैरव राखै आय|

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श्री शैलेन्द्र कुमार सिंह 'मृदु'

कर्तव्य परायणता

(मालिनी छन्द)

बच्चे को सुरक्षित सौंपते हुए सैनिक मन ही मन कह रहा है कि .............................

.

अगति अब न होगी है सहारा तुमारा ,

वतन हित खड़ा है माँ दुलारा तुमारा .

.

चमन यह रहे माँ प्राण छूटें हमारे .

कुसुम सम खिलें आदाब टूटे हमारे.

.

सजग हम सदा हों आंख सोने न पाए ,

अरि अनगढ़ होके क्रूर होने न पाए .

.

प्रभु यह वर दो तासीर खोने न पाए ,

ललन जननियों से दूर होने न पाए..

.

.

अगति = दुर्दशा ,

आदाब = आचारण व्यव्हार के नियम ,

तासीर = प्रभाव ,

________________________________________

 

श्री मनोज कुमार सिंह ‘मयंक’  

जीना माटी के लिए, प्रेमोत्सव या जंग|

तीन रंग में एक है,देशभक्ति का रंग|

देशभक्ति का रंग,चढ़े चौचक और चोखा|

दे हम नल्ला तोड़,अगर दे कोई धोखा|

कह मयंक कविराय,पडोसी बड़ा कमीना|

मासूमों के लिए पहन कर खाकी जीना||

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श्री राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी'

घनाक्षरी

गोद बलवान ने बचाया प्राण आपदा मे

टोपी लाल लाल की लगाये चलो भारती.


हिंद के गुमान का है बदन चट्टान सम,
मान वीर रस का निभाये चलो भारती.  


वीरता के मान दंड आएँ कुछ हम में भी,
निबलों को बाँह मे उठाये चलो भारती.


धर्म कई वेश कई चाँद तारे फूल लागे,
भारती के चोले को सजाये चलो भारती.

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श्री संजय मिश्रा 'हबीब

 

दिल धडकता हर घड़ी मेरा वतन के वास्ते

जब तलक है सांस हूँ जिन्दा वतन के वास्ते

मैं अडिग पर्वत की भाँती आँधियों में हूँ खडा

अनछुई ऊँचाइयों से हौसला मेरा बड़ा

कब डरा पाई मुझे कह दुश्मनों की फ़ौज भी

शेर बन करके सियारों से अकेला मैं लड़ा

जिंदगी मेरी है इक तोहफा वतन के वास्ते         

जब तलक है सांस हूँ जिन्दा वतन के वास्ते

|

मैं सिपाही का हूँ बेटा है सिपाही लाल भी

भारती की गर्व हैं हम सरहदों की ढाल भी

खा कसम हम जान देदें देश के सम्मान पर

हम ही शीतल छांव हम ही जगमगाते भाल भी

हर कदम उठता सदा सीधा वतन के वास्ते  

जब तलक है सांस हूँ जिन्दा वतन के वास्ते

आप लौटो काम से लब पे मधुर गाना लिए

आप सोवो चैन से बादल का सिरहाना लिए

देश की चिन्ता उठाने मैं खडा हूँ रात दिन

मृत्यु से भी मैं मिलूं हंसता सा अफ़साना लिए  

आप भी रखिये बना एका वतन के वास्ते 

जब तलक है सांस हूँ जिन्दा वतन के वास्ते

 

कुण्डलिया.(प्रतियोगिता से अलग)

|

(1)

आये विपदा आपदा, कैसी भी घनघोर 

अपने हाथों थाम लूं, मैं रक्षा की डोर 

मैं रक्षा की डोर, लगा बाजी जीवन की 

कहीं थमे ना पाँव, शपथ है मुझे वतन की 

बिटिया बहना मातु, बैठते आस लगाये

मैं ले आऊं भोर, अरुण आये ना आये

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(2)

