साथियों यह सच है कि लेखन का आरम्भ स्वान्तः सुखाय होता है | रचनाकार की साहित्यिक अभिव्यक्ति वास्तव में उसका भोगा हुआ यथार्थ होता है जो एक सुनिश्चित स्वरुप और शिल्प में सामने आता है | यह गढना और गढ़ने की क्षमता ही उस व्यक्ति को आम से अलग बनाती है | दस - बीस वर्षों के लेखन के बाद अपने अपने कारणों और प्रोत्साहनों के ज़रिये जब हम समाज के समक्ष आते हैं तो हमें अपेक्षा रहती है कि कुछ सार्थक समालोचना प्राप्त होगी मार्गदर्शन मिलेगा खास कर अपने से वरिष्ठ रचनाकारों का | परन्तु अक्सर हर स्तर पर हमें और हमारे भीतर के रचनाकार के अस्तित्व को ही नकारा जाता है | वह चाहे समाचार पत्र -पत्रिका हो , साहित्यिक मंच हो , या शासन-प्रशासन का तंत्र | हर जगह कुछ पुराने रचनाकारों का पैनल नुमा प्रभावी अस्तित्व नमूदार है जो अपने साथ (आगे ,पीछे या बराबरी में ) हमें देखना नहीं चाहता | यही नहीं वह हमारी क्षमता को जान पहचान कर भी कई बार उसे नकारता है | कहीं इसके पीछे उसमे असुरक्षा की भावना तो नहीं ? एक बार ऐसी ही पीड़ा से गुजर कर मैंने लिखा था -
" बरगदों के लिये है भारत रत्न , और बिरवों को पद्मश्री भी नहीं |"
एक समय था जब बड़े बड़े स्थापित साहित्यकार नवोदितों को प्रोत्साहित करना अपना युगधर्म समझते थे | काशी में ही जयशंकर प्रसाद और भारतेंदु बाबू के यहाँ की गोष्ठियां नवोदितों को प्रोत्साहित करने और उन्हें परिमार्जित करने का महती कार्य करती थीं जिनसे निकल कर कई रचनाकार हिंदी साहित्य की धरोहर बने |
इसके उलट आज के प्रायः अधिकाँश साहित्यकार या तो किसी व्यामोह में फंसे हैं और उन्हें अपने सिवाय कुछ दिखाई नही दे रहा या वे भविष्य से मुंह चुरा रहे हैं |अब वे अपनी ख्याति को और-और आगे बढ़ाने के गुणा-गणित में लगे रहते है| प्रकाशन से मंच तक मठ ,गुट और गढ़ बने हैं |आप किसी भी शहर में जाईये वहाँ वही दस बीस साहित्यकार आपको हर जगह दिख जायेंगे | उनकी एक ही कविता इतनी प्रसिद्ध है कि उसे वे दस वर्षों से हर मंच पर सुना रहे होंगे और आपकी दस रचनाओं को जगह नहीं मिलेगी | मेरा किसी बड़े साहित्यकार से कोई दुराव नहीं उन्हें पढ़ - सुनकर ही हमने कुछ कहना - लिखना सीखा है , पर बात सिर्फ इतनी है कि वे समाज के प्रति अपने दायित्व का निर्वहन करें और उसके समक्ष नए लोगों को भी सामने लाएं | आज हर जगह जो शून्यता है उसके लिये ये प्रवृति भी कम जिम्मेदार नहीं | यह विमर्श इस लिये कि हम नए लोग अपने सुख दुःख जो हम एक रचनाकार के रूप में सहते ,भोगते हैं , उसे एक स्वर मिल सके | मेरा मंतव्य है कि ओ.बी.ओ. रूपी यह स्थान भविष्य में एक धरोहर के रूप में देखा जाये जहां प्रोत्साहन पाकर कई रचनाकार उभरेंगे और अपना मुकाम बनायेंगे |आप भी अपने साथ जो घटा - बढ़ा वह यहाँ शेयर करें | ताकि नए पुराने सभी वस्तुस्थिति से वाकिफ हो सकें | यह स्थिति कमोबेश हर सृजन क्षेत्र में है | साहित्य ,रंगकर्म ,सिनेमा , चित्रकला ,संगीत , पत्रकारिता ... किसी भी विधा से संबद्ध हर कोई अपनी आप बीती शेयर करे ...शायद हमारी अभिव्यक्ति की यह पहल कुछ रंग लाये | जो साथी अभी ओ.बी.ओ. के सदस्य नहीं हैं वे सदस्य बन (लाग-इन कर ) इस विमर्श रथ को आगे बढ़ाने में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं |
अंत में अपने एक वरिष्ठ सहयोगी रहे अकाशवाणी के पूर्व अधिकारी और शायर मरहूम मो. सलीम राही की पंक्तियों से आपका स्वागत करता हूँ -
"देखना कश्ती समंदर देखना
और लहरों में उतरकर देखना
आज़माइश के लिये तो भंवर है
मत किनारों पर मुकद्दर देखना "
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सच्ची बात कही अपने गुरूजी यह स्थिति ऐसी है और हम चाहे तो इसे आपके कहे अनुसार परीक्षा मान सकते हैं और इसमें तपकर निखर सकते हैं | लेकिन इस 'ताप' में कई रचनाकार ऐसे भी हैं जो इस फिल्ड से तौबा कर लेते हैं | जैसे आज राजनीति अछूत हो गयी हैं कहीं ऐसा नहो साहित्य भी ...आम लोगों से नहीं बल्कि खुद साहित्यकारों से दूर हो जाये ?
एक बात और काशी साहित्य और संस्कृति की राजधानी कही जाती है | हिंदी ने यहाँ भारतेंदु और खत्री जी से लेकर प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद तक अपने रूप को गढ़ा | आज यहाँ गिनती की संस्थाएं हैं जो साहित्यिक आयोजन करती हैं | गिने चुने अखबार हैं जिनमें साहित्य हाशिये पर है | और पत्रिकाएं तो दम तोड़ चुकी हैं| अदबी संगम , कथ्य शिल्प , और परिवर्तन नामक संस्थाएं नियमित साहित्यिक आयोजन करती हैं जिनमे नयी -पुरानी पीढी के रचनाकार जाते और आपस में सुनते सुनाते हैं | परन्तु यह सिलसिला भी कई विडम्बनाओं से अछूता नहीं है | आपस में गुट तो हैं | मेरा प्रयास होता है की मैं सभी के साथ ताल मेल बैठा सकूं | और हर जगह से कुछ सीखता चलूँ | दरअसल मेरा मानना है की लिखने के लिए सुनना और पढना भी बेहद जरुरी है |
विशेष रूप से विभूति नारायण सिंह 'अफ़सोस गाजीपुरी ' का 'परिवर्तन पिछले करीब सात वर्षों से नियमित रूप से प्रत्येक माह के पहले रविवार को गोष्टी कराता है | जिसमें मेरे साथ काशी के प्रमुख रचनाकार उपस्थित रहते हैं | इधर कवि अजीत श्रीवास्तव के प्रयास से दूसरे रविवार को 'कथ्य शिल्प' का आयोजन भी चल पड़ा है | बनारस में फिर से कुछ अच्छा हो रहा है | यह शुभ संकेत है |
shikha kaushik
मुझे तो शौक़ ने नहीं मजबूरियों ने ही हमेशा लिखने को मजबूर किया है गज़ल नहीं तो कविता और लेख ही सही पर लिखे -कहे -बोले बिना रह सकूं मैं वो जीव नहीं ....| हालात तकलीफ देतें हैं ... बगावत शायद मेरी खूबी भी है और विवशता भी ...|
फेस बुक पर श्री अशोक कुमार पाण्डेय जी ने नए कवियों का नाम माँगा ... मैंने जो कहा वह कईओं को जाँच नहीं रहा आप भी पढ़ें -
फेस बुक वाले पन्ने का लिंक है -
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