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ओबीओ महा-उत्सव अंक - 14 का त्रि-दिवसीय आयोजन दिनांक 10 दिसम्बर 2011 की मध्य रात्रि को सोत्साह सम्पन्न हुआ.

सद्यः समाप्त इस इण्टरऐक्टिव आयोजन में आशा पर या इससे सम्बन्धित भाव पर कई एक विधा में रचनाएँ पोस्ट हुई.  आयोजन की सभी रचनाओं को संकलित कर एक स्थान पर प्रस्तुत किया जा रहा है.

रचना संग्रह कार्य को पूरी गंभीरता से अंजाम देने की कोशिश हुई है ताकि किसी रचनाकार की कोई रचना संग्रह में आने से रह न जाये. फिरभी किन्हीं रचनाकार की कोई रचना निम्नलिखित संग्रह में शामिल होने से रह गयी हो तो सादर आग्रह है कि अवश्य सूचित करें. 

सादर

--सौरभ--

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आदरणीय अम्बरीष श्रीवास्तव जी

पञ्च हाइकू
मौत है पास
दिल में मधुमास
वाह रे आस!

निज कल्याण
सर्वांग बेईमान
चाहे ईमान?

दाना चुगाया
उड़ना भी सिखाया
कैसी उम्मीद?

बहुत खूब!
वाह भाई जी वाह!
क्यों दिल चाहे ?

घना कुहरा
कड़कड़ाते दांत
अलाव कहाँ?

सप्त एकादशी

उदास
मत हो दिल
है आस

प्रयास
जिन्दादिली से
हो आस

सत्संग
आशान्वित हूँ
फलेगा

आस से
ही अभिवृद्धि
गर्वित

ये दोस्ती
बँधाये आस
विश्वास

साधिये
आशा-विश्वास
उमंग

आस दे
सफलता ही
उजास

पञ्च तांके


धनात्मकता
बँधाये हमें आस
ऋणात्मकता
खो देती है विश्वास
यही है दृष्टि भेद

है आवश्यक
पतझड़ दुःख का
बँधाये आस
कराये अहसास
सुखमय पलों का

जीवन आस
बोल उठे जिंदगी
मौत निराश
जो भी होगा साथियों
अच्छा ही होगा अब

क्या हार-जीत
उठो कुछ ऊपर
जी लो जिंदगी
मौत घबराएगी
पार नहीं पायेगी

अभी बाँटिये
आशा रूपी अमृत
निराशा छोड़ें
जीवन सँवरेगा
खुशियाँ छलकेंगी

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आदरणीय योगेन्द्र बी. सिंह आलोक सीतापुरी जी

मुक्तक

मैं क्या बताऊँ कि क्या चीज़ मेरे हाथ में है|
मेरा वजूद तेरी उँगलियों के साथ में है|
मेरी आशा मेरी उम्मीद तुम्हीं से जानम,
ज़िंदगी भर का सफ़र इस सुहागरात में है||

आशा का मैं दीप जलाये बैठा रहा कुंआरे पर|
आया मेरा प्रीतम प्यारा मेरे मन के द्वारे पर|
मेरी आशा मेरा सम्बल मेरा है विश्वास वही,
मैं वारूँ अपना यह जीवन तेरे एक इशारे पर ||

एक आशा की किरण अब भी मेरी आँख में है|
जैसे चिंगारी सलामत सुलगती राख में है|
चंद लम्हों को या एक-आध घड़ी के ही लिए,
चाँद हर शब को चमकता अँधेरे पाख में है||

तू है परदे में मेरी आस मुलाक़ात में है
अजब तरह का उजाला अंधेरी रात में है
तुम्हारा प्यार बजाहिर निहाँ तो है फिर भी
हमारा प्यार पशे पर्दा कायनात में है||

(2)
मत्तगयन्द सवैया
आस विकास हुलास भरे मनमोदक नाच नचावति आशा
सावन केरि फुहार बनी सुख है सुख का सरसावति आशा
दास निराश कबौ ना करै रचि छप्पन भोग लगावति आशा
आँचर के तर हे तरके विश्वासहिं दूध पियावति आशा ..

