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कविता एवम अन्य साहित्यिक विधाओं का उद्देश्य क्या है ?

कविता एवम अन्य साहित्यिक विधाओं का उद्देश्य क्या है? क्या आत्म संतुष्टि अथवा सुखानुभूति या प्रेरणा या सन्देश या जागृति ? क्या इनमे से एक या सभी?  साहित्य से अब व्यक्ति का जुडाव क्योँ कम होता जा रहा है....

 

मित्रों,

           आज साहित्य से व्यक्ति क्योँ कटता जा रहा है ? क्या हमारी संवेदना इस उपभोक्तावाद की आँधी में कहीं खो गयी है, अथवा अधमरी हो गयी है अथवा मरने जा रही है ! क्या साहित्य मौजूदा चुनौतियों का उत्तर देने में अक्षम हो गया है? क्या साहित्य में कबीर और प्रेमचंद जैसी गुणवत्ता न होने के कारण , यह प्रभावशील और ग्राह्य नहीं रहा ?क्या उपभोक्तावाद में व्यक्ति भटकाव के कारण साहित्य भी ऐसा भटक गया है कि यह प्रभावविहीन और शक्तिविहीन हो गया है ! क्या साहित्य अपने उद्देश्यों उपरोक्त रसानुभूति,प्रेरणा, सन्देश ,जागृति आदि सशक्त पहलूओं की सशक्त अभिव्यक्ति के बिना अपना स्थान और प्रभाव खोता जा रहा है _----आज जो लिख रहा है ,वह इन प्रश्नों के घेरे में है--यानि लिखा जाए तो पाठक न के बराबर होने पर किसके लिए लिखा जाए ? और फ़िर कैसा लिखा जाए ? क्या कबीर और प्रेमचंद आज का लेखक हो सकता है! यदि हाँ तो कैसे ? यदि नहीं तो क्योँ ?

मित्रों यह सब ऐसे ज्वलंत प्रश्न हैं, जो हर लेखक को सोचने पर विवश कर रहें हैं ! इन पर आपका क्या विचार है ?

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इस विषय में तहलका पत्रिका ने सितम्बर माह(उत्तर प्रदेश/ उतरांचल) में विशेष आलेख छापा है जिसमें तथ्य परक बातें कही गयी हैं

शीर्षक है = साहित्य के सामंत, यदि सुलभ हो सके तो अवश्य पढ़े

 

सारी पोल खोल कर रख दी है 

दो लेख हैं और दोनों बेजोड हैं, साहित्यिक हल्कों में यह दो लेख बड़ा हडकंप मचा रहे हैं ... क्रिया प्रतिक्रिया का दौर जारी हैं

चर्चा में आपने ज्वलंत मुद्दे उठाये इनसे आज का समाज रूबरू है | दर असल हर क्षेत्र की तरह साहित्य भी संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है | और जीवन की आपाधापी का भी प्रभाव पड़ा है | फिर भी उम्मीद उजाले की  ,  की ही जानी चाहिए !!

अश्विनी जी आपसे एक प्रश्न है -

मैंने जिस लेख की चर्चा की है आपने उसे पढ़ लिया ?

मेरा अनुमान है आपका जवाब   होगा = नहीं

आपने शुरुआत इस बात से की है ...

मित्रों,

आज साहित्य से व्यक्ति क्योँ कटता जा रहा है ?

इस प्रश्न का बहुत सटीक जवाब उस लेख में बहुत सुन्दर ढंग से तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है, आपसे पुनः निवेदन है यदि सुलभ हो तो उस लेख को जरूर पढ़े 

 

जब तक हमारे पास सवालों के जवाब नहीं होंगे तब तक कोई उपाय खोज पाना बहुत मुश्किल है,, साहित्य का सामंतीकरण हमारे लिए अब कोई नई बात नहीं रह गयी है खेमेबाजी हर स्तर पर बहुत ठोंक बजा कर हो रही है

नेट पर स्थिति और बुरी है

पिछले ४ साल में नेट में मुझे बहुत अनुभव हुए हैं,,,,,,, गिरावट जारी है,,, और दोषारोपण भी  

 

पीठ खुजाऊ कार्यक्रम को जिस मोहक पैकिंग में प्रस्तुत किया जाता है उससे अक्सर नए या कभी कभी पुराने लोग भी धोखा खा जाते हैं,, मगर सच तो सामने आता ही है 

 

क्या प्रेमचंद आज का लेखक हो सकता है!  यदि हाँ तो कैसे ? यदि नहीं तो क्योँ ?


