ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या माह दिसम्बर 2018 – एक प्रतिवेदन
प्रस्तुति: डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव
रविवार 23 दिसम्बर 2018, को ओ.बी.ओ लखनऊ-चैप्टर द्वारा वर्ष की अंतिम ‘साहित्य संध्या‘ डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव के आवास, 537 A /005, महाराजा अग्रसेन नगर, लखनऊ पर उन्हीं के संयोजन में सम्पन्न हुआ i हिन्दी प्रेमियों के लिए यह एक यादगार दिन है, क्योंकि वर्ष 2008 में इसी दिन ‘कोहरे के कैद रंग’ उपन्यास के लिए विख्यात कथाकार गोविन्द मिश्र को हिदी भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था I इस कार्यक्रम की अध्यक्षता कथाकार डा. अशोक शर्मा ने की I सञ्चालन का दायित्व गीत एवं ग़ज़ल पर समान अधिकार रखने वाले मधु-कंठ आलोक रावत ‘आहत लखनवी ‘ ने निभाया I
कार्यक्रम दो चरणों में बँटा हुआ था I प्रथम चरण में प्रत्येक प्रतिभागी को यह बताना था कि उसके जीवन में “साहित्य सृजन की प्रेरणा और विकास का उत्स“ क्या था अर्थात उसमें रचनाधर्मिता का उद्भव और विकास कैसे हुआ ? संचालक ने इस हेतु सबसे पहले डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव को आमंत्रित किया I डा. श्रीवास्तव ने बताया कि उनके माता-पिता दोनों ही कवि हृदय थे I माँ चूंकि बचपन में ही गुजर गयी थी अतः उनकी कोई रचना उन्हें देखने को नहीं मिली, पर पिता की तुकबन्दियाँ उन्हें बचपन में बहुत भाती थी I हिन्दी के प्रति उनका रुझान नैसर्गिक था किन्तु कल्पना शक्ति का विकास उन उपन्यासों को चोरी से पढने पर हुआ जो उनके पिता जी पढ़ा करते थे I इब्ने शफी और प्रेमचंद के उपन्यास उन्होंने तभी पढ़े थे I हिन्दी के प्रति उनकी रुचि ने ही उन्हें हिदी का विद्यार्थी बनाया और आज भी वे महज एक छात्र ही हैं I
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने बताया कि उनके पिता का परिचय फिल्म गीतकार शैलेन्द्र से था I उस वातावरण का उन पर प्रभाव पड़ा i उनकी संगीत में रुचि थी और कवि सम्मेलनों में भी जाया करते थे i बहुत से नामचीन कवियों को सामने से सुना I धीरे धीरे मन में लिखने की अकुलाहट पैदा हुयी I पहली रचना पत्नी के कहने पर रची और उन्हीं को सुनाया I फिर वे फेस बुक से जुड़े I धीरे-धीरे वे साहित्यकारों के सम्पर्क में आते गए और विभिन्न संस्थाओं से जुड़ने लगे . लिखते-लिखते हौसला बढ़ता गया I
