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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-6 में स्वीकृत सभी रचनाएँ

(१). श्री रवि प्रभाकर जी

सर्द रात (‘प्रत्युत्तर’ विषयाधारित कथा)

‘इसे भी आज खराब ही होना था। एक तो इतनी रात और उपर से टैक्सी वालों की हड़ताल।’ पौष की कोहरे भरी सर्द रात में भी मोटर साइकल घसीटते हुए पसीने से तरबतर हुआ वो अपने बच्चे की तबीयत और बिगड़ते देख बड़बड़ाए जा रहा था।
‘वो देखिए रिक्शा।’ सड़क किनारे रिक्शा पर ही कंबल ओढ़े लेटे रिक्शा वाले को देख पत्नी बोली
‘चल उठ ओए ! अस्पताल चलना है’ रिक्शा के हैंडल को ज़ोर से झटकते हुए वो आदेशात्मक स्वर में रिक्शा वाले को बोला
‘नहीं, हम नहीं जाएगे, कोई दूसरा रिक्शा देख लो’ कंबल से मुँह ढांपते रिक्शा वाला तल्खी से बोला
‘चलो ना भईया ! देखो, बच्चे की तबीयत बहुत खराब है।’ पत्नी ने नर्म आवाज में धीरे से कहा
‘ओह ! बच्चे की तबीयत खराब है ! तो फिर जल्दी बैठिए।’ फुर्ती से कंबल समेटते हुए रिक्शा वाला उठा
‘लो पकड़ो।’ अस्पताल के गेट पर उतरते ही जेब से कुछ पैसे निकाल रिक्शा वाले को देते हुए बोला
‘साहब... पैसे....!’
‘अब जो दे दिया उसे चुपचाप रख और चलता बन।’ रिक्शा वाला की आवाज को अनसुना कर वो तेज़ी से अस्पताल के अंदर चले गए
‘भगवान का शुक्र है, मुन्ना अब ठीक है। तुम एक मिनट यहीं खड़ो मैं सामने केमिस्ट से दवाई ले आता हूँ।’ अस्पताल से बाहर निकलते हुए वो अपनी पत्नी से बोला
‘अरे तुम ! अभी भी यहीं खड़े हो? जितने खुले पैसे थे दे दिए अब दो-चार रूपए कम थे तो क्या हो गया? तुम लोग किसी की मजबूरी नहीं समझते।’ गेट के पास कंबल ओढ़े रिक्शा वाला को खड़ा देख उसका पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया
‘साहब, अब मुन्ना कैसा है? मैं तो उसे देखने के लिए ही खड़ा था। बीते बरस गांव में ऐसी ही सर्द रात में मेरा बच्चा डाॅक्टर के पास पहुुुंचने से पहले भगवान को प्यारा...।’ कहते-कहते रिक्शा वाला सिसकने लगा
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(२). योगराज प्रभाकर 
कीचड और कमल 

"इस बार तो इंद्र देवता ने कमाल ही कर दिया मालिक, देखिए न बरसों से सूखाग्रस्त हमारा गाँव भी जल थल हो गया है।"    
"हाँ वो तो ठीक है मगर लेकिन बारिश की वजह से हमारा जौहड़ कीचड से भर गया है।" 
"अब बारिश में भले गंगाजल ही क्यों न बरसे, कीचड तो होगा ही होगा।"  
"लेकिन लोगबाग इसे देखकर नाक सिकोड़ रहे हैं, और हम से नाराज़ भी हैं। क्या जवाब दें उनको, भरवा दें क्या जौहड़ को?" 
"नहीं मालिक बिलकुल नहीं, आप उन अनाड़ियों की परवाह बिल्कुल न करें।" 
"तो हम क्या करें माली काका?"
"आप थोड़ी प्रतीक्षा करें। हम इस जौहड़ की अच्छी तरह से देखभाल करेंगे, इस पर दिलो जान से मेहनत करेंगे । जिस दिन इस कीचड़ में कमल खिल गए, तब इन सबकी ज़ुबानों पर ताले पड़ जाएंगे।"
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(३). सुश्री कांता रॉय जी 
" वेल मेंटेन्ड अर्थ " ----- प्रत्युत्तर प्रकृति का

चलते - चलते साँस थमने लगी और वह हाँफने लगा । आस - पास दूर - दूर तक सीमेंट काँक्रीट के जंगल में पशु - पक्षी रहित सिर्फ मानव एकमात्र प्रजाति नजर आ रहे थे । वह हैरान था। वह घुट रहा था । तरक्की की चमकदार आसमान बिलकुल गर्म ताँबाई आभा लिये और रास्ते रजतवर्ण से चमक रहे थे । समस्त धरती कीचड़ और तालाबों से रहित सुव्यवस्थित थी । " वेल मेनटेन्ड अर्थ " यानि " पाॅलिश्ड दुनिया " ! शायद इसी का ख्वाब देखा गया हो कभी जो आज साकार है । वह अपनी टुटती हुई साँसों की डोरी थामे , आॅक्सीजन की तलाश में , माॅल दर माॅल भटक रहा था । 

" वेल मेन्टेन्ड अर्थ " का प्राणी , लेकिन पाॅल्यूशन फ्री ब्राँडेड आॅक्सीजन खरीदने के लिये " प्लास्टिक मनी " जरा कम पड़ गये । साँसों के लिए लोकल आॅक्सीजन की एक साधारण .सिलिंडर की तलाश में बेहाल था । जान मुश्किल में थी । जीवन का आखिरी काल सम्पूर्ण जिंदगी के हिसाब - किताब के स्मरण का काल भी होता है । पुर्व में पढी़ " पेट की आग " की कहानी याद आ गई उसे । सुना हैं कि "भूख " का विकल्प कभी पानी हुआ करता था गरीबों के लिए । लेकिन किसी निर्धन के लिए आॅक्सीजन यानि साँसों की भूख का विकल्प क्या है ? क्योंकि निर्धनता तो आज भी कायम था इस " वेल मेन्टेन्ड अर्थ " पर । गरीब के पेट की भूख अब साँस की भूख तक पहुँच गई ।सीने में " मरोड़ " सी उठी । वह तड़प कर जमीन पर औंधे गिर पड़ा । लुँज - पुँज से अपने हाथ में , पिछली शताब्दी के कुछ आखिरी बचे पेड़ों की तस्वीर लिए , कातर नजरों से उनको देख जा रहा था , मानो उन पेड़ों से गुहार लगा रहा हो , लेकिन तस्वीर क्या कभी प्राणवायु देते है ?  उसके छाती की अकड़न प्रयाण - बेला को निश्चित कर गई । 

सहसा वह पसीने - पसीने हो उठा। उसकी नींद खुल चुकी थी । भय से पीले जर्द चेहरा लिए , जिंदा वह , स्वंय के देह को छूकर आश्वस्त हुआ । बिस्तर से उठ बाहर की ओर देखा । " वेल मेन्टेंड अर्थ " होने से दुनिया अभी बची थी । नीम ,पीपल और जामून के पत्ते मस्त हवाओं संग झूम रहे थे । अभी -अभी देखे ख़्वाब से वह अंदर तक डरा हुआ था। फावड़ा ,गैती ले घर से निकल , सड़कों पर यहां - वहां अब वह बिना रुके जहाँ - तहाँ , गड्ढे ही गड्ढे खोदता रहा । कनेर , गुडहल और जाने कितने पेड़ों की शाखाओं का ढेर लगा कर जल्दी - जल्दी रोपे जा रहा था ।
" ये क्या जंगल ,कचरा लगा रखा है यहाँ ! पागल हो क्या ? "
" पागल ? हाँ ,मै पागल ! धरती पर फिर से जंगल और कचरे का ख्वाब देखने वाला पागल । हा हा हा हा ......"
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(४). श्री मोहन बेगोवाल जी 
प्रत्युतर

मेरे पूछे गए सवाल में जो उत्तर मुझे मिला ऐसा लगा जैसे उस के कहे शब्दों से मेरी सोच में ऐसे हलचल पैदा हो गई जैसे किसी ने ठहरे पानी में पत्थर   फेंक दिया हो । गाँव में जब हस्पताल बनने की खबर आई,तब चुनाव करीब थे फिर भी गाँव के सभी लोग बहुत खुश थे । विरोधियों में भी चुप छा गई थी, एक बड़े फंक्शन के साथ मंत्री साहिब ने इस की नींव रखी और कुछ महीनों में हस्पताल की बिल्डिंग बन तैयार हो गई । चुनाव की तारीख से पहले उसका उदघाटन भी कर दिया गया । गाँव में उस दिन खूब रौनक थी,पहली बार इतनी गाड़ियाँ गाँव में  आई थी । चाहे हस्पताल गाँव के बाहर ही बना था,पर अब इलाज के लिए लोगों को शहर नहीं जाना पड़ेगा,यही हर एक की ज़ुबान पे था ।  
    पर अब वह सन्नी मेरे पास खड़ा कह रहा था हम क्या बताएं बस ये तो हमारे लिए सफ़ेद हाथी खड़ा कर दिया गया,कभी डाक्टर नहीं,अगर डाक्टर है तो दवाई नहीं, कई बार दोनों ही नहीं ।  कोई यहाँ आए भी तो किस लिए, लोगों ने  इलाज के लिए घर का क्या क्या नही बेचा ? 
    उसका ये उत्तर सुन मेरी आँखों के आगे अख़बार मे छपी  सुर्खियाँ में लिखा ,अब हरेक गाँव में ही मियारी स्वस्थ्य सेवाएँ उपलब्ध होंगी और तब मुझे ऐसा लगा जैसे मैं जो उत्तर ढूंढने आया था । ऐसा लगा जैसे  उनके चेहरे मुझ से प्रत्युत्तर पाने का इंतजार करने लगे हों, और मैं दूसरी और सड़क की तरफ देखने लगा ।   
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(५). सुश्री शशि बंसल जी 
प्रत्युत्तर ( लघुकथा )

