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Rajendra Prasad Singh (1930-2007) Hindi Poet,Lyricist & originator of Navgeet/हिन्दी नवगीत के प्रवर्तक एवं वरिष्ठ कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह

Rajendra Prasad Singh(1930-2007), a noted Hindi poet and lyricist edited and published 'Geetangini' in 1958 from Muzaffarpur,Bihar,India, in which neolyrics (Navgeet)of almost all important 'Navgeet'- poets (From Nirala the great to Jagdish Salil) of the day were first published as 'Navgeet'. The meaningful literary term 'Navgeet' (नवगीत) was used first of all by Rajendra Prasad Singh in the preface of 'Geetangini' and it has been well stated there that 'Navgeet' is complimentary creative endeavour on par with then 'Nayee Kavita' (New Poetry in Hindi). This apart, Rajendra Prasad Singh unambiguously identified and thoughtfully explained the changes at the level of both content and form,texture & structure of Hindi lyric writings after 'Chhayawadi Prageet' (Romantic lyrics in Hindi). 'Aao Khuli Bayar','Raat Aankh Moond Kar Jagi','Bhari Sadak Par' are the most important collections of 'Navgeet' & 'Gazar Aadhi Raat Ka' and 'Lal Neel Dhara' are equally significant collections of 'Jangeet' (people's song-lyric) by Rajendra Prasad Singh. 'Bhoomika','Madini','Digvadhoo','Sanjeevan Kahaan','Dayari Ke Janmdin','Shabdyatra','Prasthanbindu' etc are his poetry collections in Hindi published at various points of time. His novel entitled 'Amawas Aur Jugunu' has been experimental in nature. Rajendra Prasad Singh's writings include criticism on literature & culture as well. His books entitled 'Janwadi Lekhan Aur Rachanasthiti','Sahitya ki Parishthiki' & 'Bharateey Sangeet Ka Samajshastreey Sandarbh' are embodiments of his brilliant critique. Rajendra Prasad Singh has also been a very good translator and his book ‘SO HERE I STAND’ (A selection of anti-slogan poems translated from Hindi original by the poet) is published from Beach Grove Books,Inc, Canada.

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Comment by Professor Ravi Ranjan on October 19, 2015 at 1:35am

राजेन्द्र प्रसाद सिंह के दो प्रतिनिधि नवगीत

 

1.शरद की स्वर्ण किरण बिखरी !

  दूर गये कज्जल घन, श्यामल-अम्बर में निखरी !

शरद की स्वर्ण किरण बिखरी !

 

मन्द समीरण, शीतल सिहरण, तनिक अरुण द्युति छाई,

रिमझिम में भींगी धरती, यह चीर सुखाने आई,

लहरित शस्य-दुकूल हरित, चंचल अचंल-पट धानी,

चमक रही मिट्टी न, देह दमक रही नूरानी,

 

अंग-अंग पर धुली-धुली,

शुचि सुन्दरता सिहरी !

राशि-राशि फूले फहराते काश  धवल वन-वन में,

हरियाली पर तोल रही उड़ने को नील गगन में,

सजल सुरभि देते नीरव मधुकर की अबुझ तृषा को,

जागरुक हो चले कर्म के पंथी ल्क्ष्य-दिशा को,

     

ले कर नई  स्फूर्ति कण-कण पर

नवल ज्योति उतरी !

 मोहन फट गई प्रकृति की, अन्तर्व्योम विमल है,

अन्धस्वप्न फट व्यर्थ बाढ़ का घटना जाता जल है,

अमलिन सलिला हुई सरी,शुभ-स्निग्ध कामनाओं की,

छू जीवन का सत्य, वायु बह रही स्वच्छ साँसों की,

 

अनुभवमयी मानवी-सी यह

                                        लगती प्रकृति-परी !

                                                       (अज्ञेय द्वारा सम्पादित प्रकृति-काव्य संकलन ‘रूपाम्बरा’ से)

 

2.गा मंगल के गीत सुहागिन !

    चौमुख दियरा बाल के !

 

आज शरद की साँझ, अमा के

इस जगमग त्योहार में,-

दीपावली जलाती फिरती

नभ के तिमिरागार में,

 

चली होड़ करते तू, लेकिन

भूल न,-यह संसार है;

भर जीवन की थाल दीप से

रखना पाँव सँभाल के !

