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“सत्य के नहीं होते पँख”: मेरी दृष्टि में .. रचनाकार :श्री त्रिलोक मोहन पुरोहित


मानव जीवन को प्रभावित करने की दृष्टि से विश्व-भर में साहित्य से अधिक ज्ञान की कोई विधा नहीं है.इसमें भी कविता की अपरिमेयता और क्षमता सर्वोपरि है .इसी श्रृंखला को आगे बढ़ाने को तत्पर मेरे आदर्श श्री पुरोहित के काव्य-संग्रह “सत्य के नहीं होते पँख “का जब मैंने  रसास्वादन किया तो स्वभावत:पुलकित मन अनुभव करने लगा कि वर्षों से साहित्य-यज्ञ में आहूति दे रहे कलम के इस सिपाही की तपस्या से प्रसन्न माँ शारदा स्वयं आशीष देने उपस्थित हुई हो .

यह निर्विवाद सत्य है व्यक्ति जिन परिस्थितियों का साक्षी होता है ,जो उसका भोगा यथार्थ होता है वो गाहे-बगाहे अपनी कलम का आश्रय ले पाठकों को परोस देता है ,कविता के फलक पर उकेरी जाती है साहित्यकार की सम्वेदनाएँ ,अंतर्वेदनाएँ ,मनोवेदनाएँ ,जो कि दैनिक जीवन का अनुभूत सत्य होता है

         पुस्तक का कलेवर मुख्य पृष्ठ प्रथम दृष्टि में ही मुग्ध करने में समर्थ है .इस संग्रह को प्रकाशित करवाने में जल्द बाजी न कर मनोयोग पूर्वक परिश्रम पश्चात का ही निर्णय स्वागत योग्य सिद्ध हुआ है .

संग्रह का शीर्षक “सत्य के नहीं होते पँख’’ न केवल रचनाकार के चिंतन शील सृजन का परिचायक है ,अपितु पाठक की संचेतना को झकझोर कुछ मनन करने निमंत्रण दे पाठक को रचनाकार के विचार को समर्थन देने बाध्य करता है कि “सत्य शाश्वत है ,स्थिर है सिर्फ इसे अनुभव करने की आवश्यकता है .”

सत्य के कई स्तर और रूप है ,साहित्यकार किसी एक स्तर या रूप को आधार की तरह इस्तेमाल करता हुआ जो रचना करता है वह इतनी संश्लिष्ट होती है कि सत्य के कई स्तर और आयाम उसमें एक साथ झिलमिलाते है .यही साहित्य का सौंदर्य है ,साहित्य की कला है ,इसी में उसकी सृजन –प्रतिभा मुखरित होती है .

कमोबेश इन्हीं भावनाओं को पुष्ट करता यह संकलन पाठकों को चिंतन ,मनन एवं मंथन करने की प्रेरणा देगा ये विश्वास करती हूँ .

संकलन में रचनाकार के अंतर की बात इस विचार को स्थापित करने में समर्थ है कि “सत्य शाश्वत है ,वह अपनी जगह बना रहता है उड़ कर न तो पास आता है न ही दूर ही जाता है ,सत्य के पँख जो नहीं है .”

 कृति में स्थान प्राप्त पचपन रचनाएँ वर्तमान तनावों ,विसंगतियों ,विडम्बनाओं ,नारी स्मिता के प्रश्नों ,व्यक्ति मन की कुंठाओं से गिरी त्वरित गति से भागती दुनिया के हर पहलू को व्यक्त कर सह्रदय पाठक को चिंतन हेतु बाध्य करेगी आशा करती हूँ .

रचना को पढ़ मैं पुरोहित जी को जितना समझ सकी हूँ ,यह महसूस किया कि सामान्य में असामान्य ढूँढना आपकी प्रवृत्ति रही है ,यह विशेषता ही आपको एक सशक्त रचनाकार के रूप में स्थापित करेगी .

