आदरणीय साथिओ,
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लघु कथा ********* होड़ की दौड़ ------------------------------ मध्यम वर्गीय परिवार की गृहणी थी रमा । दो बच्चे थे ।लड़की धीरे धीरे बड़ी हो रही थी । सपनों के साथ साथ चिन्ताएं भी रमा की आँखों में पलने लगी थी ।सपने थे बच्चों के उज्जवल भविष्य ,उच्च शिक्षा अच्छा रहन सहन , साथ ही जहाँ तक हो सके बहुत अच्छे संस्कार दे सकने के । चिंता थी आज के उच्श्रृंखल समाज के बिगड़ते हुए माहौल से अपने बच्चों को सुरक्षित रख सकने की । अपनी चादर से बाहर पाँव फैलाते हुये कल उसने मंहगे स्कूल में बच्चों का दाखिला करवाया था । उसका विश्वास था कि अगर बुनियाद मजबूत होगी तभी तो इमारत ऊंचाईयों को छू सकेगी । केवल स्कूल की मंहगी फीस ही नहीं बल्कि उसके वातावरण व अन्य आवश्यकताओं से सामंजस्य बैठाने में भी उसे काफी संघर्ष करना पड़ता था । हर इच्छाओं के साथ समझौता करना पड़ता था । आजकल टी वी पर बढ़ते अपराधों और व्यभिचारों की खबरें सुन सुन कर उसने अपनी बिटिया को मोबाइल खरीद कर देने की सोची । बेटी कई दिनों से कह भी रही थी । उसकी सभी सहेलियों के पास मोबाइल थे ।लड़की अकेली स्कूल जाती थी । इस से कम से कम उसे इतनी सूचना तो मिलती रहेगी कि बेटी है कहाँ । किसी भी आपदा में वह समपर्क भी कर सकेगी । पर साथ ही मोबाइल के बढ़ते दुरुपयोग उसकी चिन्ता के कारण भी थे । अधिक अनुशासन संभव भी न था । " ओफः ,बाजार में कितने नए नए तरीकों के और कितने मंहगे मोबाइल थे ।" लौट कर परेशान होती हुई सी वह बड़बड़ाती रही थी । खैर , फिर भी उसने एक अच्छा सा मोबाइल खरीद ही लिया था । हालांकि वह उसकी जेब पर कुछ भारी ही पड़ा था । शाम को स्कूल से लौटने के बाद बेटी का उतरा चेहरा देख कर उसका माथा ठनका । बिटिया ने न ढंग से खाना खाया न तरीके से बात की । बार बार पूछने पर उसने गुस्से से मोबाइल पटकते हुये कहा " आप भी कहाँ से कूड़ा उठा लाती हैं । अनीता कह रही थी कि ऐसा मोबाइल तो उसकी काम वाली बाई के पास है ।मैं तो इसकी तरफ नजर उठा कर भी न देखूं । तू तो इसी पर इतरा रही है । " रमा पहले ही बेटी की अमीर सहेलियों के नखरों का तंज भोगती रहती थी । अबकी बार भी उसे लगने लगा था कि होड़ की दौड़ की इस आंधी में उसके पाँव कैसे टिक पाएंगे । वह कहीं लड़खड़ा कर गिर न पड़े।
मौलिक व अप्रकाशित
चिंता की पूरी कहानी कहती शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय कनक हरलालका जी.
आदरणीया कनक हरलालका जी। अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति। बधाई स्वीकार करें।
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा प्रस्तुत की है आपने आदरणीय कनक हरलालका जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. वैसे शुरू के हिस्से को थोड़ा सम्पादित किया जा सकता है. सादर.
परिवार में बच्चो को लेकर ज्वलंत समस्या पर बेहतरीन रचना,बधाई कनक दी.
