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मग बुहारूँ जग निहारूँ प्रीति ढालूँ

मग बुहारूँ जग निहारूँ प्रीति ढालूँ 

(मधु गीति सं. १५९७, दि. ३१ दिसम्वर, २०१०) 

 

मग बुहारूँ जग निहारूँ प्रीति ढालूँ, त्राण तरजूँ मनहि बरजूँ प्राण परसूँ; 

श्याम हैं मधु राग भरकर गीत गाये, प्रीति की भाषा लिये मुरली बजाये. 

 

मैं निहारूँ जब कभी ब्रज के मधुर नर, पशु पक्षी लता गुल्मों के सहज उर; 

हर कली है कृष्ण की बातें सुनाती, प्रेम की जो नजर पायी वह दिखाती. 

उमगता अणु कथा अपनी सुना जाता, दिव्य होता दीख जाता मन सुहाता; 

द्योतना की हर कड़ी दीप्तित उभरती, उचटती आभा प्रभा बिखराती चलती.

 

मैं कोई भी चित्र हूँ ना बना पाता, कवित की कलियाँ कहाँ मैं जुटा पता; 

लख रहा जो नृत्य उसके इस चमन में, सरस लय है रास लीला के ललित में. 

कड़ी मुझको कोई है थिरका सी जाती, लड़ी कोई उन्मनी सी उर रिझाती; 

मार्ग की हर धूल से मैं परागित हूँ, 'मधु' की हर भूल से मैं जागरित हूँ. 

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 2, 2011 at 7:24pm

मैं कोई भी चित्र हूँ ना बना पाता, कवित की कलियाँ कहाँ मैं जुटा पता; 

लख रहा जो नृत्य उसके इस चमन में, सरस लय है रास लीला के ललित में.  

 

वाह वाह बहुत ही सरल प्रवाह मे रची गई यह रचना बेहद खुबसूरत बन पड़ा है | बहुत बहुत धन्यवाद कृष्ण और राधा के प्रेम को महसूस करने हेतु |

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