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आदरणीय सतीश मापतपुरी जी

जब कभी भी उदास होता हूँ वो मेरे पास - पास होती है.
जब भी मायूस होता हूँ खुद से वो मुझे बाहों में भर लेती है.
जब भी मेरे मन को घेरता है कभी कुहासा.
अपने गेसू में छुपा लेती है मेरी आशा.
गर नहीं आशा तो फिर ज़िन्दगी का क्या मतलब ?
गर ना हो ख़्वाब तो फिर बंदगी का क्या मतलब ?
ज़िन्दगी का ही नाम अभिलाषा.
अपने गेसू में छुपा लेती है मेरी आशा.
ख़्वाब आशा है - आशा है जीवन.
आशा ऊर्जा है - आशा है यौवन.
सच तो ये है सकून है आशा.
अपने गेसू में छुपा लेती है मेरी आशा.

(2)

गीत
आशा, बस तेरी ही आशा.
दौरे आज में हर पग, हर दिन, मिलती नई निराशा.
आशा, बस तेरी ही आशा.

महंगाई की बात क्या करना ?
भ्रष्टाचार से कितना लड़ना ?
अब तो थकन ही बन गयी किस्मत, हर दिन छाए कुहासा.
आशा, बस तेरी ही आशा.

अवमूल्यन का दौर चला है.
गलत आचरण बना भला है.
ऐसे में तुम हर पल हमको, देती रहना दिलासा.
आशा, बस तेरी ही आशा.

तुम ही हो बस एक सहारा.
तुम बिन मेरा जग अंधियारा.
लो कहता हूँ, सबके आगे, सबसे सुन्दर आशा.
आशा, बस तेरी ही आशा.

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आदरणीय दिलबाग़ विर्क जी 


कुण्डलिया

आशा से संसार है, रखना दिल में आस
मंजिल होगी पास में, करिए सही प्रयास ।
करिए सही प्रयास, झोंकिये पूरी ताकत
जीवन होगा सफल, न टिक पाएगी आफत ।
मत डालो हथियार, हराती हमें हताशा
कहे विर्क कविराय, अमृतधार है आशा ।

(2)
तांका

आशा-निराशा
दो भेद हैं दृष्टि के
देखता कोई
आधा भरा हुआ तो
आधा खाली दूसरा

स्थायी नहीं है
दुःख का पतझड़
जब पड़ेंगी
आशाओं की फुहारें
खिलेगी ये जिन्दगी

सुहाना होता
सफर जिन्दगी का
देखते हैं जो
जिन्दगी का मंजर
आशावादी चश्मों से

चलता रहे
क्रम जीत हार का
आशा रखना
दिल पर न लेना
कभी किसी हार को

निराशा विष
आशा जीवनामृत
दोनों विरोधी
चुनाव है तुम्हारा
चुन लेना जो चाहो

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आदरणीय सुरीन्द्र रत्ती जी

जीवन में सबने आशा के पंख लगाये..

छोटे-बड़े हजारों कई सपने सजाये
तू है मुसाफिर रख नज़र मंज़िल पे
कर वक़्त से दोस्ती वो नज़राना दिलाये
जीवन में सबने आशा के पंख लगाये .....

कुछ तो तेज़ भरा है छोटी सी किरण में
ज्यों कस्तूरी बसी है सुंदर हिरन में
कभी क़दम तेज़ कभी डगमगाये
जीवन में सबने आशा के पंख लगाये .....

आशा और निराशा बंधे हैं इक डोर से
तकते सारा तमाशा खड़े दूजे छोर से
हिम्मत के ही दम पर बेड़े पार हो पाये
जीवन में सबने आशा के पंख लगाये .....

ऊँची उड़ानों से अपनी सरहदों को तोलो
बिखरे अरमानो में, मिसरी रोज़ घोलो
"रत्ती" भर आशा, पल में सुख से मिलाये
जीवन में सबने आशा के पंख लगाये .....