" खोंss खों ssss.......। "
" माँ , आपसे मना किया था न.... जब तक तबीयत ठीक नहीं हो जाती आप रसोई में नहीं आएँगी ।जाइये , जाकर आराम करिये ... पापा के लिए चाय नाश्ता मैं बना दूँगी । " साक्षी ने नेह पगे स्वर में कहा ।
" मैं ठीक हूँ बेटा । तू जा , कल की परीक्षा की तैयारी कर ।रसोई का काम तो होता रहेगा । इस मुई खाँसी की तो आदत हो गई अब । "
चाय - नाश्ते ले सविता ' ड्राइंग-रूम ' में पहुँची तो देखा , अमित सोफे पे अधलेटा हो टी.वी. पर राजनीतिक - बहस देखने में तल्लीन है ।उसने उँगलियों में सदा की तरह ही सिगरेट दबा रखी है । लंबे - लंबे कश खींच नाक व मुँह से धुएँ के  छल्ले छोड़ने में उसे विशेष आनंद आता । चाय के प्याला ले सविता भी पास ही बैठ गई । मुश्किल से दो घूँट भी न भरे थे कि अचानक जोर से आये ठसके ने मुँह की सारी चाय बाहर कर दी । अमित गुस्से से चिल्लाया , " जब देखो खोंsss खोंsss करती रहती हो । मुँह पर हाथ नहीं रख सकती थी क्या ? कपड़े और मूड दोनों ख़राब कर दिए । "
तेज़ आवाज सुन साक्षी भी अपने कमरे से दौड़ी चली आई थी । माँ की पीठ सहलाते हुए बोली , " वाह , क्या खूब पापा ! दो - चार छीटें क्या गिरे आप पर , आप चिल्लाने लगे .... बजाय माँ को संभालने के , और आपका आनंद ले - ले कर उगला ये जहरीला धुआँ माँ बरसों से निगल रही हैं उसका क्या ?
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(६) श्री धीरज झा जी 
प्रत्युत्तर...(लघु कथा)


" पापा आप कहां जा रहे हैं ?"नेता जी की 12 की बेटी ने उन्हे बने ठने देखा तो ये सवाल कर दिया |
"बेटा ! आज एक सभा में हमे मुख्यअतिथी के रूप में आमंत्रित किया है वहीं जा रहे हैं |
" वहां आप क्या करेंगे ?"
" बेटा वहां हम दहेज की कुप्रथा पर भाषण देंगे |"
" पापा ये दहेज क्या है ?"
" बेटा शादी के समय लड़के वाले लड़की वालों से जो पैसे और सामान लेते हैं उसे दहेज कहा जाता है | "
" पापा क्या ये बुरी चीज़ है ?"
" हां बेटा बुरी है | सब को यही बताने तो हम जा रहे हैं |"
" पापा हम अब ज़मीन पर सोयेंगे, सोफे पर नही बैठेंगे , अपने रूम का टीवी भी नही देखेंगे , और पुरानी वाली गाड़ी मे भी नही बैठेंगे |"
नेता जी ये सब सुन कर हैरानी से पूछा " पर क्यों बेटा ?"
" पापा माँ कहती है आपकी शादी में ये सब सामान नाना जी ने आपको दिया था | ये भी बुरी चीज़ें हैं हमे नही यूज़ करनी बुरी चीज़ें |
बेटी का "प्रत्युत्तर" सुन कर नेता जी शर्मिंदगी से पानी पानी हो गए |
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(७). सुश्री डॉ नीरज शर्मा जी 
प्रत्युत्तर

‘क्या  लेकर आई है? भुनगा सा मसल दूंगा’ - महिमा अपने दो साल के बच्चे की अंगुलि थामे चली जा रही थी और ससुर जी के कहे ये शब्द , आज भी  उसके कानों में गरम सीसा बन घुले जा  रहे थे । मन में घमासान मचा हुआ था । आज फिर एक बार , वो कड़वी यादें चलचित्र की भांति निगाहों में घूमने लगीं थीं। कैसे  गर्भाशय में रसौली होने के कारण, उसे ऑपरेशन कर निकाल देना पड़ा था। बांझपन का दंश व लोगों के तानों ने उसका जीना मुहाल कर रखा था। वहीं घर वालों ने भी सीधे मुंह बात करना बंद कर दिया था। वह अपने आप से ही प्रश्न पूछती ‘ क्या संतान न हो तो नारी , नारी नहीं रहती ? मन विरक्ति से भर गया था व ज़बान पर तो जैसे ताला ही लग गया था।

एक स्त्री का कोमल मन कब तक सहता?  विक्षिप्त सी स्थिति हो गई थी उसकी। तभी पति ने उसकी खुशी की खातिर बच्चा गोद लेने का निर्णय लिया व अपनी साली के घर उत्पन्न दूसरी संतान को उनकी सहमति से, उसकी गोद में डाल दिया। महिमा को तो जैसे नया जीवन ही मिल गया। किन्तु घर वालों के विरोध के चलते घर छोड़ना पड़ा। 

आज सुबह ही ससुरजी को पक्षाघात होने की खबर मिली व  कोमल हृदया नारी चल दी उन्हें देखने । आंखों ही आंखों में उनके समक्ष अनेकों  प्रश्न कर डाले पल भर में उसने।उनकी  आखों से बहती अश्रुधारा शायद हर प्रश्न का उत्तर दे रही थी।
“ इसे ही मसलना चाहते थे न आप?” पुत्र को आगे कर  फट पड़ी वह ।
उन्होंने कांपते हुए दूसरे हाथ से बालक के सिर पर हाथ फेरा व एक लिफाफा पकड़ाकर सभी प्रश्नों को सदा सदा के लिए विराम दे दिया।
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(८). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी 
तपस्या (प्रत्युत्तर विषय आधारित)

"तड़ाक !! अधर्मी , छब्बीस वर्ष इसी सफेद पल्लू और तुम्हारे निसंतान ताऊ की स्नेहिल-छाँव में जमाने के ताने सुनते हुए काट दिये। जबकि असंख्य अवसर आये थे नई दुनिया बसाने के।और तुम आज साज- श्रृंगार की बात कर रहे हो।"
" माँ , जो कुछ हुआ अच्छा नही हुआ , लेकिन आपकी बहू ने तो वही कहा जो उसने लोगों से सुना।मेरे ख्याल से आपको और ताऊ जी को विवाह कर...|"
" बहू और दुनियावालों को क्या दोष दूँ ? जब अपने जाये ने ही मेरी निश्छलता और तपस्या पर घड़ों पानी फेर दिया।"
कहने को तो उसने कह दिया लेकिन वह स्वयं पर संयम नहीं रख पा रही थी। बेटे के शब्द तेज़ाब बन मन मस्तिष्क को झुलसा रहे थे।
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(९). श्री सौरभ पाण्डेय जी 
 प्रत्युत्तर

स्कूल में वार्षिक-दिवस की तैयारी ज़ोर-शोर से चल रही थी. भाषण-कला के लिए क्लास-1 के बोर्ड पर शीर्षक लिखा था - ’मातृभूमि’ !
"तुम्हें भी कुछ कहना है आयशा ? देखो, और बच्चे कितना बढिया बोल रहे हैं !" - मैम ने सात वर्ष की आयशा को उत्साहित करते हुए कहा - "तुम्हारा भी नाम बोल दूँ, बेटा ! बोलोगी ?"
अपनी उम्र की बच्चियों की अपेक्षा आयशा शांत रहा करती थी. उसके अब्बू इण्डियन आर्मी में थे और पूंछ सेक्टर में पोस्टेड थे, जब दो वर्ष पहले सीमा पार के एक टेरोरिस्ट कॉम्बैट में शहीद हो गये थे.
मैम के पूछने पर वह कुछ बोल नहीं पायी, लेकिन उनकी बातों को उसने नकारा भी नहीं, हल्का-सा सिर हिला दिया. थोड़ी ही देर में आयशा का नाम पुकारा गया. सधे हुए कदमों बढ़ती हुई आयशा माइक के सामने जा कर खड़ी हो गयी, चुपचाप ! उसकी आँखें शून्य में टंग गयीं थीं. सभी आयशा की ओर देख रहे थे. मैम ने इशारा किया - "बोलो !" 
मगर नहीं ! 
मैम आयशा के पास गयीं - "आयशाऽऽ.. बेटी चुप क्यों हो ? बोलो.. !" 
आयशा की जैसे तन्द्रा टूटी. लेकिन आँखें अब भी अपने आस-पास नहीं, सामने दीवार पर थीं. मन शांत था - 
"अम्मी बोलती हैं.. अब्बू अपनी अम्मी की गोद में सो गये हैं.. "
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(१०)..डॉo विजय शंकर जी 
 पूर्ण प्रत्युत्तर 

सीनियर जूनियर को ज्ञान दे रहे थे।
" दुनियाँ में मौके पर गधे को बाप कहना पड़ता है "
जिज्ञासु जूनियर ने पूछा , " सर , ये कैसे पता चलेगा कि गधे को बाप कहने का मौक़ा आ गया है ? "
सीनियर का प्रत्युत्तर था , " पता क्या करना , बस गधे को बाप कहते रहो। पिता जी मौक़ा दें न दें , गधा जरूर देगा। "
प्रत्युत्तर पूर्ण था।
कोई प्रश्न शेष नहीं रहा।
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(११). श्री शेख शहजाद उस्मानी जी 
 "कुएँ के मेंढक"   ['प्रत्युत्तर'-विषयाधारित लघुकथा]

" तुम.....तुम जाने क्या समझते हो अपने आप को और वास्तव में तुम हो क्या, मैं अच्छी तरह जानता हूँ।" नाराज़ त्रिपाठी जी क्रोध के आवेग में अपने ज्येष्ठ पुत्र, विनोद को उसकी ससुराल वालों के सामने ही उसे डांटने फटकारने लगे-"तुम ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर सकते। कौन सी अच्छी आदत है तुम में ? लगता ही नहीं कि तुम मेरी औलाद हो। मेरा कुछ तो असर होता ! मुझसे क्या सीखा तुमने ? "
अपने पति देव जी को दूर से ही पत्नी ने संकेतों से शांत रहने को कहा, लेकिन वे बेटे पर भड़ास निकालते गये-"शर्म नहीं आती, अरे तुम्हारी उम्र के लोग कितनी कमाई कर रहे हैं, कहां से कहां पहुँच गये मेहनत करके ! एक तुम हो कि कोई न कोई उसूल बता कर , कोई न कोई बहाना बना कर वहीं के वहीं हो !"

