सोनिया गाँधी की जीवनी लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई ने अपनी पुस्तक '२४ अकबर रोड ' के नवीन संस्करण में यह रहस्योद्घाटन किया कि सोनिया गांधी चाहती है कि २०१६ में वे राजनीति से सन्यास ले क्योंकि तब उनकी उम्र ७० वर्ष हो जायेगी i किन्तु बिहार जनशक्ति पार्टी के प्रमुख राम विलास पासवान ने सोनिया से भेंटकर इस रहस्य से पर्दा उठा दिया i पासवान ने कहा सोनिया जी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके सन्यास को लेकर जैसा दावा किया जा रहा है, वैसा बिल्कुल नही हैं i उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा i किन्तु इस घटना से यह बहस फिर ताज़ा हो गयी कि राजनेताओ के रिटायरमेंट की कोई उम्र होनी चाहिए अथवा नही i यहाँ यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि सन्यास और रिटायरमेंट में तात्विक भेद है i भारतीय वर्णाश्रम पद्धति में सन्यास आश्रम व्यवस्था की अंतिम स्थिति है जो वानप्रस्थ के बाद आती है किन्तु यहाँ जिस सन्यास का प्रयोजन प्रतिपाद्य है उसमे किसी कार्य के प्रति अक्षम होने पर उससे विरत हो जाना सन्यास है'जैसे कि अभी हाल में सचिन तेंदुलकर ने क्रिकेट से लिया i
क्या ही सुखद होता यदि राजनेता भी एक सुनिश्चित अवधि में अपने आत्म निर्णय से सक्रिय राजनीति को अलविदा कहते और जीवन का उत्तरार्ध अपने परिवार के बीच सुख शांति से गुजारते i सन्यास में इस बात की छूट है कि सन्यास लेने के समय का निर्धारण नेता स्वय करे i जब तक उसमें जनता की सेवा करने की शारीरिक क्षमता विद्यमान है i जब तक समाज , पार्टी और राजनीति में वह भार नहीं बनता अर्थात उसकी सामाजिक और राजनीतिक दोनों ही स्वीकृतिया विद्यमान है और जनता तथा साथियो का स्नेह सम्मान उसे प्राप्त है तब तक राजनीति में उसके बने रहने पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं है i किन्तु यदि ऐसा नहीं है तो सक्रिय राजनीति में बने रहने की अभिलाषा उत्कट महत्वाकांक्षा के अतिरिक्त कुछ और नहीं है i
सन्यास वस्तुतः आत्म निर्णय की तटस्थ व्यवस्था है i इसमें राजनेता की सोच सकारात्मक , स्वार्थरहित और ईमानदार होनी चाहिए i गावस्कर ने सच ही कहा है कि सन्यास का सही वक्त वह है जब आप चरम पर है और इसके बाद बस आपको नीचे ही जाना है और जब लोग आप से पूंछे कि आप अभी से सन्यास क्यों ले रहे है ? वह अवसर तो आना ही नहीं चाहिए जब लोग ऊबकर ,खीझकर पूंछे कि भाई तू सन्यास क्यों नहीं लेता?
स्वातान्त्र्येत्तर भारत की राजनीति में एकाधिक् अपवाद को छोड़कर अभी तक एक भी ऐसा राजनीतिक सन्यास देखने का सौभाग्य भारतीय समाज को नहीं मिला i इसके कुछ कारण भी है i वस्तुतः सन्यास की भावना प्रमुख रूप से परफ़ॉर्मेंस पर आधारित होती है i राजनेताओ के परफार्मेंस का चूँकि कोई मानक तय नहीं है i अतः उन पर सन्यास का कोई दबाव नहीं रह्र्ता iलोगो को रोजगार मिले या भाड में जाये i महगाई घटे या बढे उनकी बला से i गरीब भूखो मरे,युवतियो की इज्जत लुटे , दंगो की साजिश हो , रुपया रसातल में जाए i सीमा पर सिपाही का सर कटे , राजनेताओ पर क्या फर्क पड़ता हैi क्या इनकी कोई जवाब देही है और क्या इन्होने ऐसा कोई माकूल जवाब देश की जनता को कभी दिया है i थोड़ी सी बयानबाजी i दो चार घडियाली आंसू i वचन वीरो और जुबानी लम्बे-लम्बे तीर मारने वालो की राजनीति में कोई कमी है क्या ?इससे देश का क्या भला होने वाला है ?
परफॉरमेंस वह है जो दिखाई दे i नीतीश ने बिहार को सुधारा तो वह दिखता है i मोदी में चाहे लाख बुराइयाँ हो पर यदि गुजरात की जनता उस पर निछावर है तो उसने कुछ तो लोकरंजक किया ही होगा i ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने देश के लिए कुछ नही किया या राज्य सरकारे कुछ नहीं करती , परन्तु सिस्टम की कमी और भ्रष्टाचार के कारण सरकार का किया हुआ जनता तक पर्याप्त रूप में नहीं पहुँचता जिससे असंतोष अपने स्थाई भाव में रहने को बाध्य हो जाता है और परफॉरमेंस दिखाई नहीं देता i
उक्तानुसार स्वेच्छा से संयास् न लेने की दुर्धर्ष स्थिति में एक ही विकल्प बचता है कि राजनेताओ की आयु सीमानिर्धारित हो i इन्ही राजनेताओ ने सरकारी कर्मचारियो की सेवा निवृति आयु तय कर रखी है i सभी प्रकार की अदालतों के जज रिटायर होते है i सेना के सिपाही और आर्मी चीफ तक सेवामुक्त होते है i कहने का तात्पर्य यह कि सभी प्रकार के कर्मचारी एक न एक दिन समय सीमा के आधार पर सेवा से विमुक्त होते है i इन सभी की अधिवर्षता आयु सेवा नियमवलियो के अन्त्तर्गत इन्ही राजनेताओ ने तय की है जिनकी अपनी कोई ऐसी नियमावली नहीं है i
सनातन सत्य यही है कि शरीर का अपना एक निश्चित धर्म है i समय के विकराल थपेड़े खा-खाकर एक दिन मनुष्य उस शारीरिक स्थिति को प्राप्त होता है जब उसका शरीर बूढा हो जाता है i शरीर के साथ उसका मस्तिष्क भी बुढाता है i उसे भूलने की बीमारी हो जाती है i उसकी चिन्तना शक्ति घटती है i उसमे नव उर्जस्वित विचारो का स्फुरण और संचरण नहीं होता i यह वह अवस्था है जब वह सेवक न होकर सेव्य हो जाता है i
हम प्रायः देखते सुनते आये है कि वार्धक्य के कारण अनेक राजनेता चलने फिरने तक से मजबूर हुए है i पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की लरजती-कांपती टांगो का नजारा प्रायशः आँखों के सामने नुमायाँ हो जाता है i भारतीय संस्कृति में वृद्ध का स्थान परम पूज्य है i पर ऐसी अंध श्रध्दा भी क्या कि ऐसे नेताओ को भी सिर पर बिठाये रखे जिनकी वैचारिक चमक वयाघात से कुंद हो चुकी है i जो रुढ़िवादी है i नयी सोच, नये विचार और आधुनिकता का उद्दीपन जिन्हें स्वीकार्य नहीं है तथा सक्रिय राजनीति में बने रहकर जो अपने जिद्दीपन, अड़ियल स्वभाव और महत्वाकांक्षा के कारण राजनीति की समरसता को दूषित करने पर आमादा है i ऐसे विराट नेता न तो सन्यास लेते है और न सेवानिवृति i भला शरीर और जीवन की राजनीति इन नेताओ को कौन समझाये !
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