कथाकार डा. अशोक शर्मा ने कहा कि उन्हें कविता करने का न कोई गणित आता है न ही कुछ और. वे तो जो मन में आता है लिख देते हैं, जिसे समझ में आये तो कह दे कविता और न समझ में आये तो न कहे कविता. जहाँ तक गद्य की बात है, उसका उन्हें ध्यान है कि स्वामी प्रतिवेदांत की किताब पढ़ते-पढ़ते सोचा था जब कृष्ण भगवान के सारे काम हो गए तो क्या उनके मन में गुजरी होगी, जब किसी को लगे कि अब दुनिया से चलना है तो क्या लगता होगा ! इन्ही सोच के साथ उन्होंने लिखना शुरू किया I पहली किताब ‘कृष्ण’ के नाम से आयी I फिर ‘सीता सोचती थीं’ और ‘सीता के जाने के बाद राम’ लिखा I अभी शिव जी पर कुछ लिखा है I
डा. शरदिंदु ने बताया कि भाषा और साहित्य के प्रति आकर्षण छोटी उम्र से ही रहा . अपने अन्टार्कटिका अभियानों में समय काटने के लिए वे किसी का बर्थ डे, किसी की मैरिज एनीवर्सरी अदि अवसरों पर कुछ साहित्यिक गतिविधि करते थे I अभियान दल के सदस्यों को उनकी रचनाएँ बहुत पसंद आयीं I फिर वह एक आदत बन गयी I बस शुरुआत वहीं हुयी I फिर वे ओबीओ से जुड़े I उसमे अंटार्कटिका के बारे में कुछ लिखा I ओबीओ के पाठकों को पसंद आया तो उन्ही वर्णनों का संकलन करके ‘पृथ्वी के छोर पर‘ पुस्तक लिख डाली I अब इसका अंग्रेजी संस्करण भी आ चुका है I
डा. अंजना मुखोपाध्याय ने बताया कि साहित्य में रुचि की शुरुआत स्कूल के दिनों से हुयी I स्कूली शिक्षा बांग्ला में होने के कारण बांग्ला लेखन में ही आत्मविश्वास ज्यादा है I जब उनसे ओ बी ओ के साथ जुड़ने की पेशकश की गयी तो उनके मन के अन्दर एक दुविधा थी, क्योंकि हिन्दी उन्होंने कभी पढ़ी नहीं थी i उन्हें लगा यह बैक डोर एंट्री होगी I कॉलेज के दिनों में रिफ्रेशर कोर्स के दौरान उन्होंने चार-चार पंक्तियों की कविताएँ लिखनी शुरू की जिन्हे खूब सराहा गया. उसको शायद पहली स्वीकृति मान सकते हैं I
कवयित्री कुंती मुकर्जी का जन्म मारीशस में हुआ था I साहित्यिक माहौल उन्हें घर और स्कूल दोनों जगह से मिला I मॉरीशस में भारत के राजदूत के प्रयास से वे कुछ अन्य बच्चों के साथ हाई कमीशन के पाठागार में नियमित रूप से जाने लगी. पहले वे फ्रेंच में कविता करती थी पर हाई कमिश्नर के आग्रह पर उन्होंने हिन्दी में लिखना शुरू किया I हिन्दी के कठिन शब्दों के अर्थ और उनके उच्चारण उन्हें उनके भारतीय पति ने सिखाये I
ग़ज़ल के चितेरे आलोक रावत ने कहा कि उनका बचपन संगीत के प्रति समर्पित पारिवारिक माहौल में गुजरा है I स्कूल और कॉलेज के दिनों में उन्हें लिखने का शौक नहीं था पर वे गाते जरूर थे I जब उनका पी जी खत्म हुआ और सब विदा होने लगे तब उन्होंने पहली बार एक शेर सबकी डायरी में लिखा – यादों के दायरे में घिर जाओगे कभी जब I धुंधला सा एक साया उसमे मेरा भी होगा i’ लखनऊ स्थित ‘अनागत साहित्य संस्थान’ के बैनर तले काव्य पाठ करने का पहला अवसर मिला और अगले दिन वह पेपर में वह मोटे-मोटे अक्षरों में छप भी गया I लखनऊ की तमाम गोष्ठियों में उनकी उपस्थिति बढ़ती गयी i लोगों को सुनते रहे, सीखते रहे और इसी तरह वे एक दिन ओबीओ से जुड़ गए I यात्रा जारी है.