अपनी ज़ुबान पर भी नियंत्रण खोते हुये बेटा बोल पड़ा- "बहानेखोर तो आप थे, उसूल तो आपके घटिया थे, ऑफिसर होते हुए भी कुछ पैसा नहीं जोड़ पाये, पोस्ट ग्रेजुएट बेटे को नौकरी से नहीं लगा पाये, ... .अरे आज के ज़माने के हिसाब से कौन सी अच्छी आदत है आप में ?"

माहौल बिगड़ता देख विनोद की पत्नी उसे लगभग घसीटती सी कक्ष के द्वार तक ही ला पायी थी कि वह दहाड़कर बोला- "आपने कौन सी तोपें मारी हैं ज़िन्दगी में ? ड्राइंग-रूम में प्रशस्ति-पत्र और सम्मान-पत्र लटकाये बैठे हो। मुझे भी अपने ही जैसा बना दिया क़िताबी कीड़ा और कुएँ का मेंढक ! .....और... मैं... मैं हूँ क्या ? अरे, मैं वही हूँ जो आपके 'जीन्स' में है, जो 'अनुवांशिक' है ......'हेरेडिटी' है ! मेहनत करना आता है मुझे ! ईमानदार हूँ, न भ्रष्टाचार करूँगा और न ही किसी के सामने झुकूंगा । किसी की खुशामद करूँगा नहीं । उधार किसी से लूँगा नहीं, झूठ बोलूंगा नहीं। आप बाप हैं मेरे, आप की 'प्रतिष्ठा' पर आंच भला कैसे आने दूंगा ! ..... अरे, मज़े की ज़िन्दगी के लिए अगर लाखों से खेलना है न, तो सिर्फ 'मेहनत' से कुछ नहीं होता इस ज़माने में !!!"
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(१२). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
लघुकथा- प्रत्युत्तर


“ अब हमें शादी कर लेनी चाहिए,” दो साल तक लव इन रिलेशन शिप में रह रहे रोहन ने कविता से कहा.
“ अभी मैंने इस बारे में नहीं सोचा है,” कविता यश की यादों में खोई हुई थी.
“ मैं नहीं चाहता हूँ कि तुम यश से मिलो I”
“ वह मेरा दोस्त है. उस से मिलना मुझे अच्छा लगता है.”
“ इसीलिए कह रहा हूँ कि हम शादी कर लेते हैं. अब तुम्हारी दो साल की ट्रेनिंग भी पूरी हो गई है. नौकरी भी लग गई हैं . कोई मजबूरी भी नहीं हैं,” उस ने लगभग चींखते हुए कहा.
“ मुझे तुम पर विश्वास नहीं है !” कविता भी चींखती हुई रो पड़ी.
“ मेरे साथ दो साल रहने के बावजूद !” उस ने कविता को झंझोड़ दिया, “ तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है !”
“ हाँ. दो साल रहने के बावजूद. क्यों कि तुम अपनी ब्याहता बीवी के सगे नहीं हो सके तो मेरे क्या होओगे ! इसलिए मैं यश से शादी करने जा रही हूँ ,” प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए बिना कविता तुरंत घर से निकल पड़ी.
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(१३). सुश्री सीमा सिंह जी 
जूठन

निशा इस घर की नौकरानी नहीं थी, मगर उससे ज्यादा भी कुछ ना थी. कहने को तो उसके चाचा-चाची का ही घर था परन्तु माँ-पापा के जाने के बाद निशा महज नौकरानी ही तो बन कर रह गई थी...
“निशाSSS!” चाची ने पुकारा, “कहाँ थी? चल कुछ मांग ले मुदिता से अच्छा सा पहनने को, लड़के वाले आते ही होंगे.” फिर मुदिता से उन्मुख हो कहा, “बेटा तू तैयार है? जल्दी कर ले... और हाँ इसको भी कुछ दे दे ठीक-ठाक सा पहनने को.”
मुदिता ने माँ से कहा, “इसको क्या देना, ये तो हमेशा से उतरन में ही जचती है... पहन ले ना मेरी कोई भी साड़ी. देख सामने पड़ी हैं.” फोन में घुसी अपने मंगेतर से चैट करती मुदिता ने निशा को व्यंग्यात्मक दृष्टि से देखा, निशा भीतर तक बिंध गई.
कमरे से निकलते निकलते मुदिता अपनी जूठी प्लेट उसके हाथ में थमा गई, “ले खा ले. मैं चली जाउंगी तो मेरी जूठन नहीं मिलेगी...”
निशा ने विद्रूप हँसी के साथ कहा, “तू क्या जाने मुदिता, तुझको तो मेरी जूठन के साथ जीवन बिताना है...”
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(१४). श्री पंकज जोशी जी  
प्रत्युत्तर - विधर्मी खून
 
हैजा का प्रकोप ऐसा फैला कि पूरा गांव उसकी चपेट में आ गया । शन्नो ताई भी उससे अछूती ना रही । शन्नो ताई को अफसोस था उस दिन पर जब रमा आई थी जागरूकता के लिये और उसने ,

" ए रमा ! चल हट यहां से ! भाग यहां से नासपीटी फ़ौज को ले कर के ! हमारे कुंए को हाथ भी ना लगाना , हमे कोई दवा-ववा नहीं डलवानी तेरे से। "
" पर ताई ! अगर कुँए का पानी साफ़ नहीं किया गया तो गांव में हैजा फैलने का डर है । "
" मुझे सिखाती है करमजली ! शहर जा कर चार अक्षर क्या पढ़ आई मुझको अंग्रेजी सिखाती है । "
" बड़ी आई डाक्टरनी कहीँ की मुझको अक्ल सिखाने आई है । उस समय तेरी अक्ल किधर चरने चली गई थी जब तूने उस विधर्मी के साथ मुँह काला करके हमारी नाक कटा कर चली गई थी । हमको बुढापे में सिखाएगी जाति पात , धर्म भेद ? "
"अरे ओ सुखिया दो लठैत बिठा दे इहाँ पर और देखो कउनो हमार पानी ना छुएं । "
आज उस दिन को याद करते हुए वो आत्मग्लानि की अनुभूति कर रही थी ।
 तभी वार्ड में रमा उनका चेकअप करते हुई बोली "ताई अब तुम बिलकुल ठीक हो तुम अपने घर जा सकती हो लेकिन तुमको गाँव में अब कौन अपनायेगा ? " तुम तो अशुद्ध हो गईं जो खून तुम्हारी रगो में बह रहा है वह तो तुम्हारे विधर्मी दामाद का है । अब तो तुम्हे मेरे साथ ही रहना पड़ेगा। " रमा ने चुटकी लेते हुए कहा ।
" नासपीटी कहीं की मुझसे ठिठोली करती है ! " ताई ने प्यार भरी चपत उसके गाल पर मारते हुए कहा ।
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(१५). सुश्री राजेश कुमारी जी 
प्रतिउत्तर लघु कथा

“माँ देखो न आज फिर चाचा  ने मुझे चश्मिश कहा आप या पापा कुछ बोलते क्यूँ नहीं कभी चश्मिश कभी चश्मेबद्दूर ..ये क्या है मम्मा ? अगर मैंने कुछ कह दिया न !! फिर आप मुझे ही कहोगे..” नीतू ने गुस्से से कहा | “नहीं बेटा वो बड़े हैं, भाई  हैं तुम्हारे पापा के तुम बोलोगी तो बुरा लगेगा प्यार से कहते हैं और फिर बेटा ये बात ध्यान रखना कि हर चीज का प्रतिउत्तर भगवान् के पास होता है तो कुछ चीजें वक़्त पर छोड़ कर हिम्मत से आगे बढ़ जाना चाहिए”  माँ ने प्यार से समझाया|
(लगभग बीस दिन बाद)
“लो बेटा तुम्हारी छोटी बहन की भी आई साईट वीक हो गई|
न जाने आज कल क्या हो रहा है खानपान में कहाँ कमी आ रही है कि छोटे छोटे बच्चों की आँखें कमजोर हो रही  हैं ” अपनी बेटी शालू को नीतू की तरफ आगे बढाते हुए चाचा  ने कहा|
“ओह्ह्ह.. चाचा  फिर तो अब दो दो चश्मिश,दो दो चश्मेबद्दूर हो गई घर में ” 
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(१६). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी 
'क्रीम बनाम बेल्ट'


