ओबीओ लखनऊ-चैप्टर साहित्यिक संध्या, माह सितम्बर 2018 – एक प्रतिवेदन
-डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव
रविवार, 16 सितम्बर 2018 को 37, रोहतास एन्क्लेव, फ़ैजाबाद रोड, लखनऊ अर्थात ओ बी ओ लखनऊ-चैप्टर के संयोजक डॉ. शरदिंदु मुकर्जी के आवास पर माह सितम्बर की साहित्य-संध्या का समारंभ सायं 3 बजे हुआ I
कार्यक्रम के प्रथम-चरण में डॉ. अशोक शर्मा के चर्चित उपन्यास ‘सीता सोचती थीं’ पर परिचर्चा हुयी I इस परिचर्चा में सबसे पहले उपन्यास के लेखक डॉ. शर्मा ने उपन्यास रचना के प्रेरणा स्रोतों पर संक्षिप्त चर्चा की I बाद में डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने विस्तार से अपनी बात रखी I उन्होंने बताया कि तुलसी के राम पर विष्णु के अवतार का भार होने के कारण इतिहास पुरुष और लोकनायक राम का मनुष्य रूप उभर कर सामने नहीं आ पाया I परिणाम स्वरुप हिदी के कवि और बाद में कथाकारों ने रामाख्यान को अपनी रचना का आलम्बन बनाया I इस कड़ी में डॉ. अशोक शर्मा का उपन्यास ‘सीता सोचती थी’ (प्रकाशन, 2017) एक उल्लेखनीय उपन्यास है I सीता के वनवास पर घडियाली आँसू बहाने वाले तो बहुत हैं, पर उसको तर्कपूर्ण दृष्टि से देखने की समझ बहुत कम रचनाकारों में दिखाई देती है I इस दृष्टि से ‘सीता सोचती थीं’ एक महत्त्वपूर्ण रचना है I यह उपन्यास नायिका प्रधान है I राम इसमें विशेष चरित्र की भूमिका में हैं I रामायण और रामाख्यानक काव्यों एवं उपन्यासों में सीता के प्रति सहानुभूति के चित्र ही प्रायशः अधिक उपलब्ध होते हैं, पर यह उपन्यास एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाता है कि क्या सीता सचमुच एक साधारण और निरीह चरित्र हैं, जिनका काम केवल आँसू बहाना है या जिस पर केवल सहानुभूति ही की जा सकती है ? डॉ. शर्मा ने अपने उपन्यास में इस मिथ को तोड़ा है और सीता को विदुषी, चिन्तनशील एवं परिपक्व भारतीय नारी के रूप में प्रतिपादित किया है, जिसकी अपनी एक सुविचारित सोच है और जो पूरी दृढ़ता से आत्मनिर्णय लेने में सक्षम है I उपन्यास का ताना-बाना बड़ी सावधानी से बुना गया है और राम-कथा को अधिकाधिक सीता पर केन्द्रित रखने का प्रयास हुआ है I सीता प्रारब्ध पर विश्वास करती है इसीलिये किसी को दोष नहीं देती I कैकेयी को भी नहीं I वह अपनी गलतियाँ भी मानती हैं I डॉ. शर्मा ने इस उपन्यास में सीता के व्यक्तित्व और चरित्र को सर्वथा नए प्रतिमान दिये हैं, इस बात में कोई संदेह नहीं है I
आलोक्र रावत ‘आहत लखनवी’ ने उपन्यास के शीर्षक के औचित्य पर प्रकाश डाला I उपन्यास का शीर्षक कथा को अपने में समेटता है और सबसे बड़ी बात कि वह पढ़ने की जिज्ञासा जगाता है I
डॉ शरदिंदु मुकर्जी ने उपन्यास के अंत की ख़ूबसूरती को सराहा I उपन्यास के अंतिम दृश्य में सीता ‘अश्वमेध’ यज्ञ की प्रज्वलित अग्नि पर हाथ लेकर पवित्रता की शपथ एक बार फिर लेती हैं I परन्तु यह इत्यलम नहीं है I सीता कितनी बार परीक्षा देगी I इस परीक्षा का कोई अंत होना चाहिए और सीता ने सोच लिया है I वह दृढ़ संकल्पित है I सीता अचानक यज्ञशाला छोड़कर वन की ओर प्रस्थान करती है I इससे पहले कि राम और अयोध्यावासी कुछ समझें वह दूर जा चुकी है I अब एक भारी भीड़ उनकी तलाश में है I राम सीता के पदचिह्नों के पीछे विक्षिप्तों की भाँति भाग रहे हैं I एक कुञ्ज के नीचे धरती पर कुछ दरारे हैं I यहाँ कुछ फूल पड़े हैं पर सीता का कहीं पता नहीं है I उपन्यास का यह अंतिम दृश्य कई सवाल छोड़ जाता है. डॉ. मुकर्जी के इस अभिकथन के साथ ही परिचर्चा यहीं समाप्त होती है I
कार्यक्रम के दूसरे चरण में काव्य-पाठ का आयोजन हुआ I इस काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता का दायित्व डॉ. अशोक शर्मा ने निबाहा और सञ्चालन सुश्रव्य ग़ज़लकार आलोक्र रावत ‘आहत लखनवी’ द्वारा किया गया I वर्तमान प्रतिवेदक ने ‘साकेत’ महाकाव्य की उपालम्भ-वंदना से काव्य-पाठ का सूत्रपात किया I इसके बाद काव्य-पाठ के लिए सर्वप्रथम ग़ज़ल-ए-बेबह्र की नयी विधा का परचम उठाने वाले जमात के नौजवान शायर नूर आलम ‘नूर’ का आह्वान हुआ I उनके शेर का एक आईना इस प्रकार है –
गुलों की शाख को तुम इस तरह बर्बाद न करो I
निवाले छीन कर खुद को कभी आबाद न करो I I
कवयित्री अलका त्रिपाठी ने जीवन की त्रासदियों को नई परिभाषा देते हुए अपनी बात कुछ इस प्रकार कही –
जिन्दगी की हर खुशी रेहन पड़ी है
खो गये मधुमास वाले दिन I
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने पहले गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की मूल बांग्ला कविता “बिदाय” का भावानुवाद सुनाया. एक बानगी –
क्षमा करो, धैर्य धरो
हो सुंदरतर
विदायी क्षण –
मृत्यु नहीं, ध्वंस नहीं
विच्छेद का भय नहीं
मात्र समापन –
मात्र सुख से स्मृति
व्यथा से गुंजरित गीति
और तरी से तीर
खेल से उत्पन्न श्रांति
वासना से प्राप्त शांति
और नभ से नीड़.
