ओबीओ लखनऊ चैप्टर साहित्यिक गोष्ठी, माह जुलाई 2018 – एक प्रतिवेदन
ओबीओ लखनऊ चैप्टर की मासिक साहित्यिक गोष्ठी रविवार दिनांक 22 जुलाई 2018 के दिन लखनऊ के प्रतिष्ठित शायर श्री आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ के सौजन्य से सम्पन्न हुई. संयोजक डॉ शरदिंदु मुकर्जी के रोहतास एंक्लेव, फैज़ाबाद रोड स्थित आवास पर इस कार्यक्रम के प्रारम्भ में ही पता चला कि हमारे तीन नियमित, सक्रिय और महत्त्वपूर्ण साथी – सुश्री संध्या सिंह व सर्वश्री गोपाल नारायण श्रीवास्तव तथा मनोज शुक्ल ‘मनुज’ व्यक्तिगत मजबूरियों के कारण उपस्थित नहीं रह पाएँगे. वहीं बहुत दिनों बाद अपने पुराने साथी प्रदीप शुक्ल ने कानपुर से आकर गोष्ठी में प्रतिभागिता की.
इस महीने, गोष्ठी के पहले सत्र में हमारी नयी कोशिश के अनुसार पुस्तक परिचर्चा के अंतर्गत कुंती मुकर्जी की पुस्तक “अहिल्या - एक सफ़र” पर बात करने से पहले सभी का आग्रह था कि लेखिका के मुँह से उनकी अपनी बात सुनी जाए. कुंती जी ने हमें सहज वार्तालाप की शैली में बताया कि कैसे मॉरीशस की एक हाई प्रोफ़ाईल महिला ने आकर उन्हें अपनी जीवन कथा सुनायी और उस कहानी को पुस्तक का रूप देकर हमेशा के लिए अमर कर देने की इच्छा व्यक्त की. इसके बाद उक्त उपन्यास में वर्णित घटनाओं के संदर्भ में हमें ऐसी बातें सुनने को मिलीं कि मन-मस्तिष्क रोमांचित हो उठा.
कुंती जी के वक्तव्य के बाद संयोजक डॉ शरदिंदु मुकर्जी ने पाठकीय प्रतिक्रिया के लिए डॉ अशोक शर्मा से निवेदन किया. मूर्धन्य कथाकार और कवि डॉ शर्मा ने पुस्तक में कुछ त्रुटिपूर्ण वाक्य विन्यास की ओर ध्यान आकर्षित किया और सुझाव दिया कि पुस्तक के दूसरे संस्करण में उन्हें ठीक कर लिया जाए. इसके साथ ही उन्होंने कहा कि मूलत: फ़्रेंच भाषी लेखिका द्वारा हिंदी में इस कलेवर का मौलिक उपन्यास लिख देना ही बहुत बड़ी बात है. उनके अनुसार यह पुस्तक सभी दृष्टि से उन्नत है और ‘बेस्ट सेलर’ बन सकती है. लेकिन इसके लिए “अहिल्या-एक सफ़र” को अधिक से अधिक पाठक तक पहुँचाना होगा. उनका कहना था कि बाज़ारवाद के इस युग में अपनी कृति को लोगों तक पहुँचाने का काम रचनाकार को स्वयं ही करना पड़ता है. आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने भी यह पुस्तक पढ़ी है. वे डॉ शर्मा से पूरी तरह सहमत थे. उन्होंने कहा कि पुस्तक में जिस तरह शुरू से अंत तक रोचकता बनी रहती है वह प्रशंसनीय है. “अहिल्या-एक सफ़र” पर विचार हेतु आने वाले दिनों में एक और ऐसी अनाड़म्बर गोष्ठी की आवश्यक्ता से सभी सदस्य एकमत थे.
आज की गोष्ठी के आयोजक आलोक रावत जी को दूसरे सत्र में काव्य-पाठ का संचालन करने का दायित्व सौंपा गया. वे काफ़ी अस्वस्थ थे लेकिन फिर भी कुछ देर तक संचालन करने का दायित्व उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया. पूरी गोष्ठी की अध्यक्षता शुरू से ही डॉ अशोक शर्मा ने की.
यह स्पष्ट था कि स्वास्थ्यगत कारणों से आलोक जी हमारे साथ देर तक नहीं बैठ पाएँगे. अत: हम सबके अनुरोध पर अपने अनोखे अंदाज़ में उन्होंने अपनी ही रचना से सत्र का श्री गणेश किया –
जब भी खेतों में धान मरता है
साथ उसके किसान मरता है.
कहाँ मरते हैं मुसलमाँ – हिंदू
मेरा हिंदोस्ताँ मरता है
इन पंक्तियों में छुपे दर्द को आत्मसात करना हमारे विवेक और चैतन्य को चुनौती देना है.