'"फिर एक नई क्रीम ?आठ सौ रूपये ii..."पति उसकी क्रीम उठाकर पढने लगे थे I
"लाइए ,अन्दर रखनी है "उसने हाथ बढाया I
"भई इन महँगी क्रीमों का हाँसिल क्या है? पति की जेब कटाई बस्स ,सही है ना?जवान दिखने की इतनी चाहत क्यों है  तुम औरतों में , अब उम्र है तो है ..क्यों ?
"अब दे दीजिये "'उसे अपने आप पर कोफ़्त हो रही थी कि लाते ही संभाल क्यों नहीं दी क्रीम I
",वैसे आजकल बेटी के साथ सेल्फी खूब डालती हो ,सहेलियां कहती होंगी  ..'वाऊ तुम दोनों तो बहने लगती हो '.."अब पति को कोंचने में मजा आ रहा था I
"बस बहुत हुई टांग खिंचाई ,अब बस करो " उसे समझ नहीं आ रहा था किक्या बोले I
"अरे सुनो तो , जहाँ तक हमारा सवाल है ,तो भई हमारे लिएतो तुम अब जैसी भी हो ठीक हो ..अब कोई रिटर्न  ऑफर तो होता नहीं है कि बदल के दूसरी ले लो क्यों ., अब गुस्सा मत हो जाना देखो ,चेहरा खराब हो जाता है "I
पति के तानों को फोन की घंटी ने विराम लगाया I
" देखो  तो कौन है "अपने मजे में व्यवधान पति को  अच्छा नहीं लग रहा था I
उसने फोन उठाया I बातें करते हुए उसके चेहरे के भाव धीरे धीरे बदल रहे थे I थोड़ी देर पहले का तनाव अब मुस्कान में बदल गया  था I
"कौन था ?बडा मजा आ  रहा था तुम्हे बातों में "I
"था 'नहीं' थी ' कोई' होम शॉपिंग वाली थी I आपने कोई  बेल्ट आर्डर की होगी जिसे कमर में बाँधने से बाहर निकला पेट एकदम कस जाता है ,अगल बगल के टायर भी नहीं दिखते और ..."
"अरे, वो तो ऐसे ही  लगा दिया था फोन एक दिन टीवी में देखकर "पति की आवाज़ से थोड़ी देर पहले का मज़ा गायब होने लगा था I
"ऐसे ही क्यों ? बिलकुल तीस साल जैसा कसा हुआ शरीर दिखता है इस बेल्ट को बाँध कर , ऐसा वो बता रही थी ,और वो भी मात्र पंद्रह हज़ार रूपयेI  कल पहुँच जाएगा पार्सल  I,वैसे मेरा तो काम बढ़ गया ना , अब बंटी के साथ साथ आप के लिए भी टी शर्ट्स खरीदनी होंगी  .. हैं ना  ?

उसकी आँखों की नटखट चमक और चेहरे पर खिंच आई चुलबुली मुस्कान में पढ़ लिए थे पति ने  अपने सारे कटाक्षों के जवाब ,और वो निरुत्तर था अब I
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(१७). सुश्री नेहा अग्रवाल जी 
समर्पण

विशालकाय पहाड़ों के समक्ष एक चींटी के समान वह बस पहाड़ी दुर्गम रास्तों पर हिचकोले लेकर धीरे धीरे बढने के बावजूद भी एक मोड़ पर अचानक से दूसरा वाहन आने पर रोज़ की भांति अपनी विजयगाथा नहीं लिख पायी और खायी की तरफ लटक गयी| सभी यात्री स्वयं को और अपने परिवार वालों को बचाते हुए बाहर आने के लिये भागे, शुरू के कुछ लोग बाहर निकलने में सफल भी हो गए| इन सबके बीच एक औरत झूमती हुई, अपना सामान बस से निकालने की कोशिश मे लगी थी।उसकी इस हरकत पर उसके पीछे खड़ा व्यक्ति गुस्से में बोला:

"क्या कर रही हैं.... यहाँ जान पर पड़ी है और आप सामान निकालने पे तुली है।"
पीछे से एक और बोला, "शायद ये नशे में भी है।"
वो औरत मुड़ी और बोली:

"भाईसाहब! इस बैग के ऊपर मेरा पता लिखा है, इसमें कुछ रुपये भी हैं जिनसे मेरा बेटा कई दिन खाना खा सकता है। मेरा सिर टकरा गया था...."
कहते हुए वो औरत वहीँ गिर पड़ी।
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(१८). सुश्री बबिता चौबे शक्ति जी 
 प्रत्युत्तर


" हा ,हा, हा , कैप्टन , अब तुम अकेले बचे हो । खुद को सरेन्डर कर दो और कोई चारा नहीं है ! " दुश्मन सेना के टैंक का कमांडर बार बार दहाड रहा था ।
" तुम्हारी सहायता को सुबह से पहले कोई नही आ सकता और तब तक हम तुम्हें और तुम्हारी चौकी को मटिया मेट कर देंगे । जबाब दो , जल्दी जबाब दो ! "
अपनी चौकी पर अकेले बचे सुरेन्दर सिंह अच्छी तरह जानते थे कि दुश्मन सही कह रहा था । पर प्रत्युत्तर देना जरूरी था उन्होने कुछ सोचा और हाथ उपर करके बाहर आ गए ।
" हा , हा, ये है नामी फौजी , हमारे टैंक ने मिट्टी मे मिला दिया इनकी चौकी को । इनके पास हमारा जबाब ही नहीं है। बोल जबाब दे ! "
अचानक सुरेन्दर सिंह ने अपने शरीर पर बंधी बमों की पिन निकालकर टैंक के ऊपर छलांग लगा दी ।
देखते ही देखते टैंक दुश्मन सहित टुकडो मे बिखर गया । जबांज जवान ने प्रत्युत्तर दे दिया था
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(१९). श्री सुधीर द्विवेदी जी 
प्रति प्रश्न (प्रत्युत्तर विषयाधारित )

इतनी रात में अपने आफिस में अपने सामनेँ खड़े अक्स को देख वह चौंक उठा |
“तुम्हे अंदर किसनें आनें दिया ...?" वह जोरों से चीख उठा | वह अक्स मुस्कुरा रहा था | वह क्रोध से बिलबिला उठा | “बोलतें क्यों नहीं कौन हो तुम...?? वह जोर से चीखा |
“मुझे नहीं पहचानते..? उस अक्स की आवाज गूंजी |
“नहीं..!!” उसने अपने चश्मे के कांच साफ़ करते हुए अनजान बनते हुए उत्तर दिया ,पर अब उसे घबराहट होनें लगी थी | तभी अचानक वह अक्स एक रोती-बिलखती लड़की में तब्दील हो गया |
“अरे तुम तो वही लड़की हो न ! जिसके साथ एम्.एल.ए साहब नें जबरदस्ती...|” वह कुर्सी के हत्थे का सहारा लेते हुए खड़ा होने लगा | अब वह अक्स एक बूढी औरत में तब्दील हो गया था , उसे देख उसे मशहूर बिल्डर नेकचन्द के कहे शब्द याद आ गए “वकील साहब ! अगर उस बुढ़िया की जमीन मुझे मिल गयी तो मैं तुम्हे रुपयों में तोल दूँगा |“ सोच-सोच कर वह अब हाँफने लगा था | डर के मारे उसने आँखे बन्द कर ली पर जब उससे न रहा गया, तो उसनें फिर आँखे खोली | सामनेँ खड़ा वह अक्स अब हूबहू उसके स्वर्गीय बेटे की तरह दिख रहा था ,जिसे उस जैसे ही एक बड़े वकील ने अपने धारदार तर्कों से ,निर्दोष होते हुए भी दोषी साबित कर दिया था और हताश बेटे ने आत्महत्या कर ली थी | उसकी आँखों से आँसूं बह निकले |
उस अक्स की आवाज़ एक बार फिर गूँजी .. “क्या अब भी मुझे नही पहचाना ..?
“हाँ हाँ.. जानता हूँ ..तुम मेरे ज़मीर होssss ..!”
पूरी ताकत से चीखते हुए उसनें दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया और फूट-फूट कर रोने लगा |
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(२०). सुश्री रजनी गोसाईं जी 
प्रत्युत्तर (लघु कथा)

"गाइड की पांच साल की नौकरी में मैंने ऐसा बड़बोला विदेशी गोरा पर्यटक नहीं देखा! जब देखो अपने पश्चिम की बड़ाई और हमारे देश की बुराई! तुम्हारे देश में इतना गंदगी क्यों हैं, छोटे छोटे बच्चे हमारे पैर पकड़कर भीख क्यों मांग रहे हैं, इतना गरीबी क्यों हैं वगैहरा वगैहरा! अभी इसे कुम्हार बस्ती ले जा रहा हूँ पता नहीं वहां क्या बोलेगा" अपने आप से बड़बड़ाता हुआ गाइड आनंद बोल पड़ा! कुम्हार बस्ती पहुँचते ही गोरे पर्यटक की आँखों में चमक आ गयी! पूरी बस्ती मिटटी के खिलोनो, भगवान की मूर्तियों से अटी पड़ी थी! एक कुम्हार भगवान की प्रतिमूर्ति बना रहा था!
" मिस्टर गाइड एक बात बताओ तुम हिन्दू इन मिटटी के भगवान की पूजा करता फिर इन्हे ही नदी में डालता इनको नष्ट करता ये कितना फनी(मजाकिया) लगता!" व्यंगात्मक लहजे में वो गोरा पर्यटक बोला!
गाइड आनंद के कुछ बोलने से पहले ही मूर्ति बनाता कुम्हार बड़ी मासूमियत से  बोल पड़ा " वो साहब हम ऐसा इसलिए करते हैं की सबको ये याद रहे ये दुनिया एक दिन छोड़नी हैं धरती पर जो आएगा वो एक दिन जरूर जाएगा फिर चाहे वो देवता ही क्यों ना हो! सारा संसार ही मिटटी है!" कुम्हार के इस उत्तर का गोरे पर्यटक के पास अब कोई प्रत्युत्तर ना था!
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(२१). श्री तेजवीर सिंह जी 
प्रत्युत्तर -  ( लघुकथा )

दूल्हे के बाप ने कन्या के पिता से फ़ेरे से दस मिनिट पहले नयी  कार की मांग कर दी! कार दो या कीमत  दो तभी फ़ेरे पडेंगे!माहौल तनावपूर्ण हो गया!कन्यापक्ष  वर पक्ष को समझाने में लग गया! मजे की बात यह थी कि यह शादी लडका और लडकी के प्यार  के कारण हो रही थी!इसलिये लडकी बार बार घूंघट से लडके की तरफ़ झांक रही थी कि वह कुछ बोले!पर लडका तो बुत बना बैठा था!