यदि आपने प्रेमचंद्र जी के सुपुत्र की किताब कलम का सिपाही (प्रेमचंद्र जी की जीवनी) पढ़ी है तो इसका जवाब आपको पता होगा

नहीं पढ़ी है तो अब पढ़ लीजिए,,,, जवाब आपको अपने आप मिल जायेगा

आभार

वीनसजी, आपकी बातों की तथ्यात्मकता पर मैंने मनन करने की कोशिश की है. जिस विडंबना की ओर आपने इशारा किया है, वह वस्तुतः दुखदायी है. स्थिति यह है कि लोग जानते-बूझते खद्धे की ओर बढ़ते हैं और गिर पड़ते हैं. किन्तु, उससे बड़ी विडंबना यह है कि इस खेमेबंदी का कारण भी हम जानते हैं चाहे जैसी, जिसकी, जितनी खेमेबंदी ही क्यों न हो. होता हुआ देख रहे हैं.  यदि सामान्य-जन,  आपके-मेरे जैसा कोई,   इन तमाम तरह की खेमेबाजियों को नकारता है तो वह स्थापित लिक्खाड़ नहीं है. अमृताजी को पढ़ना वस्तुतः समीचीन होगा.

धन्यवाद.

मैं विषय को समझने में असमर्थ हूँ, क्षमा प्रार्थी हूँ,,

आप अच्छा काम कर रहे हैं व साधुवाद के पात्र है

ओ बी ओ व साहित्य के  उत्थान के लिए प्रयासरत हैं इसके लिए आभार

 

मैं इस चर्चा से खुद को अलग करता हूँ

साधु-साधु .. अश्विनीभाईजी, मन मोह लिया आपने. साधु

जिस स्तर की आप बात कह रहे हैं भाईजी, उस स्तर पर जा कर उभे सुकृतदुष्कृते की स्थिति हो जाती है. आप यदि वीनसजी को सम्बोधित मेरी उपरोक्त प्रतिक्रिया को देखें तो आप अवश्य मानेंगे कि मैंने भी यही कुछ बातें किंचित दूसरे शब्दों में कही है  --यदि सामान्य-जन,  आपके-मेरे जैसा कोई,   इन तमाम तरह की खेमेबाजियों को नकारता है तो वह स्थापित लिक्खाड़ नहीं है.

इसका वस्तुतः यही अर्थ है. औरों की निगाह में आप लिक्खाड़ नहीं क्यों है कि आप अमूक शिल्प में नहीं लिखते, आपके बिम्ब और तथ्य तथाकथित स्थापित संदर्भ को संतुष्ट नहीं करते, या, आप उस जन की बात करते हैं जो उनके मानदण्डों पर जन नहीं हैं या जन हो ही नहीं सकते क्योंकि वह दकियानूसी मानसिकता से ग्रसित ’भेंड़चाली’ भीड़ का हिस्सा हैं. अब ये कत्तई अलग बात है कि क्या हमें किसी से ऐसे किसी सर्टिफिकेट की आवश्यकता है भी?

सही है, निष्काम कर्मयोगी का क्रियान्वयन और निष्पादन इस थोथेबाजी से तो प्रभावित होता ही नहीं.  मुक्त सङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साह समन्वितः की मनोदशा इसतरह के किसी खेमेबाजी से उसे अप्रभावी रखती है. निष्कामकर्मी को यहभी आवश्यक नहीं कि लोग या तथाकथित इंटेलेक्चुअल वर्ग उसे कैसे लेता है.  किन्तु, क्या एक पूरी प्रक्रिया को ही नकारने की धृष्टता नहीं हुई है ? एक स्थापित मनस को संतुष्ट करते समृद्ध वाङ्गमय को खारिज नहीं किया जा चुका है? यह सचाई नहीं है? मैं उसी की बात कर रहा था. मेरा इशारा उसी तथाकथित इंटेलिजेंशिया की उस कवायद की ओर था.

:))))

 

सर कहने में तो बड़ा अच्छा लगता है कि ..

क्या हमें किसी से ऐसे किसी सर्टिफिकेट की आवश्यकता है भी?

नेट की इस दुनिया में यह बहुत हद तक सही भी है क्योकि यहाँ हम खुद लेखक संपादक और प्रकाशक है

जो मन आये लिखों,,, बटन दबाओ,,, छाप गया लोगों ने पढ़ भी लिया और प्रतिक्रिया भी मिल गई

बहुत बढ़िया

( शायद यही बात है कि साहियिक घड़ियाल खौफ में हैं )

 

परन्तु असली दुनिया में स्थिति बहुत अलग है

वहाँ नामवर (टाईप) जी जिसे साहित्यकार घोषित कर दें वो चाहे चुटकुला (फूहड़ वाला) ही न लिखता  हो उसे देश की नामचीन पत्रिका बल भर छापेगी

 