(2)

उम्मीद (आशा)

उम्मीद पे दुनियां कायम
कयास लगाये, नज़रें टिकाये,
कभी चहके, कभी चिल्लाये
जुमलों को सजाये, जी को बहलाये
खुबसूरत बीमारी, सबकी तरफदारी
फिर आ धमकी बेकसी और बेक़रारी
थी तलाश नजूमी की, जो पढ़ता कसीदे
बताता लुभावने हसीं किस्से
देख रहा हूँ जिस्मो-जां के दो अलग हिस्से
जिगर तक्सीम कई टुकड़ों में,
फिर कहीं गूंजती भटकती सदा,
उसकी आहट, सुगबुगाहट, सनसनाहट
इकलौती रूह जुम्बिश में
देखे दिन में तारे
खौफ़ से निकली चिंगारियां,
खाक़ में न मिले सदियों की यारियां
खुदा जानें क्या टूटा अंदर-बाहर
एक उम्मीद के सहारे निकले
किनारे-किनारे
बचा फक़त असर दुआओं का
दिलासा रहनुमाओं का
पीरों की सोहबत, उनका करम
यही उम्मीदों को बंधे रक्खे
अब तलक मिले थे चार सू धक्के
कोई कहता आबाद है, कोई कहे बरबाद है
मैं अन्जान हूँ
ख़ैर, उम्मीद का दामन पकड़ा है,
उसी के पहलू में रहना पसंद है.....

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आदरणीय संजय मिश्रा ’हबीब’


मत्त गयंद सवैया
आस निरास रहे उर में हर सांस बतावत ऐहि कहानी.
हाथ धरे घर बैठ मिले कब प्यास बुझावन को निक पानी
साहस सागर साध सके सब संत सुनावयं सुन्दर बानी
बेर कुबेर कहां निरखै कब कोनहि नोकर राजउ रानी

कुण्डलिया
आशा, दीपक बन जले, राह सुराह बनाय
सूरज रजनी में उगे, उजियारा बिखराय
उजियारा बिखराय, बहे गंगा जस धारा
उलझन जब उलझाय, बने यह एक सहारा
अटल रहे विशवास, न आने पाय निराशा
महके नित नव पुष्प, खिले जीवन में आशा

सपने अपने जीतने, हिम्मत हो हथियार
धीरज धारण कर रखें, अपने पर अधिकार
अपने पर अधिकार, बड़ा मन चंचल होता
बिन पानी सच मान, रेत में दिये डुबोता
अहंकार दें त्याग, विनत तन मन हों अपने
आशा का संचार, करें सब अपने सपने

(2)
गजल
चन्दा तारे गगन है आशा ।
फूल बहारें चमन है आशा ।।

दुनिया में अपने नहीं होते,
सब शंकायें शमन है आशा ।।

खुशियाँ सब के घरों में व्यापे,
निज स्वारथ को दमन है आशा ।।

आलस पास फटक नहीं पाये,
तीखी सी इक चुभन है आशा ।।

राणा का विष भसम जो कर दे,
प्रेम की पावन अगन है आशा ।।

सफल रहो या विफल हो हबीब,
भूल निराशा जशन है आशा ।।

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आदरणीय अतेन्द्र कुमार सिंह ’रवि’ जी

खुद में डूबे इन्सां को खुदा का मिलता प्यार नहीं
अँधेरे की कोठरी से यूँ मिलता उसको द्वार नहीं--1

सामने जो वक़्त है यूँ चलना होगा संग उसी के
मार के ठोकर निकल जा पत्थर है ये पहार नहीं---2

मुमकिन नहीं है क्या जहाँ में आस लिए जो फिरते हैं
नाव तो है अपनी ये बंधू क्या हम हैं पतवार नहीं ---3

हिकमत है तो होगी रे किस्मत कदम बढालें हम जरा
आस लिए बस बढने में ही जीत है अपनी हार नहीं---4

कदम बढाके प्यारे जग में मुड़ना है नादानी
भटक गए जो राह से नादाँ है होशियार नहीं ---5

कहीं पे होगा मोह का बंधन कहीं बुलाता चन्दन भी
आस है बस साथ में अपने , प्यारे ये संसार नहीं---6

जल उठेगी अपनी मशालें गर किरण आस की होगी
संग चलेगा बस यही तो यूँ होगा अपना यार नहीं ---7

करलें मन को निर्मल भी तो तन को किया जो करतें हैं
मन की ताक़त रहेगी हर पल अपनी ये तलवार नहीं ---8

आस का पौधा सुख न जाय बीज कभीं जो बोया था
गिरके सम्हालना सीखें हम गिरके उठना हार नहीं ---9

एक आस पे ही टिकी ज़मीं है जिसपे जीवन दर्पन है
"रवि" आस ही शेषनाग हैं इससे है इनकार नहीं---10

(2)
दिल से आवाज़ आई कि मैंने उनको कहीं देखा है

ये वही है आशा की किरण या नज़रों का धोखा है

रु-ब-रु हुआ जो उनसे तब मैंने ये राज़ है जाना
उनको आँखों में कहीं तो मेरी तरह अभिलाषा है

कैसे करूँ बयां मै तो आज उनके उन जज्बातों का
यूँ चांदनी में नहाए हुए उनके इक- इक नजारों का

मेरे मनह पटल पर कैसी यूँ खिंच रही ये रेखा है
दिल से आवाज़...