आखिरकार लडकी को घूंघट हटाना पडा और दुल्हे से बोली,"राजीव,तुम चुप क्यों हो, अपने पिता को समझाओ"!
"नहीं रजनी, मैं इस मामले में पिता को कुछ नहीं कह सकता क्योंकि उन्होंने मुझे पहले ही कहा था कि शादी तुम्हारी पसंद की लडकी से ही होगी पर बाकी शर्तें हमारी होंगी और फ़िर यह सब तो तुम्हारी ही सुख सुविधा के लिये मांगा है "!
"ओह यह बात है, यदि मुझे अपने पिता की दी हुई चीजों मे ही सुख भोगना है तो मै पिताजी के घर ही खुश हूं तुम इसी वक्त अपने लालची बाप की उंगली पकडो और मेरे घर से निकल जाओ, मुझे नहीं चाहिये तुम्हारे जैसा दब्बू दूल्हा"!
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(२२). श्री मनन कुमार सिंह जी 
प्रत्युत्तर(लघुकथा)


चुनाव प्रचार थम चुका है।अब प्रत्याशी लोग घर-घर घूम कर संपर्क कर रहे हैं,मत की गुजारिश कर रहे हैं।रिझाने के क्रम में नेताजी ने काका से आरक्षण का गुणगान शुरू किया-
देखिये आपलोगों के लिए हमने कितना कुछ किया है,अभी तक आरक्षण को खींचते लिए आ रहे हैं।विरोधी दल वाले की चले तो वे इसे कब की बंद करवा दें।
-अरे भाई रोजी-रोजगार भी तो बढ़ना चाहिए,महज आरक्षण लेके कौन-सा तीर मार ले रहे हैं हमलोग?
-काकाजी,जो रोजगार हैं उनमें तो अपना हिस्सा पक्का रहता है न कि नहीं?
-क्या पक्का रहता है?किसके लिए बना था आरक्षण का नियम?
-जो पिछड़े-गरीब लोग थे उन्हीं के विकास के लिए।
-अभी क्या हो रहा है?
-नहीं समझा काका
-समझोगे भी नहीं कभी
-क्यों,ऐसा क्या है जो हम नहीं समझ सकते?
-आरक्षण वंचितों के लिए था न?
-हाँ जी
-आज लाभुकों की पहचान का आधार क्या है?
-पिछड़ी जातियों का वर्ग(समूह) बना है!वही आधार है आरक्षण देने का।
-और उस वर्ग के सक्षम लोगों की भी बल्ले-बल्ले होती रही है अबतक।वंचित लोग तो उस वर्ग के बाहर भी पाये जाते हैं,कि नहीं?
 नेताजी की सिट्टी-पिट्टी गुम थी,चुपचाप निकल लिये।
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(२३). सुश्री श्रधा थावाईत जी 
प्रत्युत्तर

उस रात मौत तांडव कर रही थी. रात ने मौत से पूछा, “क्या बात है मौत आज तुम इतने विकराल रूप से तांडव क्यों कर रही हो.”
मौत ने कहा, “आज दिन में सरेराह दो भाइयों के सामने एक लड़के ने एक लड़की को छेड़ दिया. प्रत्युत्तर में भाइयों ने उस लडके को पीट दिया. प्रत्युत्तर में उस लडके ने अपने दोस्तों के साथ दोनों भाइयों को बेतरह पीटते हुए मार डाला. लड़की के समाज वालों का खून खौल उठा. प्रत्युत्तर में उन्होंने उस लडके और उसके दोस्तों को मार डाला. अब इस लड़ाई में दो धर्मों के लोगों ने लाठी, बल्लम, चाकू, तलवारें निकाल लीं. फिर तुम आ गयीं. तुम्हारे आगोश में तांडव का मजा ही कुछ और होता है.”
लेकिन मौत की आँखों से आंसू बहे जा रहे थे. रात ने पूछा “मजे में तो तुम हमेशा अट्टहास करते हुए तांडव करती हो फिर आज तुम्हारी आँखों में आंसू क्यों है? क्या तुम खुद अपनी विकरालता से दुखी हो चुकी हो?”

“मौत कभी अपनी विकरालता से दुखी नहीं होती रात! ये तो सैकड़ों बहू-बेटियों की इज्जत की बिखरी किरचें हैं जो चुभ रही हैं.” मौत ने कहा.

दूर कही अट्टहासों और कातर गुहारों की आवाजें आ रही थीं. दोनों धर्म के लोग प्रत्युत्तर देने में व्यस्त थे.
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(२४). श्री सुनील वर्मा जी 
शबरी

रसोई में मन ही मन गाने गुनगुनाती शिल्पा के हाथ एकाएक रूक गये.. "हे भगवान मैनें आटे मे नमक डाला था या नही.." उसने अपने आप से ही सवाल किया.
फिर हथेली पर रखकर थोडा सा आटा चखा..कोई स्वाद आता ना देख, "शायद नही डाला होगा "सोचकर दोबारा डाल दिया.
और फिर आधे घंटे बाद ही ससुर जी द्वारा गुस्से से आंगन में फेंकी गयी रोटियों से इस "आधुनिक शबरी" को अपने आप से किए सवाल का प्रत्युतर मिल गया.
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(२५). सुश्री रश्मि तरीका जी 
"दलील" ( प्रत्युत्तर विषय आधारित लघुकथा)


"रीमा ..यह क्या , यह तो वही कहानी है जो पिछले हफ्ते तुमने लिखी थी? मैंने पढ़ी भी थी लेकिन तुमने इसे अपने आईडी से पोस्ट न करके मेरे आईडी से पोस्ट क्यूँ की ?" अपनी कज़िन रीमा की इस हरकत पर हैरान सा था निकुंज।
"पहले तुम चैक करो कि इस में लाइक्स और कमेंट्स वाले कितने पुरुष हैं और कितनी महिलाऐं हैं ?"
"अरे... ! इस में तो ५८ पुरुष और २५ महिलाऐं हैं ,वो भी मेरे आई डी पर ? आई काँट बिलीव...पर यह माज़रा क्या है ,रीमा ?"
"यह तुम्हारी ही दलील थी न निकुंज ,कि किसी भी कहानी या कविता के साथ अगर किसी खूबसूरत महिला का प्रोफाइल फोटो लगा हो तो सारे लाइक्स और कमेंट्स उसकी खूबसूरती को मिलते हैं नाकि उसके टैलेंट या हुनर को ?"
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(२६).  सुश्री जानकी वाही जी 
    विषय ** प्रत्युत्तर **     ** माँ **

"पाऊ लागु कह, नेत राम ने सुमित्रा के पाँव छू लिए।
"भौजाई, भइय्या कहत रही तुरत ससुराल चली आओ"
"छज़्ज़ा जी ( देवर ) !अब हम तमाय घर ना आवत।" बल खाकर सुमित्रा बोली
" भौजाई काहे आपन घर बिगाड़त हो। दो चार दिना में सब ठीक हो जै।"
" ना.....छज़्ज़ा जी, 10 दिना से हमहुँ नीदं ना आवत रही।"
" मुन्ना कौ ऊँट व्योपारी को पठाय दियौ. करेज़ा है या नाही तुम मरद -मानुस में ?
"भौजाई भुख़ौ मरन की नोबत आय रही थी। अब कम से कम दोउ बखत की रोटी तो खाय लेत हैं।"
तौ....?.."..हमार बिटुवा ही मिलत रही दावँ पर लगाय कौ" कह सुमित्रा की आँखे झरने लगी।
"अरे मरद ज़ात हौ ! कही मेहनत मजुरी नाय करत सकत हौ ?"
"भौजाई तुमही जानत रही हौ ,सूखे की कइसन मार पड़त है पूरे बुन्देल खण्ड मा।"
" कइसन गावँ वाले हैं तमाय ! आपन पेट का वास्ते बच्चों की ज़ान खतरे में डालत हिचकत नाही ?"
"छज़्ज़ा जी, हम आपन बच्चा लोगों को खुद ही पालत रही। बड़का मुन्ना कौ फौरन बुलाय लाओ,नही तौ हम पुलिस मा जाइ ।"
" आपन भाई से ये भी कह दौ कि , हमउ सात फेरे ,संग-संग ..सुख-दुःख बाँटें के वास्ते लिए रहत। आपन बच्चों को गिरवी रखन वास्ते नाही।"
" भौजाई ,हम भइय्या से ये बात कईसे कह पाइ ?"
"वईसन ही ,जइसन उनका ज़वाब लाई रहत हौ।"
ये कह सुमित्रा जंगल को चली गई।
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(२७). सुश्री नीता कसार जी 
 "न्याय"

'पति लाखन के ख़ून का आरोप है तुम पर सफ़ाई में कुछ कहना बीरनबाई ' न्यायाधीश की आवाज़ सन्नाटे को चीरते हुये गूँजी।
'ख़ामोशी इक़बाले जुर्म माना जाता है, ये आख़िरी मौक़ा है, कुछ कहना है । सच सच बता दें , ये मौक़ा तुझे दोबारा नहीं मिलेगा' वक़ील ने उसे सचेत किया।
पत्थरनुमा औरत में थोड़ी हरकत हुई।
"वह रोज़ दारू पीकर आता, दरिंदा बन टूट पड़ता मुझ पर लाख समझाया बेटी बड़ी हो रही है।"
"तो क्या तुम्हे खून करने का अधिकार मिल गया ।" जज ने कहा ।
"तुम क्या जानो साहब , उस रात जिस मासूम को उसने मसला वह उसका ही ख़ून थी। मै अपनी बेटी को बचा नही पाई। हँसिये पर गिर कर वह ख़ुद लुढ़का ।
न्याय तो भगवान ने उसके साथ तभी कर दिया वह अपनी मौत मरा। " उसने पति की मौत पर ज़ोरदार ठहाका लगायायही उसका प्रतिउत्तर था।
"औरत सब बर्दाश्त कर सकती है,पर ममता पर आँच कदापि नही।"
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(२८). श्री मिथिलेश वामनकर जी 
निरुत्तर


