एक समय था जब हिन्दी साहित्य पर पाश्चात्य साहित्य के प्रभाव को लेकर विद्वानों में बड़ी बहस हुयी I यह माना गया कि हिन्दी में छायावाद अंग्रेजी साहित्य से आया I नए प्रतीक, लाक्षणिकता, बिम्ब, चित्रोपमता आदि प्रभाव इंग्लिश साहित्य की देन माने गए I बहुत से प्रख्यात हिन्दी विद्वान इस अंधी मान्यता की धारा में बहते नजर आये I किन्तु भारतभूषण अग्रवाल और दिनकर जैसे कवि इस मान्यता के विरोध में थे I हिन्दी जिसका व्याकरण संस्कृत भाषा के व्याकरण से छन कर आया है I जहाँ शब्द, ध्वनि, रीति, वृत्ति, गुण, शब्द-शक्ति ,रस, छंद एवं अलंकार पर ऐसे सूत्र ग्रन्थ हो जिनको समझने हेतु पृथक से भाष्य-ग्रंथ रचना आवश्यक हो जाय, ऐसे समृद्ध साहित्य पर अंगरेजी के साहित्य का प्रभाव पड़ना अतिशयोक्ति कथन प्रतीत होता है I जब दो भाषाये एक दूसरे के संपर्क में आती है तो उनके कुछ शब्द एक दूसरे में मिल जाते है I भाषा -विज्ञान के अनुसार यह शब्द-भंडार की समृद्धि के लिए एक स्वाभाविक एवं आवश्यक प्रक्रिया है I किन्तु यह साहित्य का प्रभाव नहीं है I इसी प्रकार रोमांटिसिज्म यह भारत के लिए कोई अजूबी चीज नहीं थी I जयदेव के गीत-गोविन्द से बढ़कर साहित्यिक रोमांस अन्यत्र कहाँ मिलेगा I अंग्रेजी का बस इतना ही प्रभाव् पड़ा कि हिन्दी साहित्य में जो प्रवृत्तियां सोयी हुयी थी वह एकाएक जाग्रत हो गयीं I इस प्रकार एक प्रछन्न सा प्रभाव हिंदी पर अवश्य पड़ा I
प्रायशः छायावाद-युग में ही अंगरेजी साहित्य के प्रभाव से हिंदी साहित्य के अंतर्गत तीन नये अलंकार (Figures of speech ) स्वीकार किये गए I इनके नाम निम्न प्रकार है I
अंगरेजी के अलंकार हिन्दी में इनका नामकरण
1 – Personification मानवीकरण
2 – Transferred epithet विशेषण विपर्यय
3 – Onomatopoeia ध्वन्यर्थ व्यंजना
अंगरेजी में एक और अलंकार है - Apostrophe I इसे हिन्दी में अलंकार के रूप में नहीं स्वीकार किया गया क्योंकि हिंदी व्याकरण में Apostrophe यानि कि संबोधन ‘कारक’ में उपलब्ध है और इसका उपयोग भी उसी भांति होता है जैसा अंगरेजी में Apostrophe अलंकार का होता है I अर्थात, संबोधन या विस्मयबोधक शब्द यथा- आह ! वाह i अरे ! अद्भुत ! हे ईश्वर ! आदि I
अंग्रेजी से हिन्दी में जो अलंकार मान्य रूप से आए उनमे Personification का स्थान सर्वोपरि है I अंग्रेजी में इसकी परिभाषा निम्न प्रकार है –
Personification is a figure of speech in which a thing, an idea or an animal is given human attributes. The non-human objects are portrayed in such a way that we feel they have the ability to act like human beings. For example, when we say, “Opportunity knocks at the door but once.” we are giving the opportunity the ability to knock at the door, which is a human quality. Thus, we can say that the opportunity has been personified in the given sentence.