हास्य कवि मृगांक श्रीवास्तव ने कहा कि वे साइंस के विद्यार्थी थे I उनकी पत्नी बहुत विदुषी होने के कारण घर में पढ़ाई का माहौल रहता था I उनकी रूचि हास्य-व्यंग्य में थी I नौकरी से रिटायरमेंट के बाद वे डा. अशोक शर्मा के साथ कवि गोष्ठियों में जाने लगे I ‘अनंत अनुनाद ‘ संस्था में उनका रजिस्ट्रेशन भी हुआ जहाँ संस्था के संचालक हरी जी की प्रेरणा से पहले कुछ सुनाते रहे और फिर लिखना भी शुरू किया I
कवयित्री आभा खरे ने कहा कि बचपन से ही कुछ अन्दर था, जो अक्सर निबंध या लेख के रूप में आत्मप्रकाश करता था I क्रमश: बच्चों के बाहर चले जाने और पतिदेव के ट्रांस्फ़र हो जाने के बाद जब वे अकेली रह गयीं तो फेसबुक सीखकर उन्होंने साहित्य से अपनी दोस्ती शुरू की जो आज तक चल रही है i इसमें उन्हें विशेष रूप से सुश्री पूर्णिमा वर्मन और सुश्री संध्या सिंह का सहयोग मिला I
कार्यक्रम के दूसरे चरण में संचालक के आह्वान पर सबसे पहले डा. अंजना मुखोपाध्याय ने अपना काव्य पाठ किया I डा. अंजना की अर्थ गर्भित कविताओं ने यह सत्य उद्घाटित किया कि हिंदी के प्रति अज्ञानता जताना महज उनकी विनम्रता है और यदि ऐसी शक्ति उनकी हिन्दी कविता में है तो बांग्ला में वे कितना कहर बरपा करती होंगी I उनकी कविता जिसमे उन्होंने दुनिया को अपनी भावना के कैमरे से कई एंगल से देखा है उसका एक उद्धरण इस प्रकार है –
लौट रही है अहसास की दुनिया / छूटती मुठ्टी से सूखी रेत की सरसराती सी सरकती दुनिया / बहाव की थरथराती सब्ज पाषाण सी दुनिया / ठहराव की पथरीली श्मसान सी दुनिया
हास्य कवि मृगांक श्रीवास्तव ने कुछ बहुत चुटीली हास्य व्यंग्य की रचनाएँ सुनाई और वातावरण को पुरलुत्फ बनने में खासे सफल हुए I उनकी एक व्यंग्य रचना इस प्रकार है -
‘ग्राहक भगवान है’ पहले दुकानों में लिखा होता / तो देवता होने का अहसास होता अब लिखा होता है कि / आप सी सी टी वी के कैमरे की निगरानी में हैं / तो खुद को चोर जैसा होने का अहसास होता है
कवयित्री आभा खरे ने एकाधिक गीत सुनाये I ‘नीरवता के चौराहे पर मन पाखी फिर आज डरा है’ को काफी पसंद किया गया I उन्होंने सपने और हकीकत के अंतर को भी अपने गीत में बड़ी खूबी से स्पष्ट किया जिसकी बानगी इस प्रकार है - कहा गया था जी भर जी लो / रहे सोच पर पहरेदारी / तम से लड़ने के खातिर है जुगनू की भी हिस्सेदारी / पंख उगाना बहुत सरल पर मुश्किल पिंजरे से टक्कर है / सपने बोना बहुत सरल पर जमीन हकीकत की बंजर है
कवयित्री कुंती मुकर्जी की कविताओं में एक ओर अल्हड बालपन है वहीं उसमे आधारहीन, बेबस एवं लाचार, भीख माँगती नारी के जीवन की गहनतम अनुभूति को अभिव्यक्ति देने की अद्भुत क्षमता भी है जो निराला के ‘वह तोड़ती पत्थर’ की याद ताजा कराती है I निम्नांकित उद्धरण इस सत्य का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज है i
------ तू कुछ काम क्यों नहीं करती ? / काम मैं तो कर रही हूँ, / सुबह से शाम तक भूखी प्यासी, / कड़कती धूप में लोगों की अवहेलना सहती हुयी / माँगना क्या सहज काम है ?
जीवन में अनुकूलतायें और प्रतिकूलताएं दोनों होती हैं i पर यदि प्रतिकूलता का ही पलड़ा भारी है तो मन में अवसाद का आना स्वाभाविक है i अपने चिंतन में कवि एवं ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य ‘ कुछ ऐसे ही अनुभवों से इस प्रकार रूबरू होते हैं -
यहाँ ऐश्वर्य चुम्बक बन / सदा है खींचता मन को / विकृत मानस अधिकतर मानता आराध्य धन को / सकल आदर्श जीवन से जुड़े हैं वाष्प सम ऐसे कि / अब अवशिष्ट छद्मी शिष्ट ही हैं मार्ग दर्शन को / जहाँ पर स्वच्छता चाही वहाँ पर धूल पाता हूँ यह सच है मैं हवा की गति सदा प्रतिकूल पाता हूँ
