For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

थाल किरणों का सजाकर

भोर देखो आ गयी

रात भी थक-हारकर

फिर जा क्षितिज पर सो गयी

 

चाँद का झूमर सजा

रात की अंगनाई में

और तारे झूमते थे

नभ की अमराई में

चाँदनी के नृत्य से

मदहोशियाँ सी छा गयी

तब हवा की थपकियों से

नींद सबको आ गयी

 

सूर्य के फिर आगमन की

जब मिली आहट ज़रा

जगमगाया आकाश सारा

खिल उठी ये धरा

छू लिया जो सूर्य ने

कुछ यूँ दिशा शरमा गयी

सुर्ख उसके गाल देखे,

हर कली मुस्का गयी

 

ज़िन्दगी भर स्याह्पन

हम साथ में ढोया किये

लालचों के भँवर में

हम भाव हर खोया किये

खिल उठी संवेदनाएं

रौशनी यूँ छा गयी

इक नयी फिर आस लेकर

भोर, लो, यह आ गयी

                - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

 

Views: 789

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by बृजेश नीरज on October 3, 2013 at 8:24pm

आदरणीय सौरभ जी, कुछ शब्द, सच कहूं तो, छूट नहीं गए बल्कि ढूंढें नहीं मिले. अपने चुने शब्द कभी-कभी इतने हावी हो जाते हैं कि नए शब्द अपनी जगह नहीं बना पाते. ऐसे में ही एक मार्गदर्शक की जरूरत होती है जो शब्दों के मोह से बाहर निकाल सके. 

आपकी बात का उत्तर सबको देना चाहिए यहाँ ! 

मैं अपनी बात कहूं तो मेरे लिए ये मंच और आप कितना महत्व रखते हैं ये मैं महसूस ही कर सकता हूँ, व्यक्त नहीं कर सकता. मेरे भावों और शब्दों को इस मंच और विशेषकर आपने जो स्वरुप दिया है, उसी की देन है कि मेरा रचनाकार आज साँसे ले पा रहा है!

आपको नमन!

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 7:39pm

यही मैं आपसे सुनना चाहता था, भाई बृजेशजी, कि आपने इस मात्रिकता या वर्ण-निर्वहन को अनायास होने दिया है या आपका यह आग्रही प्रयास था.
सुन कर अच्छा लगा कि आपने इसे मात्रिकता और वर्णिकता पर साधा है.
फिर ऐसे कैसे कई शब्द छूट गये थे कि पदों का कुल वज़न ही गड़बड़ा रहा था ?


मैंने जो सुझाव और परिवर्तन किया है वो समीचीन लगे हैं या नहीं ?

 

 
इसी पर एक और बात आपसे... और आपके माध्यम से भी.. ..

क्या मेरे वैचारिक या कथ्यात्मक या व्याकरण सम्बन्धी सुझाव अथवा रचना में किये गये परिवर्तन आपको आपकी व्यक्तिगत सोच, आपकी वैयक्तिक वैचारिकता, आपके नितांत अपने शब्द और उनके चयन, आपके स्व-अनुभूत तथ्यों आदि पर कोई अतिक्रमण तो नहीं लगते ? कि, सौरभ के इस तरह के सुझावों से एक रचनाकार के तौर पर रचनाकारों का कुछ रह ही नहीं जाता ? स्पष्ट बताइयेगा.

क्योंकि आपके प्रस्तुत गीत पर जो परिवर्तन (?) हुए हैं, उसमें आप ही एक रचनाकर के तौर पर दिखते हैं न कि मैं !
लेकिन व्यवस्था सही होने से रचनात्मकता प्रभावी हुई ऐसा मुझे प्रतीत होता है.
आप बेलाग कहियेगा.
शुभ-शुभ

Comment by बृजेश नीरज on October 3, 2013 at 5:14pm

आदरणीय सौरभ जी, इस गीत को मैंने २१२२, २१२२, २१२२, २१२ पर लिखने का प्रयास किया था. लेकिन कहीं-कहीं अटक गया. और अटका भी ऐसा कि निकलने का रास्ता नहीं सूझ रहा था. प्रयास मैंने बहुतेरे किया कई दिन और कई बार.

ये भी सही है कि कई बार मैं वास्तव में उकताकर रचना को ज्यों का त्यों छोड़ ही देता हूँ. इस कमी को दूर करने का प्रयास कर रहा हूँ. शायद आपको आगे की रचनाओं में ऐसा आभास न हो.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 10:07am

नहीं, यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ बृजेश भाई. आप मेरे प्रश्न पुनः ग़ौर करें. यदि ध्यान दें तो उस प्रश्न का अपना महत्व है.

