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दर्द ओ इजतराब जैसा हूं
ग़मो की इक किताब जैसा हूं

धूप का इक लिबास है तन पर
और मैं आफताब जैसा हूं

खार हर हाथो में कि शाखों पर
मैं झुलसता गुलाब जैसा हूं

कुछ न हासिल मेरी मुहब्बत को
मैं कि दरिया चनाब जैसा हूं

रेत है प्यास औ मेरी आहें
बेसदा कोई खाब जैसा हूं

मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 20, 2016 at 10:29pm

दर्द ओ इजतराब जैसा हूं,,,, यहाँ ओ का भार या 1 होगा या 0...1 हुआ तो दर्दो हो जाएगा.. 0 हुआ तो दर्द -इज़्तिराब ,,दोनों सूरत में मिसरा बेबहर है ..
ग़मो की इक किताब जैसा हूं.... गमों (१-२) फिर  बहर नदारद है ..
मैं झुलसता गुलाब जैसा हूं...झुलसते आएगा ...
कुछ न हासिल मेरी मुहब्बत को
मैं कि दरिया चनाब जैसा हूं..क्यूँ ? चिनाब में ऐसा क्या है ..कुछ विशेष प्रसंग हो तो साझा करें अन्यथा रब्त नहीं है मिसरों में ,,

मंच को वाह वाह रोग लग गया है ...बेगार टालने वाला ...
सादर 

Comment by Ravi Shukla on June 16, 2016 at 5:42pm

आदरनीय दिलीप जी आपकी गजल से पहली बार गुजरना हो रहा है , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ आपको ।

Comment by dileepvishwakarma on June 15, 2016 at 6:40pm
जी आदरणीय गिरिराज जी
सही सुझाव है आपका
आभारी हु

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 6:10pm

आदरनीय दिलीप भाई , बहुत अच्छी गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ आपको ।

धूप का इक लिबास है तन पर
और मैं आफताब जैसा हूं      --    बहुत बढिया ।  इसे अगर यूँ कहें तो - एक गैर ज़रूरी सलाह समझियेगा

धूप का बस लिबास है तन पर
देखिये , आफताब जैसा हूं  ---   अगर अच्छा लगे तो ?

Comment by Shyam Narain Verma on June 15, 2016 at 5:38pm
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..

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