श्याम घटाओं के बीच से कभीं यूँ चाँद सा निकलना
अधर खुले तो यूँ लगा गिरकर शबनम सा बिखरना
यूँ लग रहा कि रब ने उनमें , हर रंग को समेटा है
दिल से आवाज़...

यूँ फिर से वही नज़ारे क्यूँ मनह पटल पर छा गए
मय से भरे प्याले से अब वो जाम को छलका गए
कौन सी आशा है जिसने रवि के ज़ख्मों को खुरेदा है
दिल से आवाज़...

(3)
आशाएं जीवन में बढती चली जाती हैं
एक रुके दूजा चलदे रुक नहीं पाती हैं
आशाएं ...

क्या खोया है जग में सबने और क्या पाया है
चाह लिए यहाँ इंशा भी तो खुद को रुलाया है
आंसू भी ये गिरकर दिल के दर्द बढाती हैं
आशाएं ...

कहीं मिला है जग में सबकुछ जो भी जिसने सोचा
कोई भटकता आस लिए तो मिला है उनको धोका
अहसास लिए आस की ये ठेस लगाती हैं
आशाएं ...

कभी तो बेटे की खनखन आँगन रोशन हो गया
तीन पहर जो बीता तो यूँ बेटा खुद में खो गया
हैं क्या मात-पिता पत्नी याद सताती है
आशाएं ...

आता जो बेटा जग में तो गाये लोग बधाई
बेटी के आने से है पिता की आँख भर आई
सुत तो कई बार सुता इक बार रुलाती है
आशाएं ...

विश्वास किया जग में सबनें दिल में आस जगाकर
अमृत संग विष पीना हुआ कभी तो धोका खाकर
अपनापन है यहाँ अपनों को छल जाती है
आशाएं ...

इक लहर तो ख़त्म हुई न दूजी उठ के चल पड़ी है
आस-निरास की इस भंवर में कितनी नाव खड़ी है
सफ़र में ऐ माझी किसकी याद सताती है
आशाएं ...

चाँद को ढूढे पागल सूरज सांझ को ढूढे सबेरा
इक दूजे की आस में कितने करते रहे बसेरा
कल में आज बिताकर कल की याद सताती है
आशाएं ...

काम क्रोध मद लोभ में आस ने घर बनाया
ईश पूजन में भी यहाँ तो अपना ठौर जमाया
निश्छल भाव रहे न प्रभु की दुनिया भाती है
आशाएं ...

फिर भी आस बड़ा है जग में जिसपे टिकी है दुनिया
हैं चलते सब लोग मगर कुछ एक को पूछे दुनिया
धन के धन हो रहे अगर तो पास बुलाती है
आशाएं ...

इक आस करे हम सभी गर बात समझ में आये
अंत समय हो सुखद यही बस कामना मन में आये
लिख दिया "रवि" ने जो बात समझ में आती है
आशाएं ...

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श्रीमती आदरणीया मंजुला जी

सदियों से काटता रहा हूँ हर एक आज
शायद कल हो मुलाकात
शायद कल हों दो बात
शायद बन जाये मेरी धड़कने
तेरे दिल की आवाज़
...शायद जी लूं उन कुछ क्षणों में
जो सांस को बंधाये आस
शायद सहेज पाऊँ वो कुछ पल
जो बने जीवन की सौगात
शायद चुरा सकूं वो कुछ लम्हे
जिनसे लगे मन तेरा साज़
देता रहा है वो कल .... इस आज को आवाज़