"और क्या हाल है मेरे मिटटी के शेर..... ज्वाइन कब कर रहा है?"
"यार अभी तो पोस्टिंग का आर्डर ही नहीं आया है. आर्डर आने के बाद ही ज्वाइनिंग होगी."
"अरे यार तू तो किस्मत वाला है जो ऐसे घर में पैदा हुआ कि कोटे में इतनी बढ़िया नौकरी मिल गई"
".............."
" काश मैं भी तेरे घर में पैदा हुआ होता. क्यों न हम घर एक्सचेंज कर लें?”
"................"
"अच्छा तू अपने पापा से क्यों नहीं कहता कि वो मुझे भी गोद ले ले?"
"मैं तो अपने पापा से कह दूंगा मगर क्या पंडितजी यानी तेरे पापा मुझे गोद लेंगे?
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(२९).. श्री विनय कुमार सिंह जी 
व्यवसाय--


" इतना ज्यादा टर्नओवर है लेकिन मुनाफा तो बिलकुल भी नहीं होता आपको , कैसे चलाते हैं ये व्यवसाय आप "| कुटिल मुस्कराहट चेहरे पर बिखेरते हुए टैक्स इंस्पेक्टर ने कहा |
" आपको तो पता ही है कितना मुश्किल हो गया है व्यवसाय करना | लेबर , ट्रांसपोर्ट , बिजली , वेतन इत्यादि के बाद बचता ही कितना है , फिर ऊपर से टैक्स की दर भी कितना ज्यादा है ", जवाबी मुस्कराहट देते हुए उसने कहा |
" ठीक है , फिर अपने रजिस्टर इत्यादि दिखा दीजिये हमें "|
" पिछले साहब ने इतने लिए थे ", एक चिट पर कुछ लिख कर दिखाते हुए उसने कहा |
" आप को पता है न कि हम आपको रिश्वत देने के जुर्म में गिरफ्तार करवा सकते हैं | रजिस्टर मंगवाईए अपने ", इंस्पेक्टर की आवाज़ थोड़ी कड़क हो गयी |
" ठीक है , इस बार बढ़ा कर इतना कर देते हैं | चलिए थोड़ा नाश्ता हो जाए ", कनपटी पर चू आये पसीने को पोंछते हुए उन्होंने कहा |
" हम लोग भी समझते हैं , कितना मुश्किल है ईमानदारी से व्यवसाय करना | लेकिन अपने पेपर्स ठीक रखा कीजिये ", इंस्पेक्टर ने प्रत्युत्तर में उनको समझाया और लिफ़ाफ़ा जेब में रख कर निकल गया | 
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(३०). सतविंदर कुमार 
"प्रत्युतर" पर आधारित  'चुप्पी'

शाम के समय बैठे एक ख्याति प्राप्त लोगों की मित्र मण्डली में सब अपने पत्रकार मित्र की चाटुकारितापूर्ण बड़ाई में लगे थे।
"वाह!क्या ख़ूब लिखते हो?कमाल करते हो|"
"प्रश्न भी ऐसे करते हो साक्षात्कार में कि सामने वाले को उत्तर सुझाए न सूझे।"
"हाँ हाँ उस दंगे पर जो लेख लिखा, गज़ब था ।कैसे उस मामले को उठाया था?लाज़वाब था।"
 कई मित्रों की ये प्रतिक्रियाएं पत्रकार महोदय को गौरवान्वित कर रही थी।
 एक अन्य मित्र बोला-"अरे इस दंगे पर तो भयंकर रिपोर्टिंग की आपने।ऎसे ऎसे सवाल छोड़ दिए लोगों के जहन में कि शांति मिलना मुश्किल है।प्रशासन को कटगहरे में खड़ा किया वो अलग।बेहतरीन!"
अचानक उस मण्डली में अभी तक बिलकुल चुप बैठा शख्स बोल उठता है,"शब्दों की बदबू से अराजकता फैलाने से गर्वानुभूति ,शायद ही किसी देश या समाज के लिए..................।"
मण्डली के अन्य सदस्यों की ख़ुद पर पड़ी अचंभित नज़र और उनके होठों पर पड़ी लज्जायुक्त चुप्पी शायद उसकी अधूरी बात को पूरा कर गई।
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(३१). सुश्री माला झा जी 
 प्रत्युत्तर


राहत शिविर में चूल्हे के सामने बैठी, दर्द और चिंता से व्याकुल माया की आँखों से अविरल अश्रु बहे जा रहे थे।सामने हरिया सर झुकाए लकड़ियों के छोटे छोटे टुकड़े काट रहा था।हरिया उसके घर का वफादार नौकर था।जब से वह ब्याह कर अपने ससुराल आयी उसने हरिया को यूँ ही सर झुकाये तल्लीनता से काम करते हुए ही देखा है।
"हरिया "माया ने उसकी तरफ देखते हुए कहा। "क्यों रे मुझे भी क्यों नही मर जाने दिया नदी में सबके साथ।बाढ़ से इतने लोग मर गए।पिताजी ,देवर,देवरानी,उनके बच्चे सब नाव में बैठे थे।नाव पलट गयी।कोई नही बचा।हाय!मै अभागी विधवा क्यों बच गयी?
"मालकिन जीवन और मृत्यु तो भगवान के हाथ में है।"
"हरिया कैसे पहाड़ सा जीवन कटेगा सोचा है तुमने?बाढ़ में सबकुछ तबाह हो गया।कौन मेरा भार उठाएगा?कैसे मेरे घर का चूल्हा जलेगा?"
 हरिया ने पहली बार मालकिन की तरफ सर उठाकर देखा।धीरे धीरे चलते हुए चूल्हे के पास आया,चूल्हे में लकड़ी सजाया और माया की आँखों में देखते हुए माचिस की तिल्ली जला ली।चूल्हे की लपटों में प्रत्युत्तर तलाशती माया को छोड़ बाहर निकल गया।
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(३२).  श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी 
“बदले का हस्ताक्षर”


पिताजी के हृदयाघात से निधन होने से पूर्व उनके कहे हुए ये शब्द आज उसके जेहन में जैसे हथौड़े मार रहे थे, "अकाउंट्स के बाबू ने मेरे जमा कराये हुए रुपयों की बिना हस्ताक्षर की जाली रसीद दे दी और झूठ बोल दिया कि रूपये जमा नहीं कराये| मेरी जगह तुझे नौकरी मिलेगी,  उसे जवाब ज़रूर देना..."

अपने पिताजी को तो उसने पहले ही सच्चा साबित कर दिया था और आज जवाब देने का समय आ गया था, वही बाबू उसके सामने हाथ जोड़े अपनी पेंशन और ग्रेच्युटी के अंजाम को सोच डरा हुआ खड़ा था| उसने दराज से फाइल निकाली और एक चेक पर हस्ताक्षर कर उसे दे दिया| चेक को देख उस बाबू की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं, वो पूरी राशि का था|
 बाबू ने उसके पैर छू लिये और कहा:

"सर, आपने मुझे माफ़ कर दिया... आप हस्ताक्षर न करते तो मैं और मेरा परिवार भूखा मर जाता|"

“मेरे पिताजी ने मुझे किसी को गलत तरीके से मारने के संस्कार नहीं दिए, मेरा यह हस्ताक्षर ही उनका प्रत्युत्तर है|" यह कह कर वो चला गया|
और बाबू वहीँ खड़ा बदला लेने का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा|
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(३३).  सुश्री कल्पना भट्ट जी 
प्रत्युत्तर


सोमी बाबू का ज़मीन खरीदने का शौख बढ़ता ही जा रहा था। अब पहाड़ों पर भी ज़मीन खरीदके की सोची।
 मोहन बाबू,"उस पहाड़ वाली ज़मीन का सौदा करवा दो। तुमको 30% दलाली दे दूंगा। "
 सोमी बाबू," वो नहीं बेचेगा कोई भी। क्योकि वहाँ एक छोटा सा मंदिर है। गाँव वाले अक्सर वहाँ माथा टेकने जाते है। और पहाड़ी के पीछे एक जंगल भी है। बड़ी ही शुभ जगह है यह। लोगों का मानना है की इस गाँव में इस पहाड़ की वजह से ही बारिश होती है।आप के पास तो बहुत ज़मीन है। इसको लेकर क्या करोगे?"
मोहन बाबू ,"मैं इस पहाड़ को तोड़कर एक रिसोर्ट बनवाऊंगा।"
सोमी बाबू ने कूटनीति का उपयोग करके उस पहाड़ को खरीद ही लिया। और उसको तुड़वाने का आदेश दे दिया।
लोगों ने जब यह जाना तो सोमी बाबू के सामने अपने अपने बच्चों को ले आये और उनको मार देने के लिए बिनती करी। गाँव वाले बोले कि ,"जब यह पहाड़ ही न रहेगा तब उसके पीछे के जंगल से हिंसक प्राणी आकर भी तो हमारे बच्चों को मार देंगे। पशु मारे इस से तो अच्छा है की आप ही मार दो।"
 सोमी बाबू के पास इस बात का कोई प्रत्युत्तर न था।
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(३४) सुश्री मीना पाण्डेय जी 
सबक (प्रत्युत्तर विषय आधारित ) लघुकथा

जैसे ही उसने कड़ाही में सब्जी की छौंक लगाई , बच्चों के कमरे से जोर से रोने और चिल्लाने की आवाजें आने लगी I उसने हड़बड़ा कर गैस बंद किया और उनके कमरे की और भागी I
" क्या हुआ बिट्टू? रो क्यों रहे हो ?"
"मां ,भैया ने मुझे मारा !! " छोटा बिलख उठा I
' क्यों आकाश , छोटे भाई पर हाथ उठाया जाता है ? यही सिखाया है मैंने तुम्हे ? '
' माँ ,ये मुझसे बदतमीजी से बात कर रहा था !! '
'क्यों बेटा ,अपने से बड़ो से ऐसे बात नही की जाती I कितनी बार समझाया तुम्हे , फिर भी ....'
छोटे ने पहले बड़े भाई को देखा फिर बोला - ' लेकिन माँ ,आप भी तो दादी और पापा से ऐसे ही बात करती हो ! "
वह सन्न हो बेटे को देखने लगी I उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसका वजूद बेटे के शब्दों तले दबता जा रहा हो I 
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(३५) सुश्री नीता सैनी जी 
प्रत्युत्तर --- विषय -    जहर


"सुनो राधा ! तुमसे कहते तो अच्छा नहीं लग रहा है , लेकिन जीवनयापन के लिए अब तुम्हें कुछ न कुछ तो काम करना ही पड़ेगा । अब तो इन बच्चों की माँ और पिता भी तुम ही हो ।" बड़े भाई ने राधा को सलाह देते हुए कहा ।
"लेकिन भैया अब मैं कर भी क्या सकती हूँ ? , आज पंद्रह सोलह साल से घर के बाहर की दुनियां जानी ही नही है ।"
 मैं तुम्हें बीस -पच्चीस हजार रूपये की मदद कर सकता हूँ तुम अपने घर के बाहर वाले हिस्से में ही दुकान खोल लो , बच्चों के दस -पांच रूपये वाले सामान और बीड़ी- सिगरेट व गुटखा बेचना , बहुत कमाई है इसमें और दिन भर ग्राहक भी आते जाते रहते है ।"
"भाई जी , आपने शादी से पहले आये मेरे नियुक्ति पत्र फाड़ते समय तो ये कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन आपको अपनी बहन को बाजार में बैठकर लोगो को जहर बेचने के काम की सलाह भी देनी पड़ेगी ।"
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(३६). श्री मदनलाल श्रीमाली जी 
"प्रश्न रिश्तों के"' (विषय:प्रत्युत्तर)

"क्या बात है स्वाती आज कल रोज ऑफिस से देर घर आती हो ?" पति ने नाराजगी भरे स्वर में कहा।
"बॉस के साथ क्लाइंट के घर प्रोजेक्ट पर डिस्कशन के लिए जाना पड़ता है।"
"घर के बदले होटल में भी कभी कभी डिस्कशन होता होगा।"
"हा ऐसा भी होता है।"
"फिर तो बॉस के बिना भी क्लाइंट के साथ होटल में जाना होता होगा।"
"हा बॉस कहे तो जाना भी पड़ता है।"
"कभी कभी क्लाइंट के साथ पब्लिक पार्क में भी डिस्कशन होता होगा।"
 "आप कहना क्या चाहते है ?"
 "मेरे हर सवाल का तुम्हारे पास प्रत्युत्तर है फिर इस प्रश्न का क्यों नही ?" पति ने अपने मोबाईल फ़ोन में चित्र दिखाते हुए कहा।
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(३७). श्री रवि शुक्ला जी 

पापा ने रोज की तरह अंदर आते हुए हैलमेट उतारा और बाइक की चाभी के  साथ उसे रखने के लिये डाइनिंग टेबल की ओर बढे़ लेकिन पांव में, नीचे पड़ी एक डॉल मे ठोकर लगने से उनका ध्‍यान  गया तो पाया कि उनकी बेटी ने खेलने के बाद शायद डॉल को वही जमीन पर ही छोड़ दिया था ।

 खुशीSSS    पापा ने आवाज लगाई, खुशी थी तो 11 साल की लेकिन आवाज के आरोह अवरोह और आंखों के भावों से अच्‍छी तरह समझ जाती थी कि पापा कब क्‍या कहना चाहते है इसलिये आवाज सुनते ही वो तुरंत दौड़ी चली आई
हॉं  पापा...  
ये डॉल  रखने की जगह है ?..... देख कर नहीं रख सकती..... पापा अधिकार सहित चिल्‍लाये ।
सॉरी पापा...  खुशी ने डॉल उठाई और अपने कमरे में  रखने चली गई ।
 मॉं काफी लाई और साथ ही पानी का गिलास भी । पानी पीने के साथ ही पापा ने जूते भी उतारे और पानी का खाली गिलास भी बेखयाली में वहीं नीचे रख दिया और काफी खत्‍म  करके अपने कमरे में कपड़े बदलने चले गये ।
 कपडे बदल कर वो बाहर लॉबी में आ ही रहे थे कि खुशी अपने भाई के खेलने के लिये बुलाने पर बाहर पोर्च  की ओर भागी ।
ज़मीन पर रखा खाली गिलास खुशी के पांव की ठोकर लगते ही झनझनाता हुआ डाइनिंग टेबल के नीचे चला गया
 देख कर नहीं चल सकती ? पापा फिर फट पड़े .... खुशी एक क्षण के लिये ठिठकी, उसी एक क्षण में खुशी के चेहरे पर उभरे एक सवाल ने भी पापा की ओर देखा, मगर खुशी डाइनिंग टेबल के नीचे गिलास उठाने के लिये बढ़ गई  ।
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(३८).  श्री वीरेन्द्र वीर मेहता जी 
"साक्ष्य" (प्रत्यत्तुर - विषयाधारित लघुकथा)
राममिलन पर लगे आरोप में सभी साक्ष्य उसके खिलाफ थे लेकिन कार्यालय प्रमुख उसकी कार्यशैली से संतुष्ट थे लिहाजा उन्होने उसे वरिष्ठ अधिकारी कमलजी के साथ अकेले में मामला सुलझाने का एक अवसर दिया।............
"देखो राममिलन! सभी साक्ष्य तुम्हे आरोपी सिद्ध कर रहे है, लेकिन अभी भी तुम चाहो तो बड़े बाबू से क्षमा मांग कर इस बात को यहीं समाप्त कर सकते हो।" कमलजी ने उसे मुस्करा कर समझाना चाहा।
"मैंने कुछ गलत नही किया कमलजी, जो मैं ऐसा करूँ और आप जानते है कि सच क्या है?"
"तुम्हारी जिद और विचारधारा ही तुम्हारी दुश्मन है।" कमल जी उस पर कटाक्ष करते हुये बोले। "क्या अब भी कोई ऐसी बात है जो तुम अपने पक्ष में कह सको।"
"बस यही कि सात वर्ष की नौकरी में भी मेरी आर्थिक स्थिति नही बदली और मुझे पर आरोप लगाने वाले बड़े बाबू केवल तीन वर्ष में.......।"
"देखो ऐसी बेकार बातो से कुछ नही होगा।" कमलजी ने तेज आवाज में उसकी बात काट दी। 'हाँ! तुम्हारे पास हमारे खिलाफ कोई साक्ष्य हो तो बताओ और करो खुद को निर्दोष साबित।"
"अगर जानता, ऐसा होगा तो साक्ष्य अवश्य जुटा लेता।" राममिलन एक फीकी हॅसी हॅस कर बोला। "उसी दिन, जब बड़े बाबू ने मुझे अपने साथ मिलने की 'आफर' दी थी या फिर उस दिन, जब आप ने मेरे कुछ न दे पाने की असमर्थता जताने पर मेरी नौकरी ज्यादा न चलने की बात कही थी।" और अपनी बात पूरी करता हुया वो उठ खड़ा हुआ।............
"उस दिन न सही, आज ही सही, राममिलन! मुझे तुम्हारे उत्तर में साक्ष्य मिल गया है।" अचानक बाहर से दरवाजा खोलते हुये कार्यालय प्रमुख, रिकार्डिंग कैमरे की ओर इशारा करते हुये मुस्करा दिये।
-----------------------------------------------------
(३९). सुश्री सविता मिश्रा जी  
प्रत्युत्तर विषय पर , भरपाई (लघुकथा )
 
"मैं तो सीधा साधा मिटटी का माधो था , मुझमेँ कैक्टस के बीज तो आप ही बोंये 'सर' । अब मैंने शाखायें फैला ली तो आप तिलमिला गए ।" आँफिसर बोला " मैंने ऐसा क्या किया तुम्हारें साथ ??? मैं तो साधारण क्लर्क हूँ विश्वविद्यालय मेँ । " आश्चर्य से आँफिसर को देखते हुए बोला | 
 " कंकड़ पत्थर में तो कैक्टस ही उगेंगे न 'सर'।और ये कैक्टस भी आपकी ही देंन हैं |" 
"मतलब ? क्या कहना चाह रहें हो ??? हो कौन ??? कहते हुए, घूरती नजर आँफिसर के उप्पर डाली | 
" सर जो मैं मांग रहा हूँ, वो आप की हैसियत से बाहर नहीं हैं, पर आप जो ...| मैंने माँ के गहने बेच डिग्री पायी हैं सर !!! " अतीत को झकझोर आया एक बार फिर
" अब समझे! मैं क्या कहना चाह रहा हूँ | ये सिलसिला तो आपने ही शुरू किया था 'सर'। जैसे-जैसे मैंने कदम आगे बढ़ाया हर राह पर रोड़ा मिला !!! बड़ी मुश्किल से रोड़ों को हटा इस मुकाम पर पहुंचा हूँ ।" सारे कष्ट चेहरे पर उभर आये |
"अब तो उसकी भरपाई कर रहा हूँ 'सर' ।" कह काल बेल बजा दी |....
--------------------------------------------------------------------------------------

(४०). सुश्री नयना आरती कनितकर

रात के ११ बज रहे है बेटा अभी भी घर नहीं लौटा है. पति देव थे की न्यूज़ चैनल लगा आराम से सोेफे पर पसरे हुए है. घर के दालान मे चहल कदमी करते मेरे मन मे असंख्य अच्छे-बुरे विचारों का कोलाहल मचा हुआ है
"तुम अंदर चलो रात के ११ बज रहे है,बेटा अब इतना छोटा भी नही रहा कि---"
"तभी तो ज्यादा डरती हूँ छोटा होता तो दो थप्पड जड पूछती देर से आने कि वजह--"
तभी मुख्य द्वार पर कार रुकने की आवाज़ आती है
"तुम हटो मैं देखता हूँ आज उसे"
"दीपक !! ये कोई वक्त हुआ तुम्हारे आने का? और ये तुम्हारे मुँह से बदबू--"
हटिये पापा!! हफ़्ते भर के काम का तनाव कम करने के लिये एक दिन मैने पी ली तो?
आप की तरह हर -------तेजी से अपने कमरे की और चला गया

-----------------------------------------

(४१).  श्री सालिम शेख जी  
शान्ति ( विषय - प्रत्युत्तर ) ''मर गया अधर्मी !
.
अब दुसरे भी साले सौ बार सोचेंगे ऐसा करने से पहले , आज तुम्हे गलत लग रहा है ना ? समझोगे एक दिन तुम भी , मजाक बना के रखा हुआ है , इनकी भावनाएं तो वन्देमातरम कहने भर से भड़क जाती हैं और ये गोवध करेंगे हमारे देश में और बैठ के तमाशा देखें ? चार अक्षर पढ़ गए तो बड़े शान्तिदूत बने फिरते हो न ? तो समझाते क्यूँ नहीं इनको कि शान्ति तो तभी होगी जब हमारी भावनाओं के साथ खेलना बंद करेंगे ये  ''
'' नहीं सही किया आपने जो मार दिया उसे , यही तो अच्छाई है हमारे देश की कि मरने वाला अगर इंसान हो और ऊपर से ग़रीब तो किसी की भावनाएं भी नहीं भड़कतीं , देखो न कितनी शान्ति है चारों तरफ ''
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आदरणीय प्रधान संपादक महोदय व समस्त कार्यकारिणी तथा सदस्यगण और प्रतिभागियों को गोष्ठी में संकलित रचनाओं में मेरी लघु कथा शीर्षक- "कुएँ के मेंढक" को चयनित कर स्थान देने के लिए तहे दिल बहुत बहुत धन्यवाद।
विनम्र निवेदन है कि टंकण त्रुटि में सुधार कर हिन्दी में 'सहजाद' हटा कर सही नाम कर दीजिएगा-_ _शेख़ शहज़ाद उस्मानी
सादर सधन्यवाद।

आपके नाम के हिज्जे दुरुस्त कर दिए हैं भाई शेख शहज़ाद उस्मानी जी I

आदरणीय प्रधान संपादक महोदय श्री योगराज प्रभाकर/ Yograj Prabhakar जी, सुझावों व टिप्पणियों के आधार पर अपने अत्यल्प अनु भव से परिमार्जित मेरी लघु कथा "कुएँ के मेंढक" पुनः प्रेषित कर रहा हूँ अवलोकनार्थ।यदि "यह परिवर्तन उचित लगे" तो कृपया संकलन [ग्यारहवें क्रम पर है] में इसे स्थान देकर प्रतिभागी को अपना आशीर्वाद प्रदान करियेगा---
[मेरा सही नाम हिन्दी में-
शेख़ शहज़ाद उस्मानी]
==[11]=========================


"कुएँ के मेंढक"
['प्रत्युत्तर' विषयाधारित लघु कथा]

" तुम.....तुम जाने क्या समझते हो अपने आप को और वास्तव में तुम हो क्या, मैं अच्छी तरह जानता हूँ।" नाराज़ त्रिपाठी जी क्रोध के आवेग में अपने ज्येष्ठ पुत्र, विनोद को उसकी ससुराल वालों के सामने ही उसे डांटने फटकारने लगे-"तुम ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर सकते। कौन सी अच्छी आदत है तुम में ? लगता ही नहीं कि तुम मेरी औलाद हो। मेरा कुछ तो असर होता ! मुझसे क्या सीखा तुमने ? "
अपने पति देव जी को दूर से ही पत्नी ने संकेतों से शांत रहने को कहा, लेकिन वे बेटे पर भड़ास निकालते गये-"शर्म नहीं आती, अरे तुम्हारी उम्र के लोग कितनी कमाई कर रहे हैं, कहां से कहां पहुँच गये मेहनत करके ! एक तुम हो कि कोई न कोई उसूल बता कर , कोई न कोई बहाना बना कर वहीं के वहीं हो !"

अपनी ज़ुबान पर भी नियंत्रण खोते हुये बेटा बोल पड़ा- "बहानेखोर तो आप थे, उसूल तो आपके घटिया थे, ऑफिसर होते हुए भी कुछ पैसा नहीं जोड़ पाये, पोस्ट ग्रेजुएट बेटे को नौकरी से नहीं लगा पाये, ... .अरे आज के ज़माने के हिसाब से कौन सी अच्छी आदत है आप में ?"

माहौल बिगड़ता देख विनोद की पत्नी उसे लगभग घसीटती सी कक्ष के द्वार तक ही ला पायी थी कि वह दहाड़कर बोला- "आपने कौन सी तोपें मारी हैं ज़िन्दगी में ? ड्राइंग-रूम में प्रशस्ति-पत्र और सम्मान-पत्र लटकाये बैठे हो। मुझे भी अपने ही जैसा बना दिया क़िताबी कीड़ा और कुएँ का मेंढक ! .....और... मैं... मैं हूँ क्या ? अरे, मैं वही हूँ जो आपके 'जीन्स' में है, जो 'अनुवांशिक' है ......'हेरेडिटी' है ! मेहनत करना आता है मुझे ! ईमानदार हूँ, न भ्रष्टाचार करूँगा और न ही किसी के सामने झुकूंगा । किसी की खुशामद करूँगा नहीं । उधार किसी से लूँगा नहीं, झूठ बोलूंगा नहीं। आप बाप हैं मेरे, आप की 'प्रतिष्ठा' पर आंच भला कैसे आने दूंगा ! ..... अरे, मज़े की ज़िन्दगी के लिए अगर लाखों से खेलना है न, तो सिर्फ 'मेहनत' से कुछ नहीं होता इस ज़माने में !!!"

(मौलिक व अप्रकाशित)

यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित 

सुप्रभातम्। आदरणीय.सभी गुणीजनों को।इस अद्भुत आयोजन के लिए हार्दिक बधाई और अभिनन्दन।अगली बार मैं पूर्ण तैय्यारी के साथ आयोजन में भाग लेकर शिकायत का अवसर नही दूंगीं ।इस बार अनजाने में आंचलिक भाषा के प्रयोग से मेरी कथा समझने में जो परेशानी हुई उसके लिए क्षमा प्राथी हूँ। आभार सहित।

आपका हार्दिक धन्यवाद आ० जानकी वाही जी I आंचलिक शब्दावली तो रचना में चार चाँद लगा देती है, लेकिन पूरी की पूरी रचना ही हिंदी के इलावा किसी और भाषा में पोस्ट करने से उसे समझने में परेशानी आ सकती है I

आदरणीय योगराज जी भाई साहब ! सब से पहले तो इस सफल आयोजन के लिए बधाई और भविष्य के आयोजनों के लिए शुभकामनाएं. सभी साथी लघुकथाकारो को बधाई. दूसरा, जिस तीव्र गति से संकलन का प्रकाशन किया उस के लिए आप की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है. तीसरा, आप के सद्प्रयासों का ही प्रतिफल है कि यह आयोजन लघुकथा के स्तर, उन पर टिप्पणियों और त्वरित प्रत्युत्तर के रूप में भी बेहद सफल रहा है. चोथा, लघुकथा का स्तर  पिछले आयोजनों से बेहत्तर रहा है. पाचवां, हम सोच रहे थे कि विषय थोडा कठिन है शायद वैसी लघुकथाएं न आ पाए. इस आयोजन ने उन सभी  शंकाओं को  निर्मूल सिध्द किया है.

कुल मिला कर यह आयोजन लघुकथा स्तर से ले कर चर्चा यानि गोष्ठी और संकलन स्तर तक बेहद उम्दा रहा है. एक बार पुन: बधाई.

 मेरी रचना  क्रमांक १२ की तीसरी पंक्ति से प्रश्नवाचक चिह्न हटाने की कृपा करेगे तो आभारी रहूँगा.

आपकी रचना में वांछित सुधार कर दिया गया है I

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी , त्वरित संकलन  व् सफल आयोजन के लिए iहार्दिक बधाई , एक त्रुटी की तरफ मै ध्यान दिलाना चाहूंगी , संकलन में मेरा नाम प्रतिभा की जगह प्रभा हो गया है 

ध्यानाकर्षण हेतु शुक्रिया, आपका नाम सही कर दिया गया है I

एक कठिन और गंभीर विषय पर एक और सफल आयोजन और हमेशा की तरह सभी कथाओ का तीव्र गति से सुन्दर संकलन भी। सादर।
ये संकलन एक दस्तावेज के तौर पर तो अपनी जगह बनाता ही है साथ ही मेरे जैसे सदस्य जो किसी भी व्याक्तिगत कारण से एकटिव न रह पाये हो, के लिये सभी कथाओ को एक स्थान पर सहजता से पढ़ने का अवसर भी प्रदान करता है।
मेरी ओर से इस सफल आयोजन को पूर्णतया समर्पित आदरणीय योगराज प्रभाकर सरजी को इस सफल आयोजन के लिये तथा मुझ अनुज की कथा को आयोजन में स्थान देने के लिये तहे दिल से हार्दिक बधाई। और साथ ही सभी गुणीजन साथियो को भी जिन्होने इसमें पूरे उत्साह के साथ भागीदारी की, बहुत बहुत बधाई।

दिल से शुक्रिया भाई वीर मेहता जी I

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