सम्मुख इच्छा बुला रही,

पीछे संयम-स्वर रोकते,

धर्म-कर्म भी बायें-दायें

रुकी देखकर टोकते,

अग-जग की ये चार दिशायें

तम से धुँधली दीखती;

चतुर्मुखी आलोक जला ले

स्नेह सत्य ता ढाल के!

दीप-दीप भावों के झिलमिल

और शिखायें प्रीति की,

गति-मति के पथ पर चलना है

ज्योति लिये नव रीति की,

यह प्रकाश का पर्व अमर हो

तमके दुर्गम देश में ;

चमके मिट्टी की उजियाली

नभ का कुहरा टाल के !

              (प्रथम कविता संग्रह ‘भूमिका’ 1950, भारती भण्डार, इलाहाबाद में संगृहीत) 

Comment by Professor Ravi Ranjan on October 19, 2015 at 1:32am

वस्तुतः गीत रचना के नवीकरण का दशक-व्यापी उपक्रम जो 1947-48 से प्रारम्भ होकर छठे दशक के अन्त तक चलता रहा, वह गीत रचना की नयी प्रक्रिया की कुक्षि में नवगीत के आकार लेने का ही दीर्घ उपक्रम था । अतः यही कहना जायज़ है कि ‘नयी कविता’ के स्वरूप ग्रहण करने की तैयारी के बहुत पहले ही तथा ‘तारसप्तक’ (1943) की समीक्षाएं आने के कुछ ही बाद, नवगीत की तैयारी के आरम्भिक नमूने रचित और प्रकाशित किये जाने लगे । इस क्रम में विभिन्न रचनाकारों की स्वतंत्र गीत-कृतियों के अतिरिक्त जिन संकलनों एवं पत्रिकाओं में नवगीत की तैयारी के गीत संकलित हुए उनमें- ‘कवितायें-54, -55 एवं-57”, रूपाम्बरा (सं॰ अज्ञेय) तथा ‘लहर’, ‘नई धारा’, एवं ‘प्रतीक’ आदि के कवितांकों का अपना महत्व है ।   

गीतांगिनी” का सम्पादकीय : नवगीत का घोषणा पत्र

      स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी गीतकाव्य की एक धारा यदि उन विवेकशील रचनाकारों द्वारा निर्मित हुई जिन्होंने युगबोध-सम्पन्न मानस से परिवर्तन रूप-शैली में काव्य-रचना करते हुए रचना के शिल्प को उसकी वस्तु के आंतरिक आग्रह के अनुकूल ही ग्रहण किया तो दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करने वाले गीतकार मुख्यतः परम्परित एवं मात्र छंदोबद्ध रचना में ही संलग्न थे। चूंकि दूसरी धारा के रचनाकारों का अधिकांश सृजन छंदोबद्ध था इसलिए गीतकवि के रूप में जितनी मान्यता उन्हें मिली, उतनी पहले वर्ग के रचनाकारों को नहीं मिल सकी ।

       पांचवें एवं छठे दशक में इन दोनों प्रकार की रचनात्मकता के बीच कतिपय कारणों से एक प्रकार के प्रवृत्तिगत तनाव की स्थिति पैदा हो गयी । लेकिन एक ओर न तो ये गीत-कवि खुद को मंचीय प्रलोभनों से मुक्त कर पाए और न ही इनके द्वारा ‘नयी कविता’ के समानान्तर गीत-रचना का सिद्धान्त-विवेचन पक्ष अपेक्षित तौर पर प्रस्तुत किया जा सका । फलतः जहां ‘नयी कविता’ अपनी रचनात्मकता, सैद्धांतिक स्थापनाओं तथा आलोचकीय सहयोग एवं स्वीकृति के द्वारा पांचवें छठे दशक में हिन्दी कविता के क्षेत्र में पूर्णतः प्रतिष्ठित हो गयी वहीं गीत उपेक्षित हो गया । यह वही समय था जब एक ओर ‘अज्ञेय’ द्वारा गीत को ‘गौण विधा’ कहकर अपमानित किया जा रहा था तो दूसरी ओर प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में गीत का प्रकाशन लगभग बंद हो चुका था ।