सत्य मिट्टी में पनपता है

झोंपड़ों में खिलखिलाता है

धूप के तंदूर में सिक कर

पूरी तरह सोना हो जाता है

कवि का ही नहीं अपितु हर मन का अनुभूत सत्य है ,इस काव्य-संग्रह में स्थान प्राप्त ‘अघोषित कारा’ ,’अजनबीपन’,अनासक्त’ ‘एकाकीपन’  आदि रचनाएँ वर्तमान युग में जन-जन के ह्रदय के अनुभूत सत्य को बयां करती प्रतीत हो रही है ,आधुनिक मानव सम्प्रेषण हेतु तरस रहा है ,अस्तित्त्व की तलाश में भटक रहा मन अनासक्त हो अघोषित कारा को भोग अपने ही परिवेश में अजनबी सा हो गया है .कवि की पीड़ा इन पंक्तियों में देखिये

...              “ कितना कष्टप्रद होता है

               व्यक्ति भूल जाए अपनी तलाश

               भीड़ में खो जाए भीड़ बन कर “

समसामयिक विषयों पर संवेदनशील अभिव्यक्ति, सरल भाषा , भावों की गूढता,सार गर्भित सृजन ,सकारात्मक सोच, रचनाकार के सृजन की विशेषताएँ है

आज हर व्यक्ति के मन में एक अजीब सा डर कुंडली मारे बैठा है ,आज नर-नारी कोई सुरक्षित नहीं ,आजकल आदमी की ये पंक्तियाँ यही कह रही है ..

डर पीछा ही नहीं छोड़ता

रेंगता हुआ चला आता

घर के अंदर से घर के बाहर से

अपनों और परायों के मध्य

अपने समय व समाज सापेक्ष स्थितियों व और घटनाओं के प्रति जागरूक व विचारवान ही नहीं, अति संवेदन शील ह्रदय का परिचय दे रही है कवि की “कल और आज “,कुछ में पावन जानूं ‘,कुछ सुनहरे और रजत रंग ‘जुड़ने के लिये, निर्लज्ज चिंताएँ कविताएँ तो अन्य फलक पर श्रावणी बरसात, बेटियाँ तुम नदी सी .कोमल मन की उपज है

अपने भोगे हुए क्षण-क्षण की अनुभूति एवं  आधुनिकीकरण के दंश को झेल रहे कवि मन को “कल और आज”की ये पंक्तियाँ बया कर रही है .....तब बिखरा हुआ शहर

        फिर से महाकुम्भ सा

        एकत्रित हो जाया करता था

       अब अंतर्जाल के सम्बन्धों में ही

       जीवन उलझ गया है शफरी सा

जीवन के रंगमंच पर विविध पात्र अपना किरदार अदा कर कुछ चित्त को आह्लादित करते है ,तो कुछ टीस छोड़ जाते है ,अपनी ‘चरित्र का सच’रचना में अंतस के इसी पन्ने को कवि इस प्रकार खोल रहा है ..

“तुमने मुझे कभी स्वीकार नहीं किया

सिर्फ अपनी इच्छाओं से दे दिया

रूप आकार ,क्षणिक प्यार

क्षणिक तिरस्कार

इसी भाव को पुष्ट करती है ‘चिनगारिया’कविता जो कवि के भाव सागर में डुबकी लगवा आनंद देगी ,इसमें कवि का व्यथित  मन खुल कर सामने आ अपना परिचय देता है .इसी प्रकार जीवंत दुनियां ,जुड़ने के लिये ,तस्वीर बदलेगी ,धूप और खिड़कियाँ ,निर्लज्ज चिन्ताएँ जैसी प्रतिनिधि रचनाएँ है जो पाठक को पीड़ा,दर्द घुटन,आशा ,प्रेम ,कटाक्ष आदि भावों का रसास्वादन करवा रचनाकार के भाव-जगत् का लोहा मनवा सकेगी .

“सत्य के नहीं होते पँख”पढ़ने के बाद रचनाकार के प्रति जो मेरी राय उपस्थित हुई है वो है कि ,”कवि एक बावरा अहेरी है “,जिसे दृश्य –जगत् में उसके समक्ष उपस्थित विषयों पर कलम से बौछारे करता प्रतीत हुआ है .एक छोटे से बेजान पत्थर के विविध रूप दर्शा अपनी परिपक्व सृजन सामर्थ्य का साक्षात्कार करवा दिये है ,एक बानगी समक्ष है ........

