परतंत्र रहे तब देस भले, अब गीत सुराज क गावत बा
सगरे सुकलान अँजोर बड़ा, तबहूँ मन झोंझ मचावत बा
दमदार कमासुत पूत जहाँ तकरो प विकास रिगावत बा
अबले पुरवांचल छाँटल बा सरकार क ढंग बतावत बा
घर बार बिलाइल जोत दहाइल गाँव-जवार उलार कहीं
सुख-चैन रहे जहवाँ निकहा, अब रोज इलाज-बुखार कहीं
लहलोट हुलास रहे कहियो अब आँखहिं लोर के धार कहीं
सुनु गाँव क हाल बयान करीं कि कपार प कील के मार कहीं
लइका हर गाँव के मातल बा हर बातहिं मारि-कटान कहीं
खलसा बतकूचन, गाल बजावल, रोज बवाल-गुमान कहीं
जहवाँ मुनि-संत समाज चलावसु, आजु उड़ान-पड़ान कहीं
जिनिगी जस गोहुँ दँवात इहाँ, खर-मूसर-जाँत पिसान कहीं
जुटिके हमनीं के विचार करीं कि समाज विकास करो बढिया
कइसे खलिहान सजो निकहा, कइसे हर जोत बनो बढिया
कइसे पुरहाल सलामत हो, कइसे घर-गाँव रहो बढिया
लउके हर बालक जीतत बा, बिटिया लछमी सुधरो बढिया
खलिहान अनाज से बोझल हो, हर हाथ के काम मिले इहवाँ
मन में न मचान उठे कतहीं, अँगना-दुअरा न हिले इहवाँ
बरताव में लोग मुलायम हों, न सुभाव में डाह पिले इहवाँ
जब बोलत बोल झरे मुँह से जियरा बगियान खिले इहवाँ
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--सौरभ
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(मौलिक आ अप्रकाशित)
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//जब बोलत बोल झरे मुँह से जियरा बगियान खिले इहवाँ//
आय हाय हाय, कईसे इ छंद आखि के सोझा ना आइल, बुझाते नईखे, भा ई कहीं ...देर से एहपर आवे से अफ़सोस होता, का गज़ब रचाइल बा, एक एक गो शब्द बुझाता अलगा से गाँव के माटी में सानि सानि जोड़ल गईल बा, एक एक बात आज के गवई माहौल के फोटो खिंच रहल बा, सहर के जहर गाँव ले आ गईल, बहुते पसन आईल इ रचना, बहुत बहुत बधाई एह प्रस्तुति प आदरणीय सौरभ भईया.
गणेश भाई, एह रचना के दिन आजुए सुकलान होखे के रहे. हा हा हा हा...
दुर्मिल सवैया के प्रवाह के त जवाबे नइखे. एह प हमार कहलको नीमन लागल एह खातिर हम मन से धन्यवादी बानी.
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