(2)
चहचहाती है चिड़िया
कहीं मन के आँगन में
सपनो के नभ तले
मखमली ख्यालों की छाँव में
मर्यादाओं की मुंडेर पे
... आज भी
पर कान हो गए हैं अभ्यस्त
सुनते हैं गाड़ी के होर्न
सड़क की आवाजें
रिश्तों की चिल्लाहटें
कुर्सियों की पटखन
अपनी ही धमधम
और चिड़िया ...न थकती है , न डरती है
घनघोर हवाओं से
फैलती हुई बिल्डिंगो से
ग़ुम होते दानो से
गिरते हुए पत्तों से
पत्थर नुमा इंसानों से
आस के तारों पे टंगी
बस चहचहाती है ...क्या सुन पा रहे हो अब

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आदरणीय अरुण कुमार निगम जी

"नन्हीं सी आशा"

बिटिया' मेरे जीवन की नन्हीं - सी आशा
वात्सल्य - गोरस में डूबा हुआ बताशा.

तुतली बोली, डगमग चलना और शरारत
नया- नया नित दिखलाती है खेल- तमाशा.

पल में रूठे - माने , पल में रोये - हँस दे
बिटिया का गुस्सा है, रत्ती - तोला - माशा.

दिनभर दफ्तर में थककर जब घर आता हूँ
देख मुझे , मुस्काकर कर दे दूर हताशा.

सुख-दु:ख दोनों , धूपछाँव- से आते - जाते
ठहर न पाई, इस आंगन में कभी निराशा.

परी - सरीखी उतरी , घर को स्वर्ग बनाया
अपने हाथों ब्रम्हा - जी ने इसे तराशा.

(2)
आशा की ये डोर , भोर लाई चहुँ ओर
है सुखों से सराबोर, छोर कहीं न दिखाई दे.

नाचे झूमे मन मोर, देख घटा घनघोर
मारे पवन हिलोर, शोर कहीं न सुनाई दे.

आशा बड़ी चितचोर, करे भाव में विभोर
मस्ती छाई पोर-पोर, चोर कहीं न दिखाई दे.

कभी आए करजोर, कभी बैंय्या दे मरोर
कभी देती झकझोर, जोर कहीं न दिखाई दे.

एक विपरीत रूप ऐसा भी-------
आशा बने जो निराशा, मिले केवल हताशा
बने जिंदगी तमाशा, राह कहीं न दिखाई दे.

आए निराशा का दौर, आत्मबल हो कमजोर
जाएँ भला किस ओर, कोई ठौर न सुझाई दे.

जब निराशा छा जाती, दर-दर भटकाती
रात दिन है सताती, कष्ट बड़े दु:खदाई दे.

संग आशा का न छोड़ो, निराशा से मुख मोड़ो
आत्मशक्ति को झंझोड़ो, यही फल सुखदाई दे.


(3)

 गायिका आशा भोसले को काव्यांजलि

आशा जी के गीत सुन, झूम उठा संसार
शोखी मस्ती से भरी, इनकी सुर-झंकार
इनकी सुर झंकार, कभी जब दर्द सुनाए
सुननेवाले श्रोताओं को बहुत रुलाए.
गीतों में हर रंग आशा और निराशा
जुग-जुग जीयें स्वर सम्राज्ञी दीदी आशा.


************************************************

आदरणीय धर्मेन्द्र शर्मा ’धरम’ जी

तपती धूप में नव-पल्लव सी आती है,
आशा है, चुप रह कर सब कह जाती है
.
जब भी पथ से भटके, थक कर चूर हुए
तो भी नए रास्तों के ही गीत सुनाती है
.
बिजली सी ये कौंधे मन के अंधियारे में
उठ दीप जला, फिर ये सन्देश सुनाती है
.
जीवन के उन झंझावातों के मौसम में
एक ठोर बनी, पतवार सरीखी आती है
.
पथ के उन सारे उबड़ खाबड़ रास्तों में
चलता चल, कह कर चुप हो जाती है
.
मत सोच इन अंधियारी रातों के बारे में,
हर रात के बाद उजली सुबह फिर आती है
.
मैं सुनता हूँ उस मौन में लिपटी मूरत को,
वो आशा है, चुप रह कर सब कह जाती है

(2)
हौसले ही तो हौसलों का हुनर पहचानते हैं,
जिन्दगी आसां नहीं, इतना हम जानते हैं
.
एक दरवाज़े के बंद होने का मलाल न कर
छ: रास्ते खुलेंगे, यूँ दिल को बेहाल न कर
.
ज़हन की फितरतें ऐसीं, मुनासिब को भी कम माने
आस की बांसुरी अपनी, वो कोंपल भी कदम्ब जाने
.
जहाँ तक सोच है मेरी, वो उसके पार जाती है,
भँवर में जब भी होता हूँ, मुझे वो तार जाती है