मैंने बहुत तोड़े पत्थर

जमीन को किया है समतल

वीथियों की जगह बनाएँ राजपथ

चिनाये शानदार प्रासाद

इसी प्रकार ‘बेटियां तुम नदी सी ‘मुक्त उड़ान ‘ ‘मरना चाहूँगा ‘मुक्त हो कर बहने दो ‘,’पानी और रेत’, ‘व्याघ की तरह’ ऐसी रचनाएँ है ,जिन्हें भावुक मन की पुकार कहा जा सकता है .

           एक अन्य फलक पर कुछ रचनाएँ प्रतीकात्मक का श्रृंगार किये पाठक को मुग्ध करने में सक्षम है .’सावन के अंधे’,’गुलाब और अवबोधता’,तपता रेगिस्तान ,बहती हुई नदी ,कवि योद्धा है ,इस श्रेणी की मानी जा सकती है .

इसी प्रकार ‘मेरा कारवां’,’मृत्यु के नग्न उपासक’,’जीवन के परम अर्थ ‘,’अपनी ही तलाश’ ‘सम्बन्ध और सरोकार ‘,’जिजीविषा के लिये ‘,’आदमी कितना लाचार आदि कविताएँअनुपम बिम्बों से भरी हुई पाठक कल्पना लोक से निकाल कठोर धरातल का दिग्दर्शन कर रहे कवि मन को कहीं कंकरीट के जंगल में तो कहीं नंदन कानन में विचरण करवाता है .

इस प्रकार कृति में स्थान प्राप्त विविध विषय यथा जीवन की वास्तविकताएँ,सामाजिक न्याय ,की तलाश ,नारी स्मिता के स्वर ,षडयंत्र ,जीवन को नए अर्थ देने वाली धारणा आदि पर रचनाकार की कलम बखूबी चली है जो कि आज के पाठक के चिंतन योग्य है ,मंथन योग्य है ..

रचना के शिल्प पक्ष पर एक नजर डालते है तो पाते है कि आपकी वैचारिक भाषा छंद-मुक्त काव्य में प्रस्फुटित हुई है वही आपके नवगीत प्रभावी लयात्मक प्रवाह लिये माधुर्य गुण युक्त है.

खटकने के नाम पर एक कविता “कल और आज “का अति दीर्घ कलेवर है ,अच्छा होता यदि रचनाकार इस अति सुंदर रचना को अपने किसी इसी तरह की दीर्घ रचनाओं वाली पुस्तक के लिये सुरक्षित रखता .इसी प्रकार कहीं-कहीं शब्दों की दुरुहता भी जन समान्य के अर्थ ग्रहण में अवरोधक बन सकती है .वहीं कुछ नवीन बिम्ब यथा सर्दियों के कम्बल की तरह , अजनबीपन का स्याह काजल .धूप का तंदूर मुझे विशेष आकर्षित कर रहे है .

संकलन का मूल्यांकन मेरा अधिकार कदापि नहीं ,इस दायित्व का निर्वहन पाठक बेहतर कर लेंगें पर मैं “सत्य के नहीं होते पँख “ को यदि अपने शब्द देना चाहूँ तो सिर्फ यह कहूँगी कि “सत्य के पँख नहीं होते “हिंदी शब्द संसार का एक ऐसा गुलजार सृजन है जो आद्द्यांत पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है “.

मेरा आत्म-विश्वास सत्य साबित होगा कि ये कृति जनमानस में अपना स्थान सुरक्षित रखने में समर्थ रहेगी .अपनी अथक काव्य-साधना से हिंदी के धूमायित क्षितिज पर शब्द रेखाएं रजत सी चमकेगी .आप निरंतर इसी प्रकार साहित्य यात्रा में रत रह माँ भारती की साधना में लीन हो सृजन करे ,आपके काव्य-संग्रह प्रकाशन की ये धारा अविरल प्रवाहित हो हम शीघ्र ही आपके दूसरे काव्य-संग्रह का रसास्वादन कर सके यही मंगल कामना है .

.

दीपिका दिवेदी “दीप “

प्राध्यापक (हिंदी )

डूंगरपुर (राज.)

(मौलिक और अप्रकाशित)  

 

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