   ऐसी स्थिति में वही हुआ जो ऐतिहासिक क्रम में अनिवार्य तथा युग-स्थितियों के दबाव का अपरिहार्य विस्फोट होता है । छठे दशक के अन्त में गीत की अक्षय शक्तिमत्ता के प्रति आस्थावान कुछ युगबोध-सम्पन्न रचनाकारों ने पुनः एक बार इस उपेक्षित, निराश्रित एवं परिस्थितियों से प्रताड़ित विधा को प्रस्तुत और प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया । ओम प्रभाकर के शब्दों में “इन्हीं निःस्वार्थ प्रयत्नों में एक, 1958 में, कविवर राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा प्रस्तुत ‘गीतांगिनी’ है- जिसकी भूमिका में उन्होने गीत की नवगीत में संभाव्य परिणति देखी ।” (ओम प्रभाकर: नया आलोचक-पृ॰ सं॰ 6)

हिन्दी कविता के इतिहास में ‘छायावाद का मेनिफेस्टो’ के रूप में जो महत्व ‘पल्लव’ की भूमिका का है, हिन्दी नवगीत संदर्भ में ‘गीतांगिनी’ की भूमिका का भी वही महत्व है, जिसमें बतौर सम्पादक राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने पहली बार यह उद्घोषित किया था—“नयी कविता के कृतित्व से युक्त या वियुक्त भी ऐसे धातव्य कवियों का अभाव नहीं है, जो मानव जीवन के ऊंचे और गहरे, किन्तु सहज नवीन अनुभव की अनेकता, रमणीयता, मार्मिकता, विच्छित्ति और मांगलिकता को अपने विकसित गीतों में सहेज संवार कर नयी ‘टेकनीक’ से, हार्दिक परिवेश की नयी विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं । प्रगति और विकास की दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नयी कविता की प्रगति का पूरक बनकर ‘नवगीत’ का निकाय जन्म ले रहा है । नवगीत नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा ।”  

Comment by Professor Ravi Ranjan on October 19, 2015 at 1:30am

‘गीतांगिनी’ (1958) के प्रकाशन से पूर्व रचित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के जिन गीतों में गीत-रचना के पूर्वागत प्रकारों से भिन्न प्रयास परिलक्षित होता है, उनमें कुछ तो ‘मादिनी’ (55) में संकलित हैं तथा कुछ ‘दिग्वधू’ (56) में । ‘मादिनी’ में संकलित ‘मधुमुखी’ शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं जिसे कई आलोचकों ने ‘औद्योगिक वातावरण में नयी मानवीयता की संवेदना’ उरेहने के लिए रेखांकित किया है-

“उसी विभा में धुलने को/सिन्दूर क्षीर बन जाता,

कच्चा लोहा पिघल-पिघल कर/तरल आग बन आता ।

×             ×            ×

बिम्बित करने को/उस छवि का हास ही

सागर बन लहराता/है इतिहास ही ।”

 

      इसी प्रकार सन 1956 में प्रकाशित कवि की तीसरी काव्य कृति “दिग्वधु” की निम्नलिखित पंक्तियाँ भी तत्कालीन गीत की रचनाधर्मिता में परिवर्तन की सूचना देती हैं  –

“फिर मैं मोल चुका दूँ ग्रह-तारों के,

नद-निर्झर के,-- पर्वत, सागर, वन के ।

 

       सन् 1962 में प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह की प्रथम घोषित स्वतंत्र नवगीत कृति ‘आओ खुली बयार’ में इसी शीर्षक से संकलित जो मुख्य रचना है, वह भी जनवरी, 1956 में ही कवि के वक्तव्य के साथ ‘अलका’ मासिक में प्रकाशित हो चुकी थी; जिसे रामनरेश पाठक ने गीत-तत्व के सांगोपांग और सप्राण परिवर्तन के प्रमाण के रूप में रेखांकित किया है । चन्द्रदेव सिंह द्वारा सम्पादित ‘कवितायें-57’ में संकलित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के गीत ‘विरजपथ’ से जाहिर होता है कि “नवगीत जिस पीढ़ी के हाथों निर्मित होने के उपक्रम में था, वह थी आज़ादी के बाद की पहली नौजवान पीढ़ी, जो गाँव के नैसर्गिक और अर्जित संस्कारों से हिम्मत और हौसला ही नहीं, मानवीयता की अटूट पहचान लेकर छोटे-बड़े शहरों में आई और आज़ाद देश की नयी संभावनाओं से अपनी परिवर्तनकारी महत्वाकांक्षाओं को जोड़कर संघर्ष की धूप-धूल से लड़ती हुई जीने लगी । स्वभावतः और रहन-सहन के बदलाव की अनवरत लड़ाई में, कभी उस पीढ़ी का सदस्य शहरी एकांत में ग्रामीण नागर मानस का साक्षात्कार करता रहा-”