शुभेच्छाएँ

Comment by बृजेश नीरज on October 3, 2013 at 6:46am

आदरणीया गीतिका जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on October 3, 2013 at 6:44am

 आदरणीय सौरभ जी, आपका हार्दिक आभार! आपने जो संशोधन किये हैं वही उचित हैं. 

सच यही है कि मैंने उकताकर ही इसे इस रूप में ही पोस्ट कर दिया था. दरअसल, बहुत प्रयास के बाद भी उन जगहों पर संशोधन मुझे सूझ नहीं रहे थे. या ये भी हो सकता है की मेरे शब्द दिमाग में कुछ यूँ रच-बस गए कि नए शब्द जगह नहीं बना सके.

आपका एक बार फिर हार्दिक आभार!

सादर!

Comment by वेदिका on October 3, 2013 at 2:29am

बहुत सुंदर नवगीत!! बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश भाई जी!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 2:10am

आप मेहनत करते हैं साफ दिखता है.

लेकिन, बृजेशभाईजी, अपनी मेहनत से आप अचानक खुद ही उकता जाते हैं ! क्यों भई ? 
इतने सुन्दर नवगीत/गीत को आपने जिस विन्यास में बाँधा है यदि उसे साझा करें तो आगे विशेष उचित होगा.

वैसे अपनी समझ के अनुसार, मैं आपके प्रस्तुत गीत के विन्यास को जैसा समझ पाया हूँ, उसके अनुसार आपकी रचना को पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ. बताइये क्या यह अधिक उचित नहीं होता ?

थाल किरणों का सजाकर

भोर देखो आ गयी
रात अलसायी बढ़ी

पच्छिम क्षितिज पर छा गयी

चाँद का झूमर सजा था

रात की अंगनाई में
और तारे

झूमते थे

नभ की उस अमराई में
चाँदनी के नृत्य से

मदहोशियाँ सी छा गयीं
तब हवा की

थपकियों से

नींद सबको आ गयी

सूर्य के फिर

आगमन की

जब मिली आहट ज़रा
जगमगाया था गगन

खिल-खिल उठी थी ये धरा
छू लिया ज्यों सूर्य ने

कुछ यों दिशा शरमा गयी
सुर्ख उसके गाल, जैसे,

हर कली मुस्का गयी

ज़िन्दगी भर

स्याहपन हम

साथ में ढोया किये
लालचों की घुर्रियों में

भाव हर खोया किये
जग गयी संवेदनाएं

रौशनी यूँ छा गयी
इक नयी-सी आस लेकर

भोर, लो ..

फिर आ गयी
 
कविता के निहितार्थ पर कुछ नहीं कहूँगा. कविता सकारात्मकता और उल्लास के स्वर से पगी है और उसके लिए बार-बार बधाई.. .
शुभेच्छाएँ

Comment by बृजेश नीरज on October 1, 2013 at 5:14pm

आदरणीया राजेश जी आपका हार्दिक आभार! आपका आशीष मेरी रचना को मिला, मैं धन्य हुआ!

Comment by बृजेश नीरज on October 1, 2013 at 5:13pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार!

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post साथ करवाचौथ का त्यौहार करके-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, करवा चौथ के अवसर पर क्या ही खूब ग़ज़ल कही है। इस बेहतरीन प्रस्तुति पर…"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

साथ करवाचौथ का त्यौहार करके-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ **** खुश हुआ अंबर धरा से प्यार करके साथ करवाचौथ का त्यौहार करके।१। * चूड़ियाँ…See More
6 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आदरणीय सुरेश कुमार कल्याण जी, प्रस्तुत कविता बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण हुई है। एक वृद्ध की…"
7 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-179

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर left a comment for लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार की ओर से आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं।"
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद। बहुत-बहुत आभार। सादर"
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आदरणीय गिरिराज भंडारी सर वाह वाह क्या ही खूब गजल कही है इस बेहतरीन ग़ज़ल पर शेर दर शेर  दाद और…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .इसरार
" आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय जी…"
Tuesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आपकी प्रस्तुति में केवल तथ्य ही नहीं हैं, बल्कि कहन को लेकर प्रयोग भी हुए…"
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .इसरार
"आदरणीय सुशील सरना जी, आपने क्या ही खूब दोहे लिखे हैं। आपने दोहों में प्रेम, भावनाओं और मानवीय…"
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post "मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए शेर-दर-शेर दाद ओ मुबारकबाद क़ुबूल करें ..... पसरने न दो…"
Monday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)
"आदरणीय धर्मेन्द्र जी समाज की वर्तमान स्थिति पर गहरा कटाक्ष करती बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने है, आज समाज…"
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service