अर्थात, मानवीकरण एक अलंकार है जिसमे किसी वस्तु, विचार या पशु को मानव होने का श्रेय दिया जाता है I इसमें एक अमानव पदार्थ को इस भांति चित्रित किया जाता है कि मानो उसमे मनुष्य की तरह कार्य करने की योग्यता है I उदाहरण के लिए जब हम कहते हैं कि ‘अवसर दरवाजे पर दस्तक देता है पर केवल एक बार I’ यहाँ हम अवसर को दस्तक देने की क्षमता प्रदान कर रहे है जो एक मनुष्य की क्षमता है I इस प्रकार हम कह सकते है कि इस वाक्य में अवसर का मानवीकरण किया गया है I
मालिक मुहम्मद जायसी ने ‘नागमती विरह वर्णन ‘ के अंतर्गत लिखा है- “पुनि-पुनि रोव कोउ नहीं डोला I आधी रात विहंगम बोला II” इसी प्रकार कबीर कहते है – ‘दिवस थका साई मिल्यो पीछे पडी है रात I’ यह मानवीकरण उस समय का है जब अंग्रेज इस देश में आए ही नहीं थे I सैयद इब्राहीम ‘रसखान’ की कविताओ में भी मानवीकरण के ऐसे अनेक उदहारण मिलते है और यह सभी कवि भारत में अंगरेजी राज्य की स्थापना से काफी पहले के है I अतः यह अवधारणा कि अंगरेजी का हिन्दी साहित्य पर विशेष प्रभाव पड़ा अधिक सत्य प्रतीत नहीं होता I हाँ हम यह अवश्य कह सकते है कि अंग्रेजी के प्रभाव से हिन्दी साहित्य की सोई प्रवृत्तियां एकाएक जाग्रत हो गयीं I रसखान कहते है - बैरिनि वाहि भई मुसकानि जु वा रसखानि के प्रान बसी है I’ इसमें मुस्कान को बैरिन कहा गया है I
बैरी कोई अचेतन नहीं हो सक्ता अतः यहाँ पर मानवीकरण है I इसी भांति रसखान की काव्य पंक्ति ‘वहि बाँसुरि की धुनि कान परें कुलकानि हियौ तजि भाजति है I‘ तथा ‘व्याकुलता निरखे बिन मूरति भागति भूख न भूषन भावै I’ में भी मानवीकरण है I छायावादी कवियों में तो मानवीकरण के प्रति विशेष आग्रह सदैव रहा है I प्रसाद के ‘आंसू’ काव्य का पंक्तिया निदर्शन स्वरुप प्रस्तुत है –
देखा बौने जलनिधि का
शशि छूने को ललचाना I
वह हा–हाकार मचाना
फिर उठ–उठ कर गिर जाना I
‘दिनकर‘ का एक अतीव सुन्दर मानवीकरण बानगी के रूप में द्रष्टव्य है –
धूप का ऐसा तना वितान
अँधेरा कठिनाई में फंसा I
मिला जब उसे न कोई ठौर
मनुज के अन्तर में जा बसा II
विशेषण-विपर्यय (Transferred epithet ) दूसरा अलंकार है जो अंगरेजी साहित्य से हिंदी में आया, ऐसी मान्यता है I अंग्रेजी में इसे निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है –
In this figure of speech , an epithet is transformed from its proper word to another that is closely associated with that in the sentence . For example- He passed sleepless night .
अर्थात, इस अलंकार में किसी उपनाम (यहाँ पर विशेषण) को उसके उचित विशेष्य से अंतरित कर दूसरे शब्द से जोड़ दिया जाता है जो वाक्य में उसके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखता हो I सामान्य शब्दों में कहें तो यह कि एक स्वाभाविक विशेषण को अस्वाभाविक विशेष्य में लगा देना I जैसे – उसने नींद रहित रात गुजारी I यहाँ पर नींद रहित व्यक्ति है पर वाक्य से ऐसा लगता है मानो रात स्वयं निद्रा विहीन हो I
हिन्दी साहित्य में पन्त, निराला, महादेवी, प्रसाद इत्यादि कवियो ने विशेषण-विपर्यय का बहुलता से प्रयोग किया है I इनमे जिन अप्रत्याशित विशेषण-विशेष्यो का प्रयोग हुआ है उनमे से कुछ इस प्रकार है – स्वप्निल-मुस्कान, मृदु-आघात, मूक-कण, भग्न-दृश्य , नीरव-गान, तन्वंगी-गंगा, गीले-गान, मदिर-बाण, मुकुलित-नयन, सोई -वीणा इत्यादि I प्रसाद ने ‘आंसू’ काव्य का प्रारंभ निम्नांकित छंद से किया –
इस करुणा-कलित ह्रदय में
अब विकल रागिनी बजती I
क्यो हा –हाकार स्वरों से
वेदना असीम गरजती II
उक्त पंक्तियों में रागिनी को विकल बताया गया है जो अस्वाभाविक है क्योंकि व्याकुल तो कवि का ह्रदय है I अतः यहाँ पर विशेषण में विपर्यय है I इसी प्रकार ‘पल्लव’ काव्य में पन्त का
विशेषण-विपर्यय दर्शनीय है –
रंगीले गीले फूलो से अधखिले-भावो से प्रमुदित I
बाल्य-सरिता के कूलों से खेलती थी तरंग सी नित II
उक्त पद्यांश में अधखिले भाव अंकित है जबकि अधखिला फूल होता है I इसी प्रकार बाल्य-सरिता में बाल्य तो जीवन होता है I इस प्रकार इन उदाहरणों में स्वाभाविक विशेषण और विशेष्य नहीं है i अतः यहाँ पर विशेषण-विपर्यय है I
तीसरा अलंकार जो अंगरेजी से हिन्दी में आयी माना जाता वह है – Onomatopoeia I इसे हिन्दी में ध्वन्यार्थ व्यंजना नाम दिया गया है I इसकी अंगरेजी में परिभाषा है -
The naming of a thing or action by a vocal imitation of the sound associated with it . Such as -buzz, hiss etc.