“इस पथ पर उड़ती धूल नहीं

खिलते मुरझाते किन्तु कभी

तोड़े जाते ये फूल नहीं ।”

 

       इस गीत की अगली पंक्तियाँ में उन छद्मपरिवर्तन-कामियों की खबर ली गई है जो एक ओर तो परिवर्तन हेतु पहलकदमी का नाटक करते हैं पर दूसरी ओर अपने वर्गहित में स्वार्थ-साधन जुटाने से बाज नहीं आते-

“निस्पंद झील के तीर रुकी-सी डोंगी पर

है ध्यान लगाये बैठी बगुले की जोड़ीॱॱॱ।”

      इसके साथ ही इस गीत में आत्मविश्वास से पूर्ण और अटूट हौसले से भरी पूरी पीढ़ी की ओर से सोच और सूझ की ताकत भी व्यक्त हुई है-

“इस नये गाछ के तुनुक तने से पीठ सटा

अपने बाजू पर अपनी गर्दन मोड़ो तो;

मुट्ठी में बांधे हो जिस दिल की चिड़िया को,

उसको छन भर इस खुली हवा में छोड़ो तो,

फिर देखो, कैसे बन जाती है

कौन दिशा अनुकूल नहीं ।”

     सन् 1947 से 1957 के बीच रचित गीतों की रचनाधर्मिता पर विचारने से स्पष्ट होता है कि इस अघोषित नवगीत दशक में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के साथ ही जिन महत्वपूर्ण रचनाकारों ने अपने गीतों में रचना की प्रचलित परम्परा से हटकर गीत रचने का प्रयास किया उनमें वीरेंद्र मिश्र, रामदरश मिश्र ,उमाकांत मालवीय ,रामनरेश पाठक, रवीद्र भ्रमर आदि उल्लेखनीय हैं । 

Comment by Professor Ravi Ranjan on October 15, 2015 at 11:18pm

सन् 1947 के आसपास हिन्दी गीतकाव्य में नवीन प्रवृतियों का आविर्भाव और गीत-रचना के पूर्वागत प्रकारों से भिन्न प्रयास प्रारम्भ हो चुका था जिसे उस समय की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतीक’ (द्वैमासिक) के ‘शरद अंक’ (1948) में प्रकाशित कुछ गीतों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा लक्षित किया जा सकता है । ‘प्रतीक’ के उस अंक में बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ द्वारा रचित प्रकृति चित्रण से संबंधित छायावादी-रहस्यवादी निकाय का एक दार्शनिक गीत प्रकाशित है, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

“सरस तुम्हारे वन-उपवन में फूले किंशुक फूल

उनके रंग में रंग लेने दो हमें आज अंग-अंग

प्राण यह होली का रस रंग ।

कंपित पवन, विकंपित दस दिशि, गगनांगन गतिलीन

उन्मन मन तन चरण स्मरणगत नेह-विदेह अनंग

प्राण यह होली का रस रंग ।”

 

‘प्रतीक’ के इसी अंक में राजेन्द्र प्रसाद सिंह का भी एक ‘शरदगीत’ प्रकाशित है, जिसे कालान्तर में अज्ञेय ने  ‘रूपाम्बरा’ में भी संकलित किया । कुछ पंक्तियाँ देखिए-

 

“मोह-घटा फट गई प्रकृति की, अन्तर्व्योम विमल है,

अंध स्वप्न की व्यर्थ बाढ़ का घटता जाता जल है ।

अमलिन-सलिला हुई सरी, शुभ-स्निग्ध कामनाओं की,

छू जीवन का सत्य, वायु बह रही स्वच्छ साँसों की ।

अनुभवमयी मानवी-सी यह लगती प्रकृति-परी ।

                         शरद की स्वर्ण किरण बिखरी ।”           (रूपाम्बरा : सं अज्ञेय)

 

       राजेन्द्र प्रसाद सिंह का यह ‘शरद गीत’ वस्तुतः जीवनदर्शन-परक प्रकृति के रूपांकन और गुणात्मक मानवीय परिवर्तन की वस्तुवादी समझ का प्रमाण है । प्रकृति को साभिप्राय जीवनानुभव में उरेहने का यह गुणांतरित स्वाद ही नया था, फलतः ‘अज्ञेय’ ने इसे बाद में अपने संपादित प्रकृति–काव्य-संकलन ‘रूपाम्बरा’ में भी सम्मिलित किया और कलकत्ता की ‘भारतीय संस्कृति-परिषद’ ने भी ‘सिन्धुभैरव’ राग में संगीत कर्मियों के द्वारा मंच पर प्रस्तुत किया । ‘प्रतीक’ के उस अंक में ही छपे दो दीप-गीतों की कुछ पंक्तियों पर गौर करें-