और जिसके बारे में देश की प्रमुख पत्रि़क का संपादक अपनी पत्रिका के सम्पादकीय में यह घोषित कर दे कि "मुझे तो उसका लिखा समझ ही नहीं आता" तो माननीय कि समझ को आधार मानते हुए हर लघु पत्रिका (व बड़ी पत्रिका भी) उसे छापने से स्पष्ट मन कर देती है (फिर चाहे वह लेखक लेखन में दूसरा चंदर या अमृतलाल नागर  ही क्यों न हो )

 

तो,

मैं यह नहीं समझ पा रहा कि यह चर्चा इस आभासी दुनिया को ध्यान में रखकर की जा रही है या इसका क्षेत्र वह असली दुनिया भी है जहाँ जो कुछ हो रहा है वो आपकी बातों से मेल कत्तई नहीं खा रह,,, बिलकुल नहीं समझ पा रहा ..

 

जिस असली दुनिया में स्थापित लेखक नए लेखक की नई पुस्तक पर दो शब्द लिखने के लिए भी अंगरेजी बोतल के ब्रांड को ले कर मोल भाव करे और बात रेड लेबल और ब्लू लेबल से शुरू होती हो और ब्लैक लेबल पर बात पट जाती हो,, वहाँ इस प्रश्न कि क्या भूमिका है कहने की आवश्यकता नहीं है

 

क्या हमें किसी से ऐसे किसी सर्टिफिकेट की आवश्यकता है भी?

 

बात अगर केवल आभासी दुनिया की हो रही है तो मैं पुनः कहूँगा कि मैं अपने आप को इस चर्चा से अलग करता हूँ

 

(यह कमेन्ट इसलिए करना पड़ा कि आप मुझे पलायनवादी न समझ लें या यह न सोचे कि खिन्न मन से इस चर्चा से अलग हो रहा हूँ)

मैं अलग केवल इस लिए हो रहा हूँ कि मुझे पल्ले ही नहीं पड़ रहा कि इस चर्चा का विषय क्षेत्र कितना है ...

मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं लिखे में क्या समझ रहा हूँ. लेकिन क्या समझना चाहिये ? आभासी या वास्तविक की रेखा खींची ही नहीं गयी अभी तो.

नामवरी कैटेगरी के खिलाफ़ ही तो तथ्य कहा ना, कि, एक मुकम्मल सोच को नकारने का षडयंत्र होता रहा है. क्योंकि प्रतिमानों के खाँचे में ऐसी सोच फिट नहीं होती. फिर गलत क्या हुआ?

 

आप रहिये और कहिये.

रेडलेबेल से ब्लूलेबेल से ब्लैकलेबेल पर सेटिंग आदि तो घोर नामवरी दलाली है. दुख ये है कि इस दलाली की परिणति को ही आलोचना माने जाने की परिपाटी पुख़्ता हुयी है.  यह साहित्य के कैनवास पर खाका बनने का उपकर्म नहीं है,  न ही साहित्य-कर्म है. कत्तई नहीं.  हम अपने भर जितना हो सके इसे नकारें. गिलहरी का तुच्छ प्रयास ही सही.

 

उससे बड़ी विडंबना यह है कि इस खेमेबंदी का कारण भी हम जानते हैं चाहे जैसी, जिसकी, जितनी खेमेबंदी ही क्यों न हो. होता हुआ देख रहे हैं.

 

सर, देख ही नहीं खुद भी कर रहे हैं

अमृता जी को खूब पढ़ा है,

और इस्मत चुगताई जी को पढ़ना तो

उफ्फ्फ

उनके दो उपन्यास "जिद्दी" तथा "एक कतरा खून

एक कतरा खून तो अच्छे अच्छे को रुलाने की कूवत रखता है, इंसानी फितरत को जिस खूबसूरती से प्रस्तुत किया गया है कम ही पढ़ने को मिलता है 

//... देख ही नहीं खुद भी कर रहे हैं.. //

तनिक स्पष्ट करें... .

 

सही कहा है आपने, इस्मत आपा की स्पष्टता और जो समझा-जाना उसे सिधाई से लिख देना सदा से रहस्यमयी लिहाफ़ रचता रहा है. बिना यह सोचे कि कोई क्या कहेगा.. किसी निष्काम कर्मयोगी की तरह !! 

इस्मत जी के लेखन का आपने बहुत सटीक विश्लेषण किया है

 

नए कमेन्ट में अपनी बात स्पष्ट कर दी है

ओबीओ प्रबंधन टीम से क्षमायाचना सहित ये दो बाहरी लिंक मैं यहाँ दे रहा हूँ, जो इस चर्चा को आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

शायद वीनस भाई इसी का जिक्र कर रहे थे।

http://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/948.html

http://www.tehelkahindi.com/indinoo/national/947.html

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