अभिनव अरुण जी
गांधी बता के मारा ईसा बता के मारा ,
सच को सदा हमीं ने सूली चढ़ा के मारा I
भेजूं हज़ार लानत तुझपे कि ए सियासत ,
सेवा की भावना को धंधा बना के मारा I
मूल्यों के ह्रास की अब धारा अजब बही है ,
बेटों ने अपने हक में सबकुछ लिखा के मारा I
आँगन के बीच तुलसी माँ थी तेरी निशानी ,
कमरे की चाहतों ने उसको सुखा के मारा I
परवान कब चढ़ेंगी अरबों की योजनायें ,
सारे शहर को तूने गड्ढा बना के मारा I
ए शहर ! गाँव में थे, तो हम जियादा खुश थे ,
थोथे विकास का क्यों चाबुक चला के मारा I
मत हाल पूछिये उन सपनो की असलियत का ,
इसको हंसा के मारा उसको रुला के मारा I
तुझमें किरण बछेन्द्री दुर्गा भी तुझमे बसती ,
हमने तेरे हुनर को पर्दा करा के मारा I
सब जीव पेड़ पौधे फ्लैटों में कब रहे हैं ,
हरियालियों पे हमने जंगल बिछा के मारा I
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अमित मिश्र जी
१.
हर पल मुझे शहर ने आँखें दिखा के मारा
पर गाँव, खेत ने निज कायल बना के मारा
हर एक के नजर में दहशत मुझे दिखा है
शायद किसी बहू को फिर से जला के मारा
ये प्यार बन रहा है सौदा कठिन, जहर सा
पुतला बना हवस का बकरा बना के मारा
वो बीच राह पर दस दिन से तड़प रही है
रोटी दिया न कोई , डायन बता के मारा
जोकर बना "अमित" बातों से क्या किया, जो
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
२.
नखरे दिखा के मारा, जलवे दिखा के मारा
वो प्रेमिका गजब थी, पागल बना के मारा
जब रेल हादशे में दुनियाँ उजड़ गया, तो
सरकार ने सभी को पैसे सुँघा के मारा
है कसम यार तुझको थोड़ी शराब पी लो
गर सनम ने कभी भी गम में डुबा के मारा
हम लाश बन गये हैं पर साँस चल रही है
जब से विरह जलन में आशिक जला के मारा
ढाते सदा गजब हीं कवि शब्द वाण बन कर
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
मादक शबाब ने तो तबियत बदल दिया था
जुल्मी नकाब ने फिर पल पल सता के मारा
केवल गुलाल मल के होली नहीं जमेगी
इस बार "अमित" ने तो पी के पिला के मारा
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अरुण कुमार निगम जी
१.
हम को पड़ोसनों ने , जलवे दिखा के मारा
शायर से छेड़खानी ! गज़लें सुना के मारा ||
होली के दिन सुनोजी , ऐसा नशा चढ़ा था
पिचकारियों में दारू , थोड़ी मिला के मारा ||
चैटिंग में पहले लूटा , डेटिंग में था फँसाया
फिर बाद की न पूछो ,दूल्हा बना के मारा ||
बाजार – भाव सुन कर , हैरान आदमी है
हर रोज मुफलिसों को,कीमत बढ़ा के मारा ||
कातिल के हाथ खाली, खंजर न तीर फिर भी
इसको हँसा के मारा , उसको रुला के मारा ||
२.
बी. पी. चढ़ा के मारा , शूगर बढ़ा के मारा
ढलती हुई उमर ने , धत्ता बता के मारा ||
जब खा नहीं सका तो उन पर रिसर्च की है
पकवान को इशक ने ,चस्का लगा के मारा ||
पीली चुनर सँभाले , सिमटी रही जलेबी
भुजिया ने भावनायें , उसकी जगा के मारा ||
गुझिया लजा रही थी , लड्डू ने आँख मारी
पर चांस इमरती ने, था बच बचा के मारा ||
रोया गुलाब-जामुन , बरफी बहक गई थी
रसगुल्ले तू ने चाँटा ,क्यों दोस्ती पे मारा ||
था भांग का भगोना , सामान खुदकुशी का
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा ||
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१.
बासी रखी मिठाई मुझको खिला के मारा,
मोटी छुपाके घर में पतली दिखा के मारा.
जैसे ही मैंने बोला शादी नहीं करूँगा,
साले ने मुझको चाँटा बत्ती बुझा के मारा.
उसको पता चला जब मैं हो गया दिवाना,
मनमोहनी ने धोखा मुझको रिझा के मारा.
आया बहुत दिनों के मैं बाद ओ बी ओ पर
ग़ज़लों के माहिरों ने मुझको हँसा के मारा.
