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सोमू तड़के ही उठ गया था। वैसे तो वह रोज ही सूरज उगने के पहले उठ जाता था, अपने नित्यकार्य से निवृत्त होकर स्कूल जाता था। पर आज तो छुट्टी थी, और छुट्टी के दिन उसकी सुबह की दिनचर्या कुछ अलग होती थी। वह अपने दोस्तों के साथ हाथ में कुछ खाली बोरियों को लेकर निकल पड़ता था और सड़क पर चलते हुए कचरा, पन्नी, थ्रेश इत्यादि बिनकर उपयुक्त कचरे के डिब्बे में डाल देता था।
उसको जब किसी ने पूछा, "बच्चे, तुम कचरा क्यों उठाते हो? यह कार्य तो नगर-निगम वालों का होता है।"
उसने तपाक से उत्तर दिया, "अंकल जी, जब हम कचरा फैंक सकते हैं और सड़कों पर डाल सकते हैं तो उठाने की और सही जगह पर फैंकने की जिम्मेदारी भी तो हमारी ही होती है।"
और यह कहते हुए वह आगे बढ़ गया। हँसता-खेलता बचपन ! पर इस उम्र में इतनी ज़िम्मेदारी! उस व्यक्ति की नज़र में आ गया था अपना सोमू। फिर क्या था, अक्सर वह सोनू से टकरा ही जाते थे। और धीरे-धीरे कब सोनू उनका अपने बेटे-सा हो गया पता ही न चला।
आज अनंत चतुर्दर्शी थी, और सोनू से पता ही चल ही चुका था कि आज उसने एक नई मोहिम छेड़नी है। उससे बात करते हुए जो पता चला था आइए वो सब आपको भी बताता हूँ।
सोमू के कहना था कि हम भगवान गणेश की प्रतिमा को गणेश चतुर्थी के दिन घरों में या झाँकियों को धाम-धूम से पधराते हैं और अनंत-चौदस तक उनकी पूजा-पाठ अर्चना-आराधना करते हैं। पर हम जब इनको विसर्जित करते हैं तब उसके बाद हम यह मान बैठते हैं कि हमारी पूजा सम्पन्न हुई। पर मेरे अनुसार यह पूर्णतः अधूरी है...।
"अधूरी... वह कैसे?"
सोमू ने कहा, " हम गणेश पूजन की सामग्री भी तो साथ लेकर जाते हैं। फूल-माला, रोली-चावल , भोग, नारियल इत्यादि। इन सब के बाद जो पन्नी बच जाती है, फूल माला जो इधर-उधर पड़ी मिलती हैं...बाबा रे! इतना सब कचरा हो जाता है कि..."
"तो क्या तुम उसको भी उठाकर सफाई करने का काम करने की सोच रहे हो?"
"जी हाँ अंकल जी। मेरी पूजा तो तभी पूरी होगी।"
और यह कहते हुए वह अपने दोस्तों के साथ कब वहाँ से चला गया इस बात का एहसास ही नहीं हुआ।
यही तो सही अर्थ में पूर्ण पूजा होती है। आपको क्या लगता है?

मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित।

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