किसने हमें सँजोया;

जिन दीपों की सिहरन लख-लख, लाख-लाख हिय सिहरें,

वे दीपक हम नहीं कि जिन पे मृदुल अंगुलियाँ विहरें

हम वह ज्योतिर्मुक्ता जिसको जग ने नहीं पिरोया ।”

                                                                                                                       -बालकृष्ण शर्मा “नवीन”

2.  सम्मुख इच्छा बुला रही/ पीछे संयम-स्वर रोकते,

धर्म-कर्म भी दायें-बायें/रुकी देखकर टोकते,

अग-जग की ये चार दिशायेँ/ तम से धुंधली दिखती,

चतुर्मुखी आलोक जला ले/ स्नेह सत्य का  ढाल के ।

गा मंगल के गीत, सुहागिन/ चौमुख दियरा बाल के ।”

                                                                                                             -    राजेन्द्र प्रसाद सिंह

      

Comment by Professor Ravi Ranjan on October 15, 2015 at 2:25pm

    ‘भूमिका’ की रचनाओं पर गंभीरता से विचारने पर स्पष्ट हो जाता है कि इस संग्रह के अनेक गीत अवश्य ही ‘नवगीत’ के आरंभिक स्वरूप को पता देने में सक्षम हैं । मनोवस्था के तापमान से जीवन्त इन गीतों में उल्लेखनीय हैं - “ गा मंगल के गीत सुहागिन, चौमुख दीयरा बाल के”, और “शरद की स्वर्ण-किरण बिखरी” । बाद में ये दोनों गीत ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘प्रतीक’ द्वैमासिक में 1949 के ‘शरद’ अंक में छपे और प्रकृति-काव्य-संकलन ‘रूपांबरा’ (सम्पा॰ अज्ञेय) में भी संकलित किए गए । इनके अतिरिक्त - ‘सब सपने टूटे संगिनी, बिजली कड़क उठी’, ‘मेरे स्वर के ये बाल-विहग जा रहे उड़े किस और’, ‘सखि, मधु ऋतु भी अब आई’, ‘मधु मंजरियाँ, नव फुलझरियाँ’, ‘यह दीवार कड़ी कितनी है’- आदि गीत विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जिनमें नवगीत को अंकुरित करने की तैयारी है ।

    1995 में प्रकाशित, राजेन्द्र प्रसाद सिंह की काव्य कृति ‘मादिनी’ में गीतों की प्रचुरता है उनमें  अधिकांश को 1958 के बाद ‘नवगीत’ के रूप में स्वीकृति मिली । मेरी समझ से प्रक्रिया और रचना-प्रक्रिया पर हिन्दी में सर्वप्रथम राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ही ‘मादिनी’ की भूमिका में विचार किया था । ज्ञातव्य है कि 1954 तक  मुक्तिबोध ने भी इस विषय पर कुछ भी लिखा या प्रकाशित नहीं करवाया था । गीत की रचना-प्रक्रिया समझने में उक्त भूमिका की विचार-शृंखला का अपना महत्व है । ‘मादिनी’ के उन गीतों में, जो ‘50’ से ‘54’ तक रचे गए और वस्तुतः बाद में ‘नवगीत’ के ही अघोषित नमूने माने गए, कुछ हैं- ‘तनिक उठा ले यह घूंघट-पट/ओ मधुमुखी सयानी’, ‘मेरे रास्ते पर/चल रहे सपने अधूरे/टूट जाने के लिए’ और लोकतत्व से भरे गीतों में कई हैं, जैसे ‘मूकपहेली’, ‘पावसी’, ‘सजला’, ‘तुमने किसकी ओर उठाई/ अंखियां काजलवाली री” (कजली) इत्यादि। राजेन्द्र प्रसाद सिंह के छह ऋतुओं के गीतों की कई-कई शृंखलाओं के लिए ‘मादिनी’ के नवगीत-बीजों को महत्व दिया जाना चाहिए । उनकी तीसरी कृति है ‘दिग्वधू (1956) जो मुख्य रूप से कविता-संग्रह है, पर उसमें भी कुछ ऐसे गीत हैं जिन्हें कवि की प्रथम घोषित नवगीत कृति ‘आओ खुली बयार’ के नए प्रार्थना-गीतों की शृंखला से जोड़ा जा सकता है । यह महत्वपूर्ण है कि बहुत पहले ही प्रथम नवगीत-संकलन के रूप में ‘गीतांगिनी’ की योजना प्रसारित करने और 1958 में उसे संपादित–प्रकाशित करने के पूर्व भी राजेन्द्र प्रसाद सिंह के प्रायः सौ गीत अपनी नई शैली के साथ प्रशस्त और प्रस्तुत हो चुके थे; जिनमें हर तरह से नवगीत की सही और चमत्कारपूर्ण समझ मूर्त हो चुकी थी ।  इसका उदाहरण चंद्रदेव सिंह द्वारा संपादित ‘कविताएं-1956’में संकलित उनका गीत ‘विरजपथ’ द्रष्टव्य है :-