तकदीर ने हमेशा इस जिंदगी के पथपर
इसको हँसा के मारा उसको रुला के मारा ...
२.
जीजा बुरा न मानो होली बता के मारा,
सूरत बिगाड़ डाली कीचड़ उठा के मारा.
खटिया थी टूटी फूटी खटमल भरे हुए थे,
सर्दी की रात छत पर बिस्तर लगा के मारा.
काजल कभी तो शैम्पू बिंदी कभी लिपिस्टिक,
बीबी ने बैंक खाता खाली करा के मारा.
अंदाज था निराला पहना था चस्मा काला,
इक आँख से थी कानी मुझको पटा के मारा
गावों की छोरियों को मैंने बहुत पटाया,
शहरों की लड़कियों ने बुद्धू बना के मारा.
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अविनाश एस० बागडे जी
१.
इक बार ही तो मैंने, बेलन उठा के मारा,
शौहर कवि थे मेरे ,कविता सुना के मारा .
उसकी हर इक अदा में ऐसी थी मारा -मारी,
नज़रे उठा के मारा, अंखिया झुका के मारा.
कहते हैं पीनेवाले, कसम है मयकशी की,
साकी ने मैकदे में , जलवा दिखा के मारा .
चित भी है तेरी मौला,पट भी तेरी खुदाया,
इसको हंसा के मारा ,उसको रुला के मारा .
अपने विरोधियों को ,इस भ्रष्ट सियासत में,
लालू के तेवरों ने , चारा खिला के मारा !!!!
२.
शतरंज की बिसाते जैसे बिछा के मारा ,
किस घाट पे हमें भी किस्मत ने ला के मारा .
शम्मा ओ परवाना तेवर है शायरी के,
नादान थे पतंगे , लौ ने जला के मारा .
बैठे थे मुंह छिपा के पर्दों में सात अपना,
हर हाल में कज़ा ने बाहर बुला के मारा .
देखा है दफ्तरों में ,अक्सर यही नज़ारा ,
लोगों ने बाबूओं को,खिला-पिला के मारा .
परवर दिगारे आलम ,तेरा है खेल सारा,
इसको हंसा के मारा ,उसको रुला के मारा .
क्या दोष बच्चियों का,बुजदिल बता न पाये,
कोख में ही जिनको साज़िश रचा के मारा !!!
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अशफाक अली (गुलशन खैराबादी) जी
कभी रुख से अपने पर्दा मुझे यूँ उठा के मारा
जलवा भी अपने चिलमन से दिखा दिखा के मारा.
साकी से मुझको शिकवा न गिला मुझे किसी से
ग़म-ए-इश्क ने तो मुझको यूं रुला रुला के मारा.
सारे जहाँ से अच्छे हिन्दोस्तां को जालिम
दुश्मन समझ के लूटा आशिक बना के मारा.
खिलने लगी कली तो भौरों ने मुस्कुरा कर
कभी चूम चूम मारा कभी गुनगुना के मारा.
कभी टीम इंडिया में है चला सचिन का बल्ला
कभी चार रन की धुन में छक्का घुमा के मारा.
मुझको बना के पागल उसको बना के आशिक
इसको हंसा के मारा उसको रुला के मारा.
ऐसा कभी नज़ारा "गुलशन" है तुमने देखा
कलियाँ जो मुस्कुराई भवरों ने गा के मारा.