अर्थात, किसी वस्तु या क्रिया से सम्बंधित आवाज की मौखिक नक़ल को ध्वन्यार्थ-व्यंजना कहते है I जैसे – सर्प की फुफकार , मक्खियों की भिनभिनाहट I
उक्त दृष्टि से देखा जय तो हिन्दी के प्राचीन साहित्य में युद्धादि वर्णनों में ध्वन्यार्थ-व्यंजना की भरमार है I जगनिक के आल्हा की निम्नांकित अतिशय प्रसिद्ध पंक्तियां दृष्टव्य है-
“तड़-तड़ तड़-तड़ तेगा बोलै, रण माँ छपकि-छपकि तलवारि I”
उप्रयुक्त से स्पष्ट है की हिन्दी काव्य में ध्वन्यार्थ-व्यंजना की परंपरा पूर्व से विद्यमान थी किन्तु इसे अलंकार का दर्जा हासिल नही था I अलंकार के रूप में इसको मान्यता अंगरेजी साहित्य के प्रभाव से मिली I किन्तु अंततः वही बात सामने आती है की अंगरेजी साहित्य ने हिन्दी की सोयी प्रवृत्तियों को जगाया और उन्हें एक नाम दिया I ध्वन्यार्थ-व्यंजना के उदहारण के रूप में प्रायशः लोग भगवती चरण वर्मा की निम्नांकित पंक्तियों का हवाला देते है – ‘चरमर-चरमर चूं चरर-मरर जा रही चली भैसा गाड़ी I’ किन्तु हिन्दी में इसके अनेक अति सुन्दर उदहारण भी है I जैसे, पन्त की अध्वांकित पंक्तियां -
संध्या का छुट –पुट
बांसो का झुर –मुट I
थी चहक रही चिड़ियाँ
टी बी टी टुट-टुट I
‘रेणुका’ काव्य के पहले हे गीत ‘मंगल गान’ में ‘दिनकर’ ने उक्त अलंकार की बड़ी मनमोहिनी छटा दिखाई है I यथा-
आज सरित का कल-कल, छल-छल,
निर्झर का अविरल झर-झर,
पावस की बूँदों की रिम-झिम
पीले पत्तों का मर्मर,
पहाडी गीतों में ध्वन्यार्थ-व्यंजना का अधिकाधिक उपयोग देखने को मिलता है I जैसे- ‘गिण-गिणान्दो आषाढ आयो I’ इस क्रम में मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘साकेत’ के नवम-स्कंध का यह गीत भी अवलोकनीय है -
सखि, निरख नदी की धारा,
ढलमल ढलमल चंचल अंचल, झलमल झलमल तारा!
निर्मल जल अंतःस्थल भरके,
उछल उछल कर, छल छल करके,
थल थल तरके, कल-कल धरके,
बिखराता है पारा !
ई एस -1/436, सीतापुर रोड योजना
सेक्टर-ए, अलीगंज, लखनऊ I
मो0 9795518586
(मौलिक व अप्रकाशित )
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आदरणीय सर . आपके इस लेखसे बहुत सी नयी जानकारी मिली ..तमाम बेहतरीन जानकारी साझा करने के लिए एक पाठक की तौर पर मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ ..आगे भी आपके ऐसे ही ज्ञानवर्धक शोध परक रचनाएँ पढने को मिलेंगी इस कामना के साथ सादर प्रणाम के साथ
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