“इस पथ पर उड़ती धूल नहीं ।

खिलते-मुरझाते किन्तु कभी

तोड़े जाते ये फूल नहीं ।

 

खुलकर भी चुप रह जाते हैं ये अधर जहां,

अधखुले नयन भी बोल-बोल उठते जैसे;

इस हरियाली की सघन छांह में मन खोया,

अब लाख-लाख पल्लव के प्राण छुऊं कैसे ?

अपनी बरौनियां चुभ जाएं,

पर चुभता कोई शूल नहीं ।

 

निस्पंद झील के तीर रुकी-सी डोंगी पर

है ध्यान लगाये बैठी बगुले की जोड़ी;

घर्घर-पुकार उस पार रेल की गूंज रही,

इस पार जगी है उत्सुकता थोड़ी-थोड़ी ।

सुषमा में कोलाहल भर कर

हँसता-रोता यह कूल नहीं ।

 

इस नये गाछ के तुनुक तने से पीठ सटा

अपने बाजू पर अपनी गर्दन मोड़ो तो,

मुट्ठी में थामें हो जिस दिल की चिड़िया को

उसको छन-भर इस खुली हवा में छोड़ो तो ।

फिर देखो, कैसे बन जाती है

कौन दिशा अनुकूल नहीं ?

इस पथ पर उड़ती धूल नहीं ।”

 

      1956 में रची, ‘नवयुग’ (साप्ताहिक) में छपी और 1957 में संकलित इस गीत रचना में नवगीत के कौन से प्रारम्भिक तत्व नहीं है ? प्रतीकात्मक अर्थसंकेतों में जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व-बोध, प्रीति-तत्व और परिसंचय, सभी की मनोज्ञतापूर्ण झलक इसमें मिल जाती है ।

  

 

       

Comment by Professor Ravi Ranjan on October 15, 2015 at 2:19pm

हिन्दी नवगीत के रचना-वैविध्य एवं स्वीकृति-संघर्ष में राजेन्द्र प्रसाद सिंह की भूमिका अविस्मरणीय है । उपर्युक्त विषय पर विचार करते हुए सर्वप्रथम हमारा ध्यान कवि की पहली काव्यकृति ‘भूमिका’(1950) की ओर आकृष्ट होता है जिसके दोनों फ्लैप पर ‘निराला’ एवं सुमित्रानन्दन पन्त की लम्बी, महत्वपूर्ण सम्मतियाँ छपी हैं ।

    ‘भूमिका’ में आदि से मध्य तक राष्ट्रीय भाव-धारा की, प्रगतिशील और यथार्थवादी वैचारिक कविताएं हैं, जिनमें भी ‘आवरण’ ‘प्रकाश-पुंज’ है । और ‘प्रगति-गीत’ नए गीत-प्रयोग हैं और कृति के उत्तरार्द्ध में युवा प्रेमी के मनःसंघर्ष, अंतर्द्वंद और प्रेम की आकांक्षा से महत्वाकांक्षा तक को समाहित किए लगभग पचास गीत हैं । 1950 ई. में प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह की इस पहली काव्यकृति की समीक्षा करते हुए डॉ॰धर्मवीर भारती ने लिखा था- “मुझे स्मरण नहीं पड़ता कि किसी भी तरुण कवि कि प्रथम काव्य कृति में इतनी हुंकार सबलता और प्रौढ़ता रही हो ।”  