************************************************

डा. बृजेश कुमार त्रिपाठी जी

कह-मुकरियाँ
जीवन में हर रंग भर जाती
नयी राह हर पल दिखलाती
मन से करती दूर निराशा
क्या सखि प्रीति? ना, सखि आशा 1

मन में है, तो हर कोई अपना
टूटी, तो सारा जग सपना
मन में घोले रोज़ बताशा
क्या सखि प्रीति? ना, सखि आशा 2

गहरी पाले तो देती है दुख
दूर हटे तो हर लेती सुख
जीवन इसके बिना धुआँ सा
क्या सखि प्रीति? ना, सखि आशा 3

जीवन का ये एक चटख रंग
बिन इसके सब कुछ है बेढंग
छिपी दिखे इसमें अभिलाषा
प्रीति यही है ? ना.... सखि आशा 4

ज्ञानी कहते इसे न पालो
बला दुखों की, इसको टालो
है अशांति की यह परिभाषा
सच सखि प्रीति? नहीं सखि आशा 5

(2)

हाइकू
जीत है पास
जीवन की मिठास
टूटे न आस

बुरा सपना
नींद भर का साथी
घबराये क्यों ?

देता है वह
बिना किसी कारण
फिर क्यों मांगें?

कर्म है सच्चा
तो फल में क्या गच्चा
कैसी निराशा ?

आशा सुधा सी
बसती जो मन में
तोड़े उदासी

************************************************

आदरणीय अविनाश एस बागड़े जी

कविता
सर्द
गहन-रात्रि
के बाद
सुबह-सबेरे
सूरज की
किरणों के साथ
दूर होगा
कुहाँसा!
"आशा" की
यह भी
एक
परिभाषा.........


मुक्तक
चीखती हुई आवाज़ की भाषा मत देख.
टूटे हुए तारों का तमाशा मत देख .
सोचने के लिये पूरा गुलशन है,
सूखे हुए फूलों में "आशा' मत देख.


दोहे
आशा किससे हम करें,हम ही आज निराश!
स्वप्न-महल ढहने लगा,जैसे गिरते ताश.

आशा और विश्वास का,रहा नहीं माहौल.
कदम-कदम पर खुल रही,आज सियासी पोल.

अब भी आशावान है,जन-जन का ये देश.
बदलेगी तस्वीर ये,बदलेगा परिवेश.

सीमा है हर चीज़ की,होती एक मीयाद.
लोकतंत्र में शक्ति है,इसमे नहीं विवाद.

"आशा"अगले साल से ,लगा रहें हैं लोग.
आज तलक जो ना हुआ,कल आएगा योग.

************************************************

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी

कुण्डलिया 
लहराए जब रूह पे, महके दिल का गाँव,
धानी चूनर आस की, देती शीतल छाँव.
देती शीतल छाँव, हौसला हो दोबाला,
मारूथल से गंग, निकाले हिम्मत वाला
हार जीत को भूल, सदा बढ़ता ही जाए
सफलता का परचम, जगत भर में लहराए

जिंदा जब तक आस है, भटके ना संसार,
आशा जब तक साथ हो, राहें मिलें हज़ार.
राहें मिलें हज़ार, गगन भी छोटा लागे
आशाओं के पंख, फकत पाएँ बड़भागे
आसमान हो फतह, समझ ले कही परिंदा
देत निराशा मौत, रखे आशा ही जिंदा.

आशा रानी साथ है, हिम्मत रख-बस खेल
कल तेरा ये सोचकर, आज दुखों को झेल
आज दुखों को झेल, भाग ना पीठ दिखा के
दुख नदिया के पार, मिलेंगे सुख दुनिया के
तू आदम की ज़ात, शोभती नहीं हताशा
होगा तेरा अंत, अगर दम तोड़ी आशा.