एक औसत परिवार में घटने वाली घटना को लेकर बढ़िया लिखा है आपने, थोड़े संपादन से और निखर जाएगी आपकी रचना. बहुत बहुत बधाई आपको आ कनक हरलालका जी
अदालत अदालत
अदालत के अंदर प्रसिद्ध सितारे के मामले की सुनवाई चल रही थी और बाहर सितारे के चाहने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। अदालत परिसर से कुछ दूर एक घने बरगद से लटके दो गरीब भूत भी फैसला सुनने को बेसब्र थे। उनकी गरीबी मरने के बाद भी उनके चेहरों पर चिपकी हुई थी।
" क्या कहते हो दद्दा ? आज हो जायेगी सजा ?'' युवा भूत बुज़ुर्ग भूत के पास खिसक आया।
" कुछ नहीं कह सकते बेटा। माहौल देखकर तो नहीं लग रहा। '' बुज़ुर्ग भूत की आवाज़ में निराशा थी।
तभी एक संपन्न दिखने वाला भूत उनके बीच में टपक पड़ा। उसकी अमीरी मरने के बाद भी उसके चेहरे से फूटी पड़ रही थी।
'' अच्छा ! हमारे भैया की सजा के इंतज़ार में हो तुम दोनों । हो कौन तुम ? शक़्ल से तो भिखारी लग रहे हो । '' अमीर भूत ने आँखें तरेरी।
युवा भूत को आक्रोशित होकर जवाब देने के लिए आगे बढ़ता देख बुज़ुर्ग भूत ने उसे रोक लिया। ''उस रात आपके भैया जी ने जिन सोते हुए लोगों पर गाडी चढ़ा दी थी, वो हमारे ही लोग थे।'' बुज़ुर्ग भूत की आवाज़ से साफ़ था कि उसे भी गुस्सा संभालने में मेहनत लग रही थी।
'' तो ! सड़कों पर सोते क्यों हो तुम लोग। गलती तुम्हारे लोगों की थी भैया की नहीं। अरे वाह! लगता है भैया के फेवर में फैसला आ गया। '' चाहने वालों की भीड़ को ख़ुशी से नाचता देख संपन्न भूत भी उस दिशा में हवाई चुम्मियाँ फेंकने लगा।
'' चल बेटा '' बुजुर्ग भूत ने युवा का हाथ थाम लिया।
'' एक और ख़ुशी की बात तो सुनते जाओ तुम दोनों । '' गरीब भूतों को जाता देख अमीर भूत चिल्लाया।
'' क्या है ?''
'' अब भैया जी अपनी आत्मकथा लिखवाएँगे और फिर उसपर फिल्म बनेगी। और उसके बाद उनका क़द इतना बढ़ जायगा कि कोई अदालत उन्हें छू भी नहीं सकेगी। ना नीचे की ना ऊपर की। '' उसका चेहरा दम्भ से दमक रहा था।
'' बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप।'' युवा भूत का चेहरा दर्द से तन गया। '' नीचे की अदालतें तो देख लीं और ऊपर कोई अदालत है ही नहीं ।'' वो अब गुस्से से आसमान को ताक रहा था।
मौलिक व् अप्रकाशित
सच है, अपराधी अपराध कर के छूट जाते हैं और कोई अदालत उन्हें छू भी नहीं पति है। बढ़िया लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पांडे जी।
आदरणीय प्रतिभा जी भुत के बहाने बहुत उम्दा कथा कही है. हार्दिक बधाई .
//''नीचे की अदालतें तो देख लीं और ऊपर कोई अदालत है ही नहीं ।''// बहुत ख़ूब. न्याय व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य किया है आपने आदरणीया प्रतिभा जी. इस बढ़िया लघुकथा हेतु ढेरों बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
सच्चे न्याय के लिए झूझते लोग और उनका मजाक उड़ाते अपराधियों पर कटाक्ष करती बेहतरीन रचनी,बधाई प्रतिभा दी.
एक सच्ची घटना पर आधारित बढ़िया रचना विषय पर, ऊपर कोई अदालत होती तो शायद स्थिति और बेहतर होती. बहुत बहुत बधाई आ प्रतिभा पांडे जी इस रचना के लिए
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