सीमा हूँ मैं देश की, जागूं रजनी - भोर

किसमें शक्ति देखे जो, भारत माँ की ओर

भारत माँ की ओर, उठूँ बन उत्कट लहरें

भागें लेकर जान, कहाँ दुश्मन फिर ठहरे 

कभी पार्थ की बाण, कभी बन जाऊं भीमा 

और रखूं निर्बाध, सकल भारत की सीमा 

संजय मिश्रा 'हबीब' 

________________________________________

श्री शैलेन्द्र कुमार सिंह 'मृदु'

वीर छन्द   (३१ मात्रा)

(१६ मात्रा पर यति और १५ मात्रा पर पूर्ण विराम रहता है , चरण के अंत में एक गुरु एक लघु (२ १ ) होना आवश्यक है.)

 

देश प्रेम की अमिट निशानी,

सीमा पर है खड़ा जवान.

प्रेम पाठ पढ़वा दे अरि को,

प्यारे भारत का बलवान .. 

**************************

रण में बब्बर सिंह बन जाते,

दुश्मन  छोंड़  भगें  मैदान .

बिछड़े सुवन मिलाने हित ये,

कर  देते खुद  को  बलिदान..

***************************

आज निभाई फिर परिपाटी ,

करता मैं तुम पर अभिमान.

शिशु रक्षा कर सौंपा पितु को,

सभी  पिता  देते  हैं    मान .

**************************

 

मनहरण घनाक्षरी ( ३१ वर्ण )

(१६ और १५ पर यति होती है चरण के अंत में गुरू  होता है )

**********

देख के ये चित्र मित्र भावना विचित्र बनी,

सैनिकों की आन बान देश की ऊंचाई है .

सीमा पार का अबोध शिशु सीमा पार आया,

जान देखो आज अरि पुत्र की बचाई है .

अनुक्षय होने नहीं दिया देश स्वाभिमान,

बलिदान ने तुम्हारे रचना रचाई है.

कैसे मैं करूँ बखान इनकी उदारता का,

अपने लहू से बाग प्रेम की सिंचाई है..

_______________________________________

श्री दुष्यंत सेवक

कुछ दोहे

१.विपदा जैसी भी रहे, कर्मवीर तैयार |

    मानव की सेवा करै, दुश्मन का संहार ||

२. थर थर काँपे धारिणी, नदिया छोड़े तीर |

    राहत और बचाव में, सदा अग्रणी वीर ||

३. अरिमर्दन को हैं डटे, भारत माँ के पूत |

    मन साहस की खान है, तन में शक्ति अकूत ||

४. दीवाली होली गई, सीमा पर ही बीत |

    क्रिसमस राखी ईद की, वहीँ निभाई रीत ||

५. हिम आच्छादित श्रृंग या, मरु की तपती रेत |

    प्रहरी ये प्राचीर के, रहते सदा सचेत ||  

 

सेना के जवान सारे, देश के सपूत प्यारे, देशसेवा करने को, सदा ही तैयार हैं

दुश्मन ऑंखें उठाता, सीमायें जो लाँघ जाता, सबक सिखाते उसे, करते ये वार हैं

प्रकृति जो करे क्रोध, भूचाल से काँपे धरा, संकट मोचक बन, लेते अवतार हैं

तज परिवार घर, खुद हुए न्योछावर, भारत माता की जय, इनके उद्गार हैं 

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श्रीमती नीलम उपाध्याय 

हम सिपाही देश के

सारा देश मेरा गॅाव

मेरे लिये एक जैसे

क्या धूप और क्या छाँव  .

 

ठान लिया जो एक बार

 पीछे नहीं देखते

कदम कदम मिलाकर

आगे ही आगे बढ़ते

 

सर्दी हमें कॅपाए नहीं

धूप भी तपाए नहीं

तूफान तक डराए नहीं

फर्ज पर डट रहें

 

जंग लड़ें जी जान से

टूट पड़ें दुश्मन पर

खुद की परवाह नहीं

डटे रहें सीमा पर

 

वो देश के लिये जिएॅ

वो देश के लिये मरें

उनकी कुरवानी पर

सलाम हम उन्हें करें

 