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अशोक कुमार रक्ताले जी
जब रंग ना चढ़ा तो उसने पटा के मारा,
शायर था सीधा साधा गजलें सुना के मारा |
होली कहाँ चढ़ी थी बस भांग घिस रहा था,
पिसता रहा सदा मैं भंगी बना के मारा |
दोनों मिले हुए थे जब रंग मुझ पे डाला,
मेरी ही जेब से था मुझ पे चुरा के मारा |
हम सब पुते हुए थे इक रंग दिख रहे थे,
उसने बुला बुला के मुखड़ा धुला के मारा |
थाली सजी हुई थी रोटी अचार पापड,
खाना गरम बना था खाना खिला के मारा |
रिश्ता ‘अशोक’ है ये साथी पड़ोसियों का,
इसको हँसा के मारा उसको रुला के मारा |
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गणेश जी ‘बागी’
महँगाई का ये दानव, ऐसा नचा के मारा,
भूखे सुला के मारा, भूखे जगा के मारा ।१।
अब मारना तो उसकी फितरत में ही है शामिल,
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा ।२।
सूखे चने चबाते, सोते थे चैन से हम,
जालिम शहर ने मुझको जगमग दिखा के मारा ।३।
गलती से मैं गया जो राजेश जी के घर पर,
खिचड़ी, दही, घी, पापड़, हलवा खिला के मारा ।४।
अच्छा भला खिलाड़ी है नाम तेंदुलकर,
उसको सियासियों ने खादी ओढ़ा के मारा ।५।
दिन रात टुन्न रहता, मुँह से भी मारे भभका,
वीनस की लत बुरी है, बोतल तड़ा के मारा ।६।
मच्छर का प्रेत शायद, मैडम में आ घुसा है
अब साफ़ कुछ न कहती बस भुनभुना के मारा ।७।
कल अपनी इक पड़ोसन को रंग जो लगाया,
बीवी ने देख मंज़र बेलन चला के मारा ।८।
*तकलें त बबुआ गइलें, नवका नियम में भीतर,
वो छीन लिहिस नकदी डंडा घुमा के मारा ।९।
*ताकना = घूरना
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तिलक राज कपूर जी
ज़ालिम ने इस अदा से अपना बना के मारा
झाड़ू के टूटने पर, बेलन उठा के मारा।
मैदान, जब न कोई, पढ़ने में मार पाये
बेटी रईस घर की, हम ने पटा के मारा।
सबके लिये अलग हैं कातिल अदायें उसकी
’इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा।’
मरदूद मनचलों को होली के दिन बुलाकर
छज्जे से कूद उनपर, सबको दबा के मारा।
दिल से बना रही हूँ, इक और लीजिये तो
भर पेट खा चुके तो फिर से खिला के मारा।
गाजर का ढेर देकर बोले हमें कि किस दो
जब हमने किस दिया तो लुच्चा बता के मारा।
दो बूंद भी नहीं हम नीचे उतार पाते
ये जानकर भी उसने खम्बा पिला के मारा।
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खुश हो गई तो बेगम ने गुदगुदा के मारा
गुस्से में आ गई तो मुझ को गिरा के मारा.
झपटी वो मेरे ऊपर खूंखार शेरनी सी
कूल्हे में दांत काटे पिंडली चबा के मारा.
टकले में जख्म के हैं अब भी निशान बाकी
सर मेरा उस्तरे से उसने मुंडा के मारा.
सीधा न हो सकूं मैं औंधा भी हो न पाऊं
चित भी लेटा के मारा पट भी लेटा के मारा.
सूरत बिगाड़ कर वो दिखलाना चाहती थी
आँखें ही हैं सलामत यूँ भौं बचा के मारा.
दो पहले आशिकों की फोटो दिखा के बोली
"इस को हँसा के मारा उस को रुला के मारा"
सास और नन्द भी क्यों जलती नहीं किचन में
ज़ाहिर है के बहू का कसदन जला के मारा.
ऐसी भी हैं मिसालें एनकाउंटर की यारों
मुल्ज़िम को घर से पकड़ा जंगल में ला के मारा.
इक तीर दो निशाने की यूँ हुई सियासत
परधान और जिया उल हक को फंसा के मारा.
फरमूद मैं तो समझा कुत्ता ये बा वफ़ा है
ज़ालिम ने दुम हिलाई पंजा घुमा के मारा.
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बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज)जी
१.
ग़र तू मिले, बताऊं, कैसे रूला के मारा
इस जिंदगी ने देखो कैसे ज़िला के मारा
महबूब मेरा मुझको छलता रहा यूं हर पल
नजरें मिला के मारा, नजरें चुरा के मारा
ये आदमी की फितरत, दोस्त बन के मारा
इसको हंसा के मारा, उसको रूला के मारा
जो बह रहा है दरिया उसमें जहर घुला है
इन नफरतों ने सबको कैसे जला के मारा
बिस्तर न चारपाई, बस साथ ये बिछौना
इस आत्मा को मैंने तन से लगा के मारा
२.
इक रोज मैं तो अपने छत पर खड़ा हुआ था
उसने कहीं से मुझ पर कंकड़ उठा के मारा
होली के दिन न अपनी हरकत से बाज आए
सबने उसे गली में दौड़ा लिटा के मारा
वो रोज, तंग करता, लड़की को, आते जाते
लड़की ने फिर तो इक दिन थप्पड़ घुमा के मारा
तुझको खबर नहीं थी मुझको खबर लगी है
इक आइने ने सबको सूरत दिखा के मारा
मुझको तो ये पता था ऐसा ही वो करेगा
इसको हंसा के मारा उसको रूला के मारा
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मोहन बेगोवाल जी
कब दुश्मन ने हमें चोराहे पे ला के मारा
ये तो दोस्त था जिस अस्मां गिरा के मारा
तारे न चाँद जब कुछ उसका बिगाड़ पाये,
तब अँधेरे को सुबह की लाली भगा के मारा
हम कब बुरे थे जब हम बचपन की गोद में थे
उड़ने की चाहत ने बचपन को चुरा के मारा
हम को मुफ्लसी ने ये केसा मंजर दिखाया,
छत को गिरा, कभी दीवारें गिरा के मारा
दुनिया को बजार ने कुछ ऐसे बेचा खरीदा,
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
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राज लाली शर्मा जी
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
कैसा समय यह निरछल ,सभ को भगा के मारा !!
