सादर वन्देआदरणीय सुहृद वृन्द!
देश में गरीबी-उन्मूलन के नारे कितने भी गुंजार रहे हों लेकिन ग्रामांचलों की निर्धनता से तो आप सभी परिचित ही होंगे। कई बार होता ये है कि ग्रामीण समाज में जो सक्षम होते हैं अथवा यूँ कहें कि जो समाज के प्रतिनिधि होते हैं उनमें स्वयं को 'पालक' कहलाने की इच्छा इतनी बलवती होती है कि दुर्बल लोगों की सहायता की एक सीमा बांध देते हैं,यहाँ तक उनके पूर्ण अधिकार (जो सरकार द्वारा प्रदत्त हैं) भी उनतक नहीं पहुंचाते। इसी के चलते गरीब जनता इस सहायता को अपना अधिकार न समझ अभिजात्य वर्ग की दया समझने लगते हैं, क्योंकि यथास्थिति को जानते हुए भी उनमे आवाज उठाने का आत्मविश्वास नहीं रह पाता यदि आत्मविश्वास होता भी है तो उनकी कोई सुनता ही नहीं। आज समाज में जिसकी लाठी उसी की भैंस' है। इसी तरह की थोपी गरीबी को ढोते-ढोते इनमें से कई लोगों की आत्मा भी दुर्बल होती जाती है कि दूसरों की सहानुभूति की बाट जोहते रहते हैं। सहानुभूति की आस में सक्षम वर्ग की हाँ-हुजूरी करते अपना अस्तित्व भी उन्हें समर्पित कर देते हैं।
इनसे हट के भी कुछ निर्धन जन ऐसे भी मुझे समाज में दिखे,जिन्होंने 'निर्धनता' को प्रारब्ध समझ स्वीकार किया। किसी की सहानुभूति की कोई आस नहीं, ईश्वर में अटल विश्वास ही विसंगत अधेरी राहों में उनके लिए रोशनी है। शोषण हुआ तो 'प्रभु तुम देखना' और कुछ अच्छा हुआ तो 'प्रभु तुम्हारी बाहें बहुत बड़ी हैं' सोच सदा पूर्ण संतुष्ट रहते हैं। न प्रभु से कोई अपेक्षा न किसी से,कर्तव्य से विमुखता तो किसी भी स्थिति में नहीं। ऐसे व्यक्ति की दिव्य आत्मा की लौ चर्म-चक्षुओं से तो जल्दी नहीं दीखती परन्तु हृदय से देखने पर उनकी अखण्ड मुस्कान में एक रक्षा कवच सा उनके पास स्पष्ट दीखता है।
ऐसा ही संघर्ष शील एक व्यक्तित्व है,कुंदन। जिन्हें हम गरीब तो कह ही नहीं सकते क्योकि- 'श्रीमाश्च्को यस्तु समस्त तोषः'। लेकिन भौतिक संसाधनों से अत्यंत वंचित। इन्हीं कुंदन पर आधारित एक सत्य-कथा लिखने का प्रयास किसी से प्रेरित हो कर किया था। अज्ञानतावश कथा में नाम वही के वहीकर दिए थे,इस अज्ञानता का फल इतना मीठा होगा...सोचा भी नहीं था।
हुआ ये आदरणीय मित्रों जिन महानुभाव से प्रेरित होकर कथा लिखी थी,उन्हीं से साझा करने का मन हुआ। उन्होंने मेरे गाँव के विषय में कुछ जानने की जिज्ञासा भी जताई थी। उस सत्य-कथा से उन संत-हृदय महानुभाव का हृदय इतना पिघला की कुंदन के बारे में और जानकारी जुटा सहायता का हाथ बढ़ाया। परन्तु कुंदन जी अनायास ही किसी सहायता तो स्वीकार नहीं करते(क्योंकि उनके बच्चे मेरे छात्र रहे हैं,कभी उनकी दैनीय स्थिति देख छोटी-मोटी सहायता कर भी दी तो कुंदन ने हाथ जोड़कर मुझसे कहा-'बच्चों की आदत तुम तो न खराब करो,भगवान ने जितना दिया उतने में ही उन्हें रहना सिखाओ)। अब इसके आगे क्या था' फिर भी उन्होंने बड़े प्रयास के बाद समझ ही लिया कि यह सहायता,जो उन्हें विदेश की धरती से यहाँ सुलभ होने वाली है,वह भी एक प्रारब्ध ही है,ईश्वर की कृपा है...कुंदन ने स्वीकृति देदी।
इस दौरान लम्बी चर्चा के बाद निर्धारित किया गया कि कुंदन को प्रति माह ₹2000 की सहायता दी जाएगी। जिन महात्मा ने यह दायित्व अपने ऊपर लिया है उन्होंने कहा-'यह कुंदन जी के लिए कोई खैरात नहीं होगी,बल्कि यह
( स्वीकार करना)उनका(कुंदन) हमारे ऊपर उपकार होगा।
बताते हुए मैं बहुत गदगद हूँ कि अगले 15 माह हेतु मेरे account में ₹30,000+ प्राप्त हो गये है,और एक बार कुंदन को दिए भी जा चुके हैं।
कुंदन जी ने पैसे लेते समय मुझसे कहा था-'बिटिया,मेरा मुंह तो बोल नहीं पाता आत्मा ही बोलती है,लेकिन यदि यह भगवान का विधान है तो सबको खूब
बताना,गुणगान करना।' यही वो वचन हैं जिनसे मैं यह लेख प्रस्तुत करने को प्रेरित हुई।
वास्तव सहायता करने वाले कोई और नहीं इसी मंच के चिर-परिचित सदस्य हैं, जिन्होंने मेरी लेखनी पर इतना विश्वास किया। नाम जानना चाहेंगे?यह धनराशि मात्र धनराशि नहीं बल्कि...विश्वास,सम्वेदना,करुणा,आदि अनेक मानवीय गुणों का समन्वय है। कुंदन के लिए ईश-साक्षात्कार तो मेरी लेखनी को विशेष पुरस्कार और...उन महानुभाव के विशाल हृदय का परिचय।
इस विजय में कहीं 'स्वार्थ', 'लोकप्रियता' या 'मैं' की कोई भी प्रतिध्वनि नहीं..
नीरव, लेकिन आत्म-संतुष्टि बिलकुल कुंदन सी। (मौलिक/अप्रकाशित)
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यह विश्वास,सम्वेदना,करुणा,आदि अनेक मानवीय गुण सभी आपके ही हैं।
आपके कर कमलों को नमन। सब विधाता का विधान है।
सुखी रहें, आदरणीया विंदु जी, अपने सुमार्ग से औरों को प्रेरित करती रहें।
सादर,
विजय निकोर
आपकी उदारता को बारम्बार प्रणाम है...नमन है...वन्दन है परम आदरणीय विजय सर।
वो आप ही तो हैं आदरणीय जिनका लेख में अभी नाम नहीं लिखा था.
सादर... सादर
शुभ शुभ
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