अँधेरा है दूर तक, शासन बेपरवाह,
वासी मेरे देश का, तके नूर की राह.
तके नूर की राह, तीरगी हर सू छाई
अंधेरों का दौर, नहीं कोई सुनवाई
हे मेरे भगवान, ज़रा सा बाँट सवेरा
फिर से आए भोर, जहाँ से मिटे अँधेरा

सारी दुनिया आस में, ताके हमरी ओर.
देख देख अभिमान से, नाचे मन का मोर,
नाचे मन का मोर, बजे भारत का डंका,
हो जाए सिरमौर, रहे ना कोई शंका
रहे यहाँ ना भूख, गरीबी ना बीमारी,
उठे हमारा शीश, झुके ये दुनिया सारी.

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आदरणीय विक्रम श्रीवास्तव जी

अभी शब् है के कोई ख्वाब सहेजें आओ |
अपनी सुबह को हसीं और भी कर दे आओ |
लम्हे खुशियों के जो बिखरे है आज |
उन्ही लम्हों को फिर से समेटें आओ |
अभी शब् है......

रात काली है मगर चांदनी की तो है आस |
हमको कुछ देर भी हुई तो है आज |
सुबह भूले थे मगर शाम को लौटें आओ |
अभी शब् है.....

बस करो अब अपने नसीब पर रोना |
न कहो के होगा वही जो है होना |
अपनी किस्मत को अपने हाँथ से लिख दें आओ |
अभी शब् है......

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आदरणीय रवि कुमार गिरी

चल दिए दिल्ली के लिए ,
लेकर मन में आशा ,
साथ रहेंगे भारतवासी ,
नई आजादी की अभिलाषा ,
मिला दस करोड़
किसी पिउन के घर में ,
जीते हैं पैसे के लिए ,
लेकर आकंठ प्यास ,
मंत्री से संतरी तक ,
लूट रहे है देश को ,
एक अन्ना से पूरे हिंद में ,
जाग रही हैं आस,

(2)

मन में संकोच ,
लेखनी खामोश ,
आप बने वजह ,
भर दिया जोश ,
ना लिखने की ,
तोड़ दी शपथ ,
बढ़ चला मैं ,
बांधें हुए आस ,
ये पाले विश्वास ,
आज नहीं तो ,
कल ये कलम ,
दिखेगी सब को ,
बिखेरती प्रकाश ,
मन में हैं
आशा यही आशा ,

(3)

जनता को अन्ना से आशा.
सब को देते वही दिलासा ,
नेताओं में हुई हताशा ,
लोकपाल से अब क्या आशा ,
चिदम्बरम को हुई निराशा ,
टू-जी में स्वामी ने फांसा ,
रिश्वतखोरी बढ़े पिपासा ,

************************************************

मोहतरम मुज़ीब सीतपुरी जी

आज तो खैर है दुःख में बीता,
कल की आस पे जीते हैं.
तन्हाई में जहर ग़मों का.
चुपके चुपके पीते हैं.

************************************************

आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह ’सज्जन’ जी

मैं खड़ा हूँ
कृष्ण विवर (black hole) के घटना क्षितिज (event horizon) के ठीक बाहर
मुझे रोक रक्खा है किसी अज्ञात बल ने
और मैं देख रहा हूँ
धरती पर समय को तेजी से भागते हुए

मैं देख रहा हूँ
रंग, रूप, वंश, धन,
जाति, धर्म, देश, तन,
बुद्धि, मृत्यु, समय
सारी सीमाओं को मिटते हुए

मैं देख रहा हूँ
सारी सीमाएँ तोड़कर
मानवता के विराट होते अस्तित्व को
इतना विराट
कि धरती की बड़ी से बड़ी समस्या
इसके सामने अस्तित्वहीन हो गई है

मैं देख रहा हूँ
सूरज को धीरे धीरे ठंढा पड़ते
और इंसानों को दूसरा सौरमंडल तलाशते

मैं देख रहा हूँ
आकाशगंगा के हर ग्रह पर
इंसानी कदमों के निशान बनते

मैं देख रहा हूँ
उत्तरोत्तर विस्तारित होते
दिक्काल (space and time) के धागों को टूटते हुए
ब्रह्मांड की इस चतुर्विमीय (four dimensional) चादर को फटते हुए
और
इंसानों को दिक्काल में एक सुरंग बनाते हुए
जो जोड़ रही है अपने ब्रह्मांड को
एक नए समानांतर ब्रह्मांड (parallel universe) से
जहाँ जीवन की संभावनाएँ
अभी पैदा होनी शुरू ही हुई हैं