हमको ना यह पता है ,उसका कहाँ ठिकाना !
उसने तो हम को अपना यारो बना के मारा !!
मिलते है वोह तो जब भी दिखते थे वोह अनाड़ी
पगला सा फिर रहा हूँ आँखें झुका के मारा !!
तेरे प्यार की तडप है ,खुद को मैं ढूँढता हूँ !
चुप हो के ढूँढता हूँ जिसको रुला के मारा !!
फिर हम कभी मिलेंगे ऐसा हुआ था वादा !
कसमें भी उनकी झूठी ,उनको निभा के मारा !!
दरिया से पूछते हो आया कहाँ से पानी !
नदियों का था यह शिकवा किसने वहा के मारा !!
चारों तरफ था चरचा महिफिल में किस का यारा
हर आँख ही तो नम थी ,सभ को रुला के मारा !!
आँखे करूं जो बंद तो उनका दीदार 'लाली' !
परदा उठा जो सच का सभ कुछ गिरा के मारा !!
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राजेश कुमारी जी
१.
शब्दों का आज उसने खंजर बना के मारा
इक शांत सी नदी में पत्थर उठा के मारा
नाराज आशिकों में होती रही ये चर्चा
जिस रूप के दीवाने उसने जला के मारा
उसकी नहीं थी फितरत धोखे से वार करना
दुश्मन को सामने से उसने बता के मारा
या रब मुझे बता दे ये कैसा फेंसला है
इसको हंसा के मारा उसको रुला के मारा
क्यों आज मुहब्बत का दुश्मन हुआ ज़माना
इसको जहर से मारा उसको जला के मारा
समझा नहीं अभी तक क्या होती है आजादी
पिंजर में पंछियों को उसने सजा के मारा
विश्वास करके जिसका हमनें किया भरोसा
ए "राज" आज उसने नफरत दिखा के मारा
२.
चिलमन गिरा के मारा चिलमन उठा के मारा
दिल फेंक आशिकों को यूँ दिल जला के मारा
होली की आड़ में था उसका घिनौना मकसद
गुझिया में भांग विष की मदिरा पिला के मारा
बच्चों से जा के उलझा वो भांग के नशे में
इसको हँसा के मारा उसको रुला के मारा
जिस को सता रहा था वो फाग के बहाने
उसकी सहेलियों ने टब में डुबा के मारा
अनजान बन रहा था शौहर बड़ा खिलाड़ी
बीबी ने आज शापिंग का बिल दिखा के मारा
दिन रात जिस कुड़ी को मिस काल भेजता था
उसके ही भाइयों ने कंबल उढ़ा के मारा
खाए सभी टमाटर बेखौफ बंदरों ने
टोका जरा सा उनको थप्पड़ घुमा के मारा
हम सब को ज़िंदगी की देते खुराक जंगल
उनकी ही गर्दनों पे आरी चला के मारा
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राम शिरोमणि पाठक जी
(इस गज़ल में गिरह का शेर नहीं है)
पागल मुझे बनाया पत्थर उठा के मारा,
अपनी नज़र से उसने मुझको गिरा के मारा !१
न्योता दिया अकेले ही भोज में बुलाया,
फितरत न जान पाया बासी खिला के मारा !२
लड़की से छेड़खानी भारी बहुत पड़ा है,
लोगो ने खूब पीटा डाकू बता के मारा !३
बेगम ने बॉस ने भी समझा मुझे निकम्मा ,
इसने भगा के मारा उसने बुला के मारा !४
साड़ी का ना दिलाना मुझको पड़ा था महंगा,
भारी शरीर से थी मुझको दबा के मारा !५
दर दर भटक रहा था किस्मत मुझे रुलाती ,
मुझको सभी चिढाते पागल बता के मारा !६
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विशाल चर्चित जी
चिमटा चला के मारा, बेलन चला के मारा
फिर भी बचे रहे तो, भूखा सुला के मारा
बरसों से चल रहा है, दहशत का सिलसिला ये
बीवी ने जिंदगी को, दोजख बना के मारा
कैसे बतायें कितनी मनहूस वो घडी थी
इक शेर को है जिसने शौहर बना के मारा
वैसे तो कम नहीं हैं हम भी यूं दिल्लगी में
उसपे निगाह अक्सर उससे बचा के मारा
चर्चित को यूं तो दिक्कत, चर्चा से थी नहीं पर
बीवी ने आशिकी को मुद्दा बना के मारा
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सौरभ पाण्डेय जी
नज़रें मिला के मारा, आँखें चढ़ा के मारा
साथी मिली भंगेड़ी पीकर-पिला के मारा
फूटीं मसें जभी से, चिड़िया उड़ा रहा हूँ
ये बात अब अलग है सबने चढ़ा के मारा
हर वक़्त मन रंगीला सिर पे खुमार भारी
बातें करे मुलायम धड़कन बढ़ा के मारा
’इस्टार’ होटलों में चिखचिख हुई जो बिल पर
बैरे का ताव देखो फूहड़ बता के मारा
घुच्ची व गिल्लियों के हम खेल में फँसे यों
साथी बड़े कसाई दौड़ा-पदा के मारा
पकवान उत्सवों में, ये बात अब पुरानी
सरकार ने चलन को कीमत बढ़ा के मारा
इक पाश है जगत ये सुख-दुख ग़ज़ब के फंदे
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
**********************************
संदीप कुमार पटेल जी
अव्वल तो उसने हमको नजरें मिला के मारा
जी भर गया जो हमसे नज़रें चुरा के मारा
कितनों को बेबफा ने दिल से लगा के मारा
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा
कुछ काम बेहया की मुस्कान कर गयी और
फिर दोस्तों ने हमको पानी चढ़ा के मारा
बातें शहद सी मीठी, मासूम सी अदा ने
नादान मेरे दिल को पागल बना के मारा
दीदार एक पल दे पर्दानशीं हुए वो
तिश्नालबी-ए-दीद को हद से बढ़ा के मारा
पर इश्क के दिए औ पहुँचाया आसमाँ पर
तीरे दगा चला फिर हमको गिरा के मारा
धोखा फरेब हमको सौगात में दिया फिर
नफरत के घूँट कडवे सच में पिला के मारा
मजबूरियाँ बता के पहले तो साथ छोड़ा
आशिक को फिर उसी ने आँसू बहा के मारा
क्या हो गयीं हवाएं अब “दीप” तुम ही देखो
गर्दिश से जा मिलीं औ तुमको बुझा के मारा
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हरजीत सिंह खालसा जी
आँखे मिला के मारा, या मुस्करा के मारा,
उसने मुझे दिवाना, अपना बना के मारा,
कैसे कहूँ कि उसने, किस किस तरह से मारा,
पहले करीब आकर, फिर दूर जा के मारा,
इस ओर था ज़माना, उस ओर थी मुहब्बत,
इसको हंसा के मारा, उसको रुला के मारा ,
तरसा दिया बहुत जब, तब ही गले लगाया,
खुद प्यास को बढ़ाया, खुद ही बुझा के मारा,
वो नित नए बहाने, मुझपे था आजमाता,
बांटी ख़ुशी कभी तो, ग़म भी सुना के मारा ....
की कोशिशें हजारों पर काम इक न आई,
उसने हमें हमारे दिल में समा के मारा
नोट :-
1-ग़ज़लों को संकलित और त्रुटिपूर्ण मिसरों को चिन्हित करने का कार्य बहुत ही सावधानी पूर्वक किया गया है, यदि कोई त्रुटि दृष्टिगोचर हो तो सदस्य गण टिप्पणी कर सुधार करा लें ।
2-ग़ज़लों को संकलित करने का कार्य श्रीमती डॉ प्राची सिंह (सदस्या प्रबंधन समिति) तथा त्रुटिपूर्ण मिसरों को चिन्हित करने का कार्य श्री वीनस केशरी (सदस्य ओ बी ओ) द्वारा संपन्न किया गया है ।
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हा हा हा .....
सबसे ख़ास बात सर जो आदरणीया प्राची जी ने कही है - \\मैं तो मुशायरे में अनुपस्थिति का जुर्माना न हो जाए ...ये सोच के बैठी थी \\ उसका अहसास मुझे भी होता है
व्यस्तताओं के चलते किसी आयोजन में सहभागिता न करने का अपराधबोध.....
भूलवश ऐसी टिप्पणी करा देता है.
मैं भी चित्र से काव्य तक छंदोत्सव में सम्मिलित नहीं हो सका तो बहुत परेशां रहा थोड़े दिन.
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