डा. शरदिंदु मुकर्जी ने हमेशा की तरह पहले गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की कविता ‘ मंगल गीति’ का हिन्दी में अपने द्वारा किया गया उल्था सुनाया –
महासिन्धु आवृत विशाल यह धरती / सागर सा लहराता आकाश / दो दिन यहाँ रहकर मानव / माँ करेंगे क्या केवल हास परिहास / गंगा क्या हिमगिरि से इसीलिए बह रही ? / अरण्य सब ढो रहे है फूल और फल / शत कोटि सूर्य तारे हम सबको घेर / क्या इसीलिए गिन रहे है हर क्षण- हर पल
हमारे आर्ष ग्रन्थ एक अनुत्तरित प्रश्न का अतिशय संधान करते हैं कि जीव, संसार, प्रकृति , जड़ और चेतन के बनने और बिगड़ते रहने के शाश्वत क्रम का उद्देश्य क्या है ? कुछ ऋषि इसे भगवान की लीला कहते हैं I पर यह लीला क्यों ? कोई बच्चा कुछ बनाता है और फिर उसे तोड़ता है तो हम उसे बाल-क्रीड़ा कह सकते हैं I पर ईश्वर तो अबोध नहीं है I फिर क्यों वह जीवन देता है और ले लेता है I डा. शरर्दिदु का प्रश्न ठीक इस जैसा तो नहीं है पर वे अपने बोध और चैतन्य के बीच पुल बनाते हुए जीवन और मृत्यु के बीच अपने अस्तित्व को अवश्य ढूँढ़ना चाहते हैं और इसके लिए वे मदद मागते हैं किससे ? ईश्वर से I उनकी व्याकुलता कुछ इस प्रकार है –
मैं अपने बोध और चैतन्य के बीच पुल बाँधना चाहता हूँ / क्या तुम मेरी मदद करोगे ? / जन्म से मृत्यु के बीच अपने अस्तित्व को ढूँढ़ना चाहता हूँ / क्या तुम मेरी मदद करोगे ?
आजकल कुछ अवसरों पर ‘देवी जागरण’ का आयोजन होता है और खूब होता है I इन आयोजनों से एक ओर रात की नीरवता बाधित होती है तो दूसरी ओर बूढ़े लोगों को, रोगियों को और पढ़ने वाले छात्रों को परिणामी ध्वनि प्रदूषण का खामियाजा भुगतना पड़ता है I इस परिस्थिति का एक बड़ा ही करुण चित्र डा, गोपाल नारायण की कविता ‘जागरण’ में मिलता है I इस कविता के अंश कुछ इस प्रकार है -
भित्ति पर थे काँपते / कुछ चित्र स्नेही परिजनों के दाईयों के / सुन न पाते थे जो अपने स्वर परस्पर देवी भक्तों के विकट उद्घोष से / जागती थी चेतना ज्यों-ज्यों जननि में / डूबता जाता था त्यों-त्यों जीव वह / तन्य होता था वपुष धनु आकार में भीरु माता लौ लगाये ‘जागरण’ पर
संचालक आलोक रावत ‘आहत लखनवी‘ ने अपनी ग़ज़ल रवायती अंदाज में पढ़ी I महबूबा की एक नज़र अंधेरा दूर कर ज़िंदगी रोशन करने के लिए काफी है I मगर दुनिया की उलझने इस उजाले से हल नहीं होती I शेर मुलाहिजा है –
तीरगी जब भी हमारी जान की दुश्मन हुयी / आपकी बस इक नजर से जिन्दगी रोशन हुयी / हमने इस दुनिया को थोड़ी देर तक सोचा मगर / सोचने के बाद काफी देर तक उलझन हुयी
कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष डा. अशोक शर्मा ने अपना काव्य पाठ इस प्रकार किया –
कागज कलम हाथ में लेकर बैठा / सोचा चलो एक कविता लिखते हैं I / कुछ पीड़ा कुछ दर्द उकेरेंगे कागज़ पर / और ज़माना कैसा, ऐसा-वैसा जैसा है लिखते हैं /किन्तु स्वयं का भी विश्लेषण लिखना है क्या ?
इसके बाद सूक्ष्म जलपान की व्यवस्था थी I लोग चाय का लुत्फ़ उठा रहे थे I मुझे अध्यक्ष महोदय की काव्य पंक्ति कचोट रही थी - किन्तु स्वयं का भी विश्लेषण लिखना है क्या ? कितना दुरूह कार्य है आत्म विश्लेषण करना और उससे भी दुरुह है उसे ईमानदारी से करना I हम आत्म-मुग्ध न हों इसके लिए अपने आप को गंभीरता से टटोलना आवश्यक है -
सदा देखते रहे चक्षु से अवगुण सबके / मन से सबको है मैंने प्रतिपल धिक्कारा / नहीं टटोला कभी भूल कर अंतर्मन को
विष पीकर ही बीत गया है जीवन सारा (सद्यरचित )
Tags:
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |