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सादर नमस्कार। जी सही कहा आपने कि पिछली रचनाओं से बेहतर है।
लेकिन लघु कहानी और लघुकथा के अंतर को समझना ही होगा। इस विधा का नाम दो शब्दों में "लघु- कथा" तो न लिखें। उम्मीद है लघु कहानी = लघु-कथा और लघुकथा के अंतर को समझने के बाद आप भी बेहतर सार्थक सटीक कहने लगेंगे इस मंच पर उपलब्ध आलेख पढ़कर व पुरोधाओं की लघुकथायें वेबसाइट व ब्लॉग में या पुस्तकों में पढ़कर। मैं भी सीख ही रहा हूंँ इसी तरह। सादर।
अच्छी रचना आदरणीय। हार्दिक बधाई। आदरणीय उस्मानी जी से सहमत।
भेड़िया मेमना कथा
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जंगल की छोटी नदी के पास भेड़िया और मेमना फिर आमने सामने हो गये। भेड़िये को देखकर मेमना मिमियाने लगा।
" मैं ..मैं....पानी बिल्कुल जूठा नहीं कर रहा हूँ आपका। मैं तो..में तो ..."
" अरे बच्चे ! पानी की क्यों बात कर रहा है। पी ..खूब पी। तेरे घर पानी लेकर आ जाऊँगा मैं खुद, फिर साथ बैठकर पीयेंगे। जूठा वूठा सब हमारे पुरखों की पुरानी बातें हैं।" अपने हिंसक दाँतों को भरसक छिपाते हुए भेड़िया धीरे से मुस्कुराया।
" सच!"
" सोलहों आने सच। चल एक बात बता, तुझे पता है जंगल पर संकट आने वाला है।"
" जी, मै समझा नहीं।"
" पड़ौसी जंगल वाले कभी भी हम पर हमला कर सकते हैं। महाराज शेर ने हम कुछ खास मंत्रियों से ही ये बात साझा की है।"
" तो..तो !"
" तो क्या। जान माल का नुक्सान होगा। पर हम तुम्हें महफूज़ रखेंगे।"
" ओह ! धन्यवाद! बहुत बदल गये हैं आप। "
" पर उसके लिये हमे पता लगाना है कि हमारी प्रजा कौन है और कहाँ कहाँ रह रही है।"
" मेरे पुरखे तो सालों से यहाँ है। आपको तो पता ही है।"
" हाँ हाँ ठीक है। चल ऐसा करते हैं महाराज से तुझे मिलवा देता हूँ।"
" हूँ ..ठीक है।"
मेमने के साथ चलते हुए भेड़िया बुदबुदाया " धन्यवाद भगवान! इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे ही भोला बनाये रखने के लिये ।
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मौलिक व अप्रकाशित
आदाब। 'भेड़िये', 'मेमने' और 'महाराज शेर' के बिम्बों में कटाक्षपूर्ण, विचारोत्तेजक, आगाह करती बहुत बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। तारांकित *** पंक्ति लगाने की आवश्यकता नहीं है नियमानुसार। सादर।
हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी।
नियमानुसार (लघुकथा) :
विकासशील गाँव की शिक्षित सवारियाँ, बहू और ससुर, भीषण गर्मी में शहर की ठसाठस भरी बस में यात्रा कर रही थीं। बहू की गोद में भूखा शिशु बिलख कर रो रहा था। बहू ने इधर-उधर दृष्टि घुमाई। शिशु को सिखाये गये नियमानुसार स्तनपान कराने लगी। उसी सीट पर बगल में बैठे शिक्षित बुज़ुर्ग ससुर ने इधर-उधर देखा और मुँह फेर कर खिड़की के बाहर देखने लगा। बगल की सीट पर बैठे शिक्षित युवक और खड़े हुए शिक्षित पुरुषों ने इधर-उधर नज़रें घुमाकर बहू की छाती पर लहराते पल्लू पर दृष्टियाँँ टिका दीं। ढका हुआ शिशु इधर-उधर हाथ-पैर हिला-हिला कर ज़ोर से रोता रहा। बहू नियमानुसार स्तनपान न करा पाने पर इधर-उधर देखकर पल्लू सँभालती रही। शिक्षित युवकों और पुरुषों की आँखों को सुख अंशों में मिलता रहा। शिशु आंशिक दुग्धपान करता रहा। बहू स्तनपान नियमों का आंशिक पालन करती रही। ससुर जी का सहयोग पूरा रहा। खिड़की के बाहर झांकते रहे। जनरेशन गैप कहीं दूर हुआ, कहीं बना रहा। शिक्षित औरत पर दृष्टि-वार होता रहा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
ठसाठस भरी बस में माँ और शिशु की समस्या। अगर मैं सही समझी हूँ तो आपने इशारों में आज के संकटकाल की बात कही है जहाँ कुछ नियमों का पालन कर रहे हैं कुछ नहीं।हार्दिक बधाई इस प्रस्तुती पर। कुछ और स्पष्टता की आवश्यकता मुझे लग रही है।
आदाब। रचना पर प्रोत्साहक टिप्पणी और मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।
आपने रचना के मूल भाव को यानी संकटकाल को सही तरह से पकड़ा है। स्पष्टता कहाँ कम है, यह भी बताइएगा।
आज की गोष्ठी में.विषयांतर्गत सहभागिता बढ़िया रही। यदि सहभागिता कम हो पा.रही है, तो.इस गोष्ठी को नववर्ष में नया रूप दिया जा सकता है आदरणीय मंच संचालक महोदय।
इसे.त्रैमासिक बनाया जा सकता है.एक साथ तीन विषय सूचना में देकर। अथवा लघुकथा गोष्ठी क्रमांक -1 से नोस्टाल्जिया शुरू कर श्रेष्ठ लघुकथाओं पर टिप्पणियां या समीक्षा आमंत्रित की जा सकती हैं। सुझाव मात्र।
शुभ रात्रि।
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