मैं देख रहा हूँ
इस ब्रह्मांड के नष्ट हो जाने पर भी
इंसान जिंदा है
और जिंदा है इंसानियत
अपने संपूर्ण अर्जित ज्ञान के साथ
एक नए ब्रह्मांड में

मैं देख रहा हूँ
एक सपना

************************************************

श्रीमती मोहिनी चोड़रिया जी

भोर की पहली किरण
अनछुई सी,
तेजोमयी बनने की
ललक के साथ
उत्साह का संचार करती
जन-जन में
जो पिछली रात के स्याह अन्धेरे में
कहीं गुम हो गया था ।
अन्धेरा हमेशा ही
दहशत पैदा करता है
आदमी को कमज़ोर करता है
ऐसे में
एक दीप जले
जिसकी लौ विश्वास दिलाये,
आशा की डोर थामे रखने का
कि बस, थोड़ी ही देर है
भोर होने में
जब तक प्रकाश की पहली किरण
न मिलेगी
तब तक दूंगी , मैं तुम्हारा साथ ,
अंधियारे के गलियारों को
मैं रखूँगी रोशन तब तक |
ये दीप है मिट्टी का
जो तेल और बाती के
दम पर जलता है ।
दीप, यदि मन के
जला लें
तो इस अधंकार के डर को,
अनास्था के डर को,
हमेशा के लिए खत्म कर सकेंगे
जिस दिन मन के दीप
जल जायेंगे
प्रकाश की किरण
से भी अधिक रोशनी होगी
फिर अंधियारे का डर नहीं
सतायेगा
जीवन की डगर पर चलना
आसान हो जायेगा
डर ही तो अंधेरा है
डर के पार तो बस
जीत ही जीत है,
उजाला ही उजाला है ।

************************************************

श्रीमती वन्दना गुप्ता जी

चाहत कोई भी हो
कैसी भी हो
किसी की भी हो
एक बार नैराश्य के
भंवर में जरूर डूबती है
फिर भी इंसान चाहत की
पगडण्डी नहीं छोड़ता
एक आस का पंछी
उसके मन की मुंडेर पर
उम्र भर चहचहाता रहता है
उसे जीने की एक वजह
देता रहता है
गर आस ना हो
तो शायद जीवन नीरस हो जाये
और रसहीन तो कभी
मानव के हलक से कुछ
उतरा ही नहीं
नवरस से ओत- प्रोत
उसका अस्तित्व कैसे
रसहीन जीवन जी सकता है
शायद तभी नैराश्य में भी
एक आस का बादल
लहलहाता है
और दुष्कर , दुश्वार जीवन में भी
आस के बीज बो जाता है
जीवन चक्रव्यूह से लड़ने के लिए
उसे भेदने के लिए
और लक्ष्य को हासिल करने के लिए
वो आस के रथ पर सवार हो
मछली की आँख पर
निशाना साधता है
और विजयरथ पर सवार हो
दिग्विजय पर निकल पड़ता है
आस का संबल ही तो
असफलता में भी सफलता
दिलाता है
अंधकार से प्रकाश की
ओर ले जाता है
मानव के हौसलों को बढाता है
यूँ ही हिमालय फतह नहीं होते
यूँ ही नहीं अन्तरिक्ष में डेरे बने होते
यूँ ही नहीं राधा को मोहन मिला करते...........

************************************************

श्रीमती लता आर ओझा जी

ज़िन्दगी के हाथ से छूटता लम्हा ...
मन में फिर भी बसी आस की सुवास ..
सुवास को हर सांस लूटता लम्हा..
मंथर गति चलती हर दिन की कथा ..
समेटती हंसी ,मुस्कान, आंसू और व्यथा ..
कुरेदती सोच को ,ढूंढती बीता यथार्थ..
और चुनती उसमें से आस का लम्हा..
बाँध ली गठरी,चढ़ने को अर्थी ..
कुछ मनोयोग से कुछ अनमनी ..
होती व्याकुल अब भी आहट पे अटकती
आँखें द्वार पर और अन्दर सांस ..
बेटा अब तो आएगा..चलदी..लिए आस..
और तकती..शून्य को ..

************************************************

.

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SARI RACHANAYE EK JAGAH DEKH ACHCHHA LAGTA HAI.Saurabh ji jaise hanth jab is kary me lage ho to sone me SUHAGA.

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