अगले कवि के रूप में व्यंग्य रचनाकार मृगांक श्रीवास्तव का आह्वान हुआ. नए और कुंठित विषयों को लेकर काव्य रूप देना उनकी विशेषता है. आज के युग में सामाजिक समस्याओं पर ध्यान केंद्रित कर सीधे सपाट शब्दों में उन्होंने सुनाया –
एक लड़की की एक लड़की से
एक लड़के का एक लड़के से
शादी का विचार
नर-नारी के प्रेम सुख के इतर
नए नए सुख का आविष्कार
प्रदीप शुक्ल वैज्ञानिक हैं. उनकी रचनाओं में भावों की शृंखला और स्वस्थ तार्किकता का समन्वय देखने को मिलता है. हास्य और व्यंग्य का पुट लिए हुए उनके द्वारा प्रस्तुत “तोंद” कविता की बानगी देखिए –
मत सोचो कि घटी नहीं अंगूर सो खट्टे
केवल नर में नहीं चला यह देवों तक में
तोंद लिए बस एक देवता गणपति अपने
प्रथम हैं पूजे जाते देव पड़े हैं कितने.
संचालक-आयोजक आलोक रावत को अब जाना था. अत: संचालन का दायित्व ग़ज़लकार भूपेंद्र सिंह जी के सक्षम कंधों पर पड़ा. उन्होंने कुंती मुकर्जी को आमत्रित किया रचना पाठ के लिए.
हल्के-फुल्के हास्य व्यंग्य के परे कुंती मुकर्जी की रचनाएँ गंभीर हैं और विद्वानों को भी सोचने पर मजबूर करती हैं. नारी की कोमलता, क्रोध और क्रांति उनकी रचनाओं में प्राय: दृष्टिगोचर होती हैं, यथा –
सुबह की बेला मेरी है
दिन की चर्या भी मेरी धुरी पर चलती है
मैं शाम की गति से चलती हूँ
रात जब थककर
मेरी ज़ुल्फ़ों पर रुकती है
मैं ही सृष्टि रचती हूँ
अपनी कोख में
पल-पल जीती हूँ
एक क्षण में कितनी बार मरती हूँ
पुन: जीवित होने के लिए.
वर्तमान प्रतिवेदक शरदिंदु मुकर्जी ने अपनी नवीनतम रचना ‘बारिश की बूँदें’ पढ़कर सुनाया –
धरती के गालों पर
थपकी सी गिरती बारिश की बूँदें
और –
ईर्ष्या से जलता
घोर कृष्ण वर्ण निर्मम आकाश
रात्रि के पट पर
अपनी ज्वाला को रेखांकित करता हुआ
हवा के केश पकड़कर झिंझोड़ रहा है –
मैं अचम्भित हूँ!
हमारी मासिक गोष्ठी में पहली बार पधारे अशोक शुक्ल ‘अंजान’ मुख्यत: सामयिक विषय पर लिखते हैं. उनके द्वारा किया गया शब्दों का प्रयोग देखिए –
लड़के लड़ के ले रहे
धन दौलत घर-बार
किंतु बेटियाँ चाहतीं
माँ बापू का प्यार.
अब संचालक भूपेंद्र सिंह की बारी थी. हम सब उनके ग़ज़लकार की छवि से भलीभाँति परिचित हैं. आज उन्होंने सस्वर वाणी वंदना कर हमें चकित कर दिया –
जयति जय जय माँ सरस्वती
जयति वीणा धारिणी
जयति पद्मासना माता
जयति शुभ वरदायिनी
जगत का कल्याण कर माँ
तू है विघ्न विनाशिनी
अंत में अध्यक्षता कर रहे डॉ अशोक शर्मा ने दार्शनिक भावों से समृद्ध अपनी रचना का पाठ किया –
सुनिए जरा
आपने ईश्वर को देखा है क्या?
सभी के सम्मिलित अनुरोध पर डॉ शर्मा ने अपना गीत ‘....प्रेम तब जन्मा होगा’ गा कर सुनाया. इसी के साथ ही गोष्ठी औपचारिक ढंग से समाप्त हुई लेकिन गोष्ठी को पूर्णत्व मिलता है जब वह अनौपचारिक विषयों से लबालब होकर विचारों के आदान-प्रदान के बीच समाप्त हो. आज ठीक वैसा ही हुआ. काव्य-पाठ का अंत होने के बाद सामान्य जलपान के बीच ही हिंदी के रचनाकारों द्वारा हिंदी भाषा की अनदेखी करने पर बात छिड़ गयी. बहुत से उदाहरण दिये गए. डॉ शर्मा तथा भूपेंद्र जी द्वारा विशेषरूप से उल्लिखित बिंदुओं ने हम अल्पज्ञान रचनाकारों को समृद्ध किया. यह निश्चय किया गया कि हम नियमित रूप से भाषा की शुद्धता पर चर्चा करेंगे और प्रयास करेंगे कि हमारी रचनाएँ दोष-रहित हों. ऐसे अनायास अड्डा के साथ अंतत: एक सफल गोष्ठी को पूर्णता मिली.
प्रस्तुति : शरदिंदु मुकर्जी
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