फिर उन्होंने प्रेम रस से ओतप्रोत अपनी एक पुरानी रचना का पाठ किया –
तुम्हारे उपवन के उपेक्षित कोने में
एक नन्हा सा घरौंदा है,
जहाँ मैं और मेरी तन्हाई
साथ-साथ रहते हैं –
क्या तुमने कभी देखा है ?
कवयित्री कुंती मुकर्जी ने रूसी (Russian) कवि आंद्रेइ वोज्नेसेन्सकी की अनूदित कविता ‘बोध कथा : एक कलाकार की‘ का पाठ किया. कुंती जी रूसी भाषा नहीं जानती हैं. अत: उन्होंने गूगल की सहायता से उक्त रचना का हिंदी अनुवाद लेकर उसे अपने शब्द दिये. कविता का एकांश इस प्रकार है -
मर गया कला के हाथों यातनाएँ सहता कलाकार
दाँत निपोरने लगा वह हृदयविहीन तारा,
अब बिना लटकाये भी लटकी ही रहती है
कील-विहीन तारे की तस्वीर।
इसके बाद सुश्री कुंती ने ‘प्रेम’ पर अपनी अभिव्यक्ति कुछ इस प्रकार दी कि हठात कबीर के एक दोहे की याद ताजा हो आयी –
यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं I
शीश उतारे, भुंइ धरै, तब पैठे घर मांहि I I
कुंती जी ने इस भाव का सम्प्रेषण बड़ी सहजता से इस प्रकार किया –
इतना आसन नहीं है प्रेम पाना
और उसे पाकर मिट जाना I I
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य’ की चिंता का आलम्बन पर्यावरण है I वन और धरती पर फैले वृक्षों के अनवरत विनाश से प्रकृति के पर्यावरण का संतुलन जिस सीमा तक बिगड़ गया है, वह आने वाले समय की सबसे बड़ी चुनौती होगी I इसीलिये ग़ज़लकार कहता है-
कुल्हाड़ी हमने पेड़ों पर नहीं पैरों पर मारी है I
कि मीलों तक दरख्तों का कहीं साया नहीं मिलता I I
संचालक आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने एक ऐसे विषय पर भाव एवं प्रभावपूर्ण कविता पढ़ी कि हृदय रोमांचित हो उठा और राष्ट्रीयता की उद्दाम लहरें मानो वातावरण को करुण करने के अभियान में लग गयीं I वतन के लिए शहीद हुए एक जवान की आत्मा जहाँ शहादत पर गौरवान्वित एवं मगन है वहीं अपनी माँ (जननी जन्मभूमि) की संवेदनाओं के प्रति सजग भी I इस कविता का भाव विन्यास सहज भाषा के अवगुंठन में बड़ा ही मोहक बन पड़ा है I यथा-
धरती माता ने आवाज दी है आज पूरा सपन हो रहा है I
आज दिल मेरे वश में नहीं है और मन भी मगन हो रहा है I I
नैन होते थे तेरे सजल जब
देखकर चोट हल्की सी मेरी I
गोलियों से मेरा सीना छलनी
कैसे सह पायेगी मातु मेरी I I
खून से तरबतर देख ले माँ आज तेरा लालन सो रहा है I
धरती माता ने आवाज -------------------------------
डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने माता-पिता के सम्मान में एक कविता पढ़ी कि किस तरह इस संसार में अपने बच्चों को स्थापित कर उनके हाथ फिर हमेशा-हमेशा के लिए अपनी सन्तान से दूर हो जाते हैं –
पहले सदर्भ प्रसंग सहित इस धरती में परिभाषित कर I
फिर हो जाते हैं हाथ दूर जीवन का दीप प्रकाशित कर I I
डॉ. श्रीवास्तव ने एक ग़ज़ल भी पढ़ी जिसका अंतिम शेर लोगों को गुदगुदा गया-
आ गया मैं छोड़ जन्नत के मजे
लखनऊ मेरा ठिकाना फिर हुआ I
अंत में अध्यक्ष डॉ. अशोक शर्मा ने लिखने और पाने की कशमकश में अपनी असहाय स्थिति का खुलासा करते हुए कहा -
कितने गीत लिखे हों मैंने सच लिख पाना शेष I
कुछ भी पाया हो मैंने पर तुमको पाना शेष I I
इसी के साथ गोष्ठी को सम्पूर्णता प्राप्त हुयी I सभी लोग डॉ. शरदिंदु के आतिथ्य का मजा ले रहे थे और मैं आलोक्र रावत ‘आहत लखनवी’ की कविता की यूटोपिया में खोया था I मैंने भी कभी एक प्रश्न आज के तथाकथित राष्ट्रभक्तों से किया था –
कब वीरों की दग्ध चिता पर कब समाधि पर आओगे I
कब सुख से सूखे जीवन में करुणा के घन लाओगे I I
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