घर की याद उन्हे भी आती होगी
उनकी आँखे भी नम होती होगी
दो पल उन यादो को संजोकर
नयन पोंछ मुस्कुरा पड़े है

दुश्मन की गोली सिने पर खाई
कतरा कतरा लहू है बहता
आखरी लम्हो में भी कहता
विजयी हो मेरी भारत माता

भारत मा का भी हृदय हिलता है
जब उसका कोई बेटा गिरता है
मर कर भी जो अमर रहता है
ज़माना उन्हे शहिद कहता है.।

__________________________________

श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

कुंडली

(प्रतियोगिता से बाहर)

मेरे रहते हो सके, एक न बाँका बाल

बिन भय माँ के पास जा, ओ भारत के लाल

ओ भारत के लाल, लौह की है यह छाती

टकरा शिला विशाल, तुरत चूरा बन जाती

लेकिन यह भी सत्य, कहूँ कानों में तेरे

फूलों जैसा एक, हृदय सीने में मेरे

_______________________________________

डॉ० शशिभूषण

(प्रतियोगिता हेतु)
.
हम ताण्डव, गांडीव, प्रलय हम कालकूट हैं !
महाकाल विकराल शम्भु के जटा-जूट हैं !
हम राणा की शान शिवा का तेज दुधारा !
परशुराम का परशु, गरल के तीक्ष्ण घूँट हैं !
.
झंझा के सम्मुख बनकर चट्टान पड़े हैं !
अरि का शोणित पीने को तैयार खड़े हैं !
हम भारत के सैनिक हैं, दिनरात सजग हैं,
विकट परिस्थितियों में बन दीवार अड़े हैं !

____________________________________

श्री लाल बिहारी लाल 

फौजी का तो फर्ज है,रक्षा करे हर हाल।

सीमा हो या अन्य कहीं,चुके नहीं वे लाल।।

लाल बिहारी लाल,नई दिल्ली-44

________________________________________

डॉ० ब्रजेश कुमार त्रिपाठी

वर्दी में जो दिख रहा, धीर-वीर- गंभीर

सीने पर उसके दिखी भारत माँ प्रति पीर

जलता-गलता रातदिन किन्तु निभाए आन

दुनिया भर में इसीसे     बढ़े देश की  शान

युद्ध काल में, शांति में, आफत-विपत समान

पूर्ण करे सब काज वह   लिए  हथेली जान 

बच्चों संग वह खेलता, है साहस के खेल

खेल खेल में ही बढ़ा     रहा निरंतर मेल

__________________________________________

श्री मुकेश कुमार सक्सेना

 

एक फौजी की वेदना फौजी पाए जान.

और न कोई कर सके उसकी व्यथा बयान.

उसकी व्यथा बयान न जिसके पैर विबाई

वोह क्या जाने लोगो पीर पराई .

कड़कड़ पड़ती ठण्ड लोग विस्तर में होते.

मीठी मीठी नींद सहज सपने संजोते.

फौजी अपनी बंदूकें कंधो पर ढोते.

रात रात भर जागते, लोग घरों में सोते.

 

गर्मी की हो धुप न फौजी व्याकुल होता.

सर्दी में भी नहीं फौजी कभी चैन से सोता.

न घर न परिवार न कोई साथी होता .

संगीनों का विस्तर  कफ़न ओड़ कर सोता.

सूनसान सी राह अकेला फौजी होता.

तब चुपके से तन्हाई में फौजी रोता .

 

आज बताऊँ बात बड़ा ही मै मनमौजी .

भेद खोल देता हूँ मै भी हूँ एक फौजी.

___________________________________________

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Replies to This Discussion

पटल पर आयोजित इस प्रतियोगिता की सभी रचनाएँ प्रस्तुत हुई हैं. कहना न होगा, सनद की भांति सापेक्ष हैं.

आदरणीय अम्बरीष भाईजी, आपके भगीरथ प्रयास को सादर नमन.

सभी की रचनायें बहुत सुंदर..पढ़कर आनंद आ गया. 

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