    डॉ॰ भारती ने कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह की रचनाओं में मुख्य रूप से दो-तीन बातों को रेखांकित किया है-  “सबसे पहली बात यह है कि उनकी भाषा और उनके विचारों में सस्ती भावुकता और चटपटा आवेश न होकर सशक्त हुंकार और प्रौढ़ बल है । ‘सिंहावलोकन’ में एक अजब-सा उन्मेष है, एक विद्रोह-भरी चुनौती है और विजय के विश्वास का अनोखा दर्प है-

                                                               जागा किशोर आलोक सिंह गिरि गुहा फोड़,      

निकला बनकर यौवन, पाषाण-कपाट तोड़,

तम के नभचुम्बी अद्रि-भाल पर गरज उठा,

दिशि-दिशि की काली जीर्ण मेख

 -दूसरी बात यह है कि उनमें आत्मदृष्टि नहीं, युगदृष्टि का प्राधान्य है । जिस संक्रांति के युग में उन्होंने अपनी कलम उठाई है उसके संकट, उसकी जर्जरता, उसकी उलझनों से वे परिचित हैं और उनकी विकृतियों से लड़ने के लिए कटिबद्ध हैं ... इन्हीं गीतों की भूमिका में आगामी मानवता अवतरित हो, इसके लिए वह सचेष्ट हैं । मानवता के प्रति उसमें अदम्य विश्वास है । उनके गीतों में इतिहास के कारवां गुजरते नज़र आते हैं और दिग्विजय, अकाल, रक्तपात, युद्ध, अंधकार और इन सबों को चीर कर भी जिन्दा रहने वाली और अपना सतत विश्वास करने वाली मानवता की विजय का वह उल्लास भरा गायक है ।” 

  राजेन्द्र प्रसाद सिंह की रचनाओं में भौतिकवाद व आदर्शवाद के समुचित समतोल को रेखांकित करते हुए डॉ॰ भारती ने आगे लिखा है- “मार्क्सवाद ने हमें इतिहासों में विकसित होती हुई मानवता का परिज्ञान कराया है, हमारी परम्परागत संस्कृति ने हमें मानवता के मनोगत मूल्यों का महत्व सिखाया है और आज का युग हमें दोनों के जिस पर स्वस्थ समन्वय की ओर प्रेरित कर रहा है, राजेन्द्र जी की कविता उस दिशा में दूर तक जा चुकी है।”

                     

Comment by Professor Ravi Ranjan on October 15, 2015 at 2:29am

राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने 'नयी कविता' के समानांतर रचे जा रहे गीतों की भिन्न प्रकृति एवं रचना विधान को रेखांकित करने वाले नए गीतों के प्रथम संकलन 'गीतांगिनी' (1958) का संपादन किया और उसकी भूमिका में 'नवगीत' के रूप में नए गीतों का नामकरण एवं लक्षण निरूपित किया। कालान्तर में अनेक कविता संग्रहों (भूमिका, मादिनी, दिग्वधू,संजीवन कहाँ, डायरी के जन्मदिन, शब्दयात्रा, प्रस्थानबिंदु इत्यादि) के साथ-साथ उनके कई स्वतन्त्र नवगीत संग्रह ('आओ खुली बयार', 'रात आँख मूँद कर जगी', 'भरी सड़क पर' आदि ) भी प्रकाशित हुए और जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने अनेक जनगीतों की भी रचना की जो 'गज़र आधी रात का' एवं 'लाल नील धारा' के नाम से प्रकाशित हैं. बावजूद इसके पारंपरिक ही नहीं, बल्कि प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा की दुंदुभि बजानेवाले आलोचकों के ने भी इन कृतियों की कोई ख़ास नोटिस नहीं ली । पुन: याद आते हैं नामवर जी, जिन्होंने लिखा है कि ‘नए जनवादी लेखन में आलोचना-बुद्धि का अभाव नहीं, बल्कि अतिरेक है. यह अतिरेक कभी-कभी शत्रुओं से अधिक मित्रों को – यहाँ तक कि अपने आपको भी काट बैठता है ।’ 

  कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी, बांग्ला एवं संस्कृत आदि भाषाओं के जानकार और इन भाषाओं में रचित साहित्य के गहरे पारखी विद्वान तथा गीत ,नवगीत के सुमधुर ही नहीं बल्कि जनगीतों के ओजस्वी गायक भी थे । जिन लोगों ने उन्हें विभिन्न साहित्यिक मंचों से गीत-नवगीत-जनगीत गाते , काव्यपाठ करते या साहित्यिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर व्याख्यान देते हुए सुना है, उनके लिए राजेन्द्र जी को सुनना एक अनुभव रहा है । कला-पारखी कवि यतीन्द्र मिश्र ने सही लिखा है कि “एक गाया जाने वाला पद अथवा गाया जा चुका गीत असीमित सन्दर्भ प्रक्षेपित करता है। उस घट चुके समय में गुंजरित शब्द, शब्द मात्र नहीं रह जाता। शब्द से थोड़ा ऊपर उठकर कुछ संभावनाओं के द्वार खोलता है ।”(गिरिजा, पृ.24) राजेन्द्र जी एक अच्छे अनुवादक भी थे जिसका प्रमाण है उनकी Beach Grove Books,Inc, Canada से प्रकाशित उनकी स्वानूदित पुस्तक ‘SO HERE I STAND’ (A selection of anti-slogan poems translated from Hindi original by the poet).

 यदि हममें से किसी के पास उनके गायन/व्याख्यान के कैसेट/ रिकार्ड/ प्रकाशित – अप्रकाशित रचनाएं आदि हैं, तो उसे हमें हिन्दी जगत के सामने लाने का कष्ट उठाना चाहिए. साथ ही हम सब को यथाशीघ्र कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह रचनावली / ग्रंथावली के प्रकाशन के लिए भी प्रयास करना चाहिए । 

Comment by Professor Ravi Ranjan on October 15, 2015 at 2:20am

                                                       राजेन्द्र प्रसाद सिंह : नवगीत से जनगीत तक
हिन्दी गीतकाव्य के इतिहास में मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी राजेन्द्र प्रसाद सिंह (12 जुलाई, 1930 - 8 नवंबर, 2007) नवगीत के प्रवर्तक तथा एक बड़े कवि के रूप में जाने जाते हैं। जमींदार परिवार में जन्म लेने (जिनमें से ज्यादातर ज़मीन-जायदाद उनके जन्म के पहले से तरह -तरह की मुक़दमेबाज़ी में फँसी थी) और मुजफ्फरपुर जैसे एक छोटे-से शहर में आजीवन रहने के चलते वे हिन्दी जगत की उपेक्षा एवं कई बार येन-केन-प्रकारेण हरदम छोटा-बड़ा पुरस्कार पाने के लिए जुगाड़ भिड़ाने और पैसा बनाने की फ़िराक में लगे तथाकथित साहित्यिकों के द्वारा उपहास के शिकार भी हुए. नामवर सिंह ने एक भिन्न सन्दर्भ में एंगल्स के हवाले से लेखकों की इस प्रवृत्ति को 'टुटपुंजिया मध्यवर्गीय जलन' कहा है । गौरतलब है कि सामंत या दरिद्र परिवार में पैदा होना न तो किसी व्यक्ति का अपना चुनाव होता है न ही इसकी वजह से वह अनिवार्यत: सामंती प्रवृत्तियों या सर्वहारा चेतना का वाहक होता है । हिन्दी के विद्वान प्रगतिशील-जनवादी आलोचकों को शायद याद दिलाना ज़रूरी हो कि जहाँ खुद कार्ल मार्क्स ने ‘दुराग्रह से मुक्ति को सच्ची आलोचना की पहली शर्त’ माना है वहीं रेमण्ड विलियम्स जैसे मार्क्सवादी आलोचक ने भी साहित्यिक कृतियों के रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव की मीमांसा के क्रम में रचनाकार की सामाजिक स्थिति और उसकी रचनाओं को सीधे-सीधे जोड़कर देखने से पैदा होने वाले सरलीकरण के खतरे को रेखांकित किया है।
बिहार के सामंतों के बीच कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह की छवि एक सामंत-विरोधी वामपंथी बुद्धिजीवी और साहित्यकार की थी, जबकि हिन्दी के कुछ तथाकथित प्रगतिशील एवं जनवादी विद्वान राजेन्द्र जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को संदेह की नज़र से देखते थे। ऐसे में कवि इक़बाल की याद न आए, यह मुमकिन नहीं :
ज़ाहिदे-तंग- नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
काफ़िर ये समझता है मुसलमां हूँ मैं ।

Comment by Professor Ravi Ranjan